सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बॉलीवुड में नेपोटिज्म पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है. नेपोटिज्म प्रतिभाओं को रौंदने का काम करता है, फिल्मी जगत में सपनों को तोड़ने का काम करता है. नए कलाकार बड़े घरानों के बीच आउटसाइडर बने रहते हैं.
इस बीच, नेपोटिज्म पर चर्चा इतनी बेधड़क आगे बढ़ती गई कि कई फिल्मों और फिल्म वालों को इसकी आंच झेलनी पड़ी. करण जौहर से लेकर सोनाक्षी सिन्हा तक सोशल मीडिया से महीनों नदारद रहीं. महेश भट्ट की नई रिलीज ‘सड़क 2’ का ट्रेलर सबसे हेटेड ट्रेलर बन गया. ऐसे में सवाल उठता है कि नेपोटिज्म पर बातचीत करना गलत है?
लेकिन बात सिर्फ बॉलीवुड पर क्यों?
नेपोटिज्म पर चर्चा कोई गलत बात नहीं, लेकिन इसमें नई बात भी क्या है. सालों से बॉलीवुड में कपूर, चोपड़ा, मुखर्जी, बड़जात्या परिवार का बोलबाला रहा है. कोई किसी का बेटा है तो कोई बेटी, कोई भतीजा है तो कोई भाई और बहन. यही हाल दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का भी है. लोकप्रिय बैनर अपने ही परिवार से लेखक, निर्देशक और संगीतकार तलाशते हैं. इस बीच कोई एकाध नया कलाकार चमक भी जाता है तो वह अपवाद ही होता है.
यूं तो प्रतिभा किसी की बपौती नहीं होती. यह किसी कलाकार के परिवार वाले के भीतर भी हो सकती है, परिवार वाले से इतर भी.
बात मौके की है. पर भारतीय सिनेमा में ज्यादातर मौका सिर्फ परिवार वालों को ही मिलता है. पर यहां बात सिर्फ सिनेमा की बात नहीं है. नेपोटिज्म तो दरअसल सभी जगह है. ब्यूरोक्रेसी में, राजनीति में, अकादमिक सर्किल में, ज्यूडीशियरी में भी.
नेपोटिज्म कहां नहीं है?
सबसे पहले राजनीति में नेपोटिज्म पर चर्चा की जा सकती है. संसद और विधानसभाओं के आंकड़ों से पता चलता है कि बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरी बहुत सी पार्टियां भी नेपोटिज्म को बढ़ावा देती हैं. इंडिया स्पेंड जैसे नॉन प्रॉफिट ने इस पर एक अध्ययन किया. इसमें कहा गया कि 1999 से लोकसभा में कांग्रेस के 36 ‘डायनेस्टिक’ सांसद चुने गए और बीजेपी के 31. डायनेस्टिक यानी जिनके मां, पिता या स्पाउस लोकसभा में पहले चुने जा चुके हैं. दिलचस्प बात यह है कि इस परिभाषा में भतीजे भांजे या दूसरे रिश्तों को शामिल नहीं किया गया था. अध्ययन में सभी दलों में नेपोटिज्म पाया गया, चाहे वह शिरोमणि अकाली दल हो या शिवसेना, आरजेडी, एसपी हो या नेशनल कॉन्फ्रेंस.
इसी नेपोटिज्म की बदौलत गोवा जैसे छोटे राज्य के सरकारी कर्मचारियों की संख्या 65 हजार तक पहुंच गई है. ब्यूरोक्रेसी में भाई भतीजावाद का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता. गोवा की आबादी लगभग 15 लाख है और इस हिसाब से वहां हर 20 लोगों पर एक सरकारी कर्मचारी है. चूंकि सरकारी नौकरियों में लगातार भर्तियां होती जाती हैं और इसकी बहुत बड़ी वजह अपने रिश्तेदारों को नौकरियां देना भी है.
इसी तरह अकैडमिक्स और ज्यूडीशियरी में भी नेपोटिज्म से कौन इनकार कर सकता है. शिक्षा क्षेत्र में नेपोटिज्म यानी अकैडमिक इनब्रीडिंग ने विश्वविद्यालयों को बर्बाद किया है. अकैडमिक ब्रीडिंग का मतलब है, जब अपने यहां के डॉक्टोरल डिग्री वालों को नौकरियां दे दी जाएं जिनका कोई अकैडमिक अनुभव न हो. यह लंबे समय से चल रहा है और एमए कलाम जैसे मशहूर एंथ्रोपोलॉजिस्ट और स्कॉलर इसे भारतीय विश्वविद्यालयों का क्लोज्ड नेचर बताते हैं. इसी तरह इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडे पिछले साल प्रधानमंत्री को खुद चिट्ठी लिखकर बता चुके हैं कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली नेपोटिज्म और जातिवाद से भरी हुई है.
जातिवाद भी 'अपर कास्ट' का नेपोटिज्म ही है
जस्टिस पांडे की चिट्ठी में जिस जातिवाद का जिक्र था, बात आखिर उसी पर आकर रुकती है. भारत की ज्यूडीशियरी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी समुदायों को पूरा प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिला. अधीनस्थ अदालतों में 16,693 जजों में सिर्फ 3,973 जज एससी/एसटी/ओबीसी हैं. सुप्रीम कोर्ट में 31 में से एक जज रामकृष्णनन गवई दलित हैं. उन्हें 2017 में सुप्रीम कोर्ट लाया गया था, वह भी लगभग एक दशक की जद्दोजेहद के बाद. इनमें एक भी जज आदिवासी समुदाय का नहीं है. तिस पर कोटा में कोटा की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट ने एक पुरानी बहस को दोबारा छेड़ दिया है.
अब बात नौकरशाही की. कार्मिक, जन शिकायत और पेंशन मंत्रालय के डेटा को संसद में रखते हुए मंत्री जितेंद्र सिंह 2019 में बता चुके हैं कि केंद्र में नियुक्त 89 सचिवों में सिर्फ एक अनुसूचित जाति का है, और तीन अनुसूचित जनजाति के. इनमें से एक भी पिछड़ा वर्ग का नहीं है.
केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में अतिरिक्त सचिव, संयुक्त सचिव और निदेशक के स्तर पर भी यही स्थिति है. 93 अतिरिक्त सचिवों में छह एससी और पांच एसटी हैं, ओबीसी एक भी नहीं. 275 संयुक्त सचिवों में 12 एससी हैं, नौ एसटी और 19 ओबीसी हैं.
शिक्षा क्षेत्र के आंकड़े भी देखे जा सकते हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2017-18 के ऑल इंडिया सर्वे फॉर हायर एजुकेशन में कहा गया है कि 56.8% टीचिंग स्टाफ जनरल कैटेगरी का है, 8.6% अनुसूचित जातियों और 2.27% अनुसूचित जनजातियों का. मंत्रियों की भी बात कर ली जाए. 2019 में आम चुनाव में जीत के बाद प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल में कुल 58 मंत्रियों को शपथ दिलाई जिनमें से सिर्फ छह एससी और चार एसटी हैं.
आप नेपोटिज्म और आरक्षण की आलोचना साथ-साथ नहीं कर सकते
इस पर मुख्यधारा की चर्चा छेड़ी नहीं जाती क्योंकि सभी जानते हैं कि जाति का नाम लेने से ज्यादा मुश्किल चर्चा शुरू हो जाएगी. यह चर्चा कैसे मुश्किल होगी. इस तरह, कि जातिवाद भी 'अपर कास्ट' के नेपोटिज्म की ही एक मिसाल है. हर क्षेत्र में जनसंख्या के हिसाब से अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ा वर्ग को गैर अनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला है. यह विडंबना है कि नेपोटिज्म को खत्म करने का जो सबसे अच्छा इलाज है, आरक्षण, नेपोटिज्म की आलोचना करने वाले उसी के खिलाफ बोलते हैं. आरक्षण की क्या वजह थी- ताकि दलितों-आदिवासियों को सरकार चलाने, देश चलाने में हिस्सेदारी दी जा सके. ताकि 'ऊंची जातियों' का नेपोटिज्म सभी क्षेत्रों से हट सके. तो, नेपोटिज्म दरअसल जाति का ही मामला है. इसीलिए अगर आप नेपोटिज्म की आलोचना करते हैं तो आप आरक्षण की आलोचना नहीं कर सकते. यह अपने आप में विरोधाभासी है.
बदलाव तो चाहिए, पर खुद बदलना नहीं चाहते
नेपोटिज्म और आरक्षण की साथ-साथ आलोचना करने वाले दोहरे व्यक्तित्व के शिकार हैं. बॉलीवुड में नेपोटिज्म की दुहाई देने वाले बदलाव चाहते तो हैं, पर अपने आस-पास नहीं, दूर की दुनिया में. अपनी दुनिया को वे जस की तस रहने देना चाहते हैं. हम बदलाव अपने काम करने की जगहों पर नहीं, शिक्षण संस्थानों में नहीं, अपनी रोजमर्रा के जीवन में नहीं चाहते. इन जगहों पर हम वही 'अपर कास्ट' सर्किल चाहते हैं.
एक समय के बाद हमारा सर्किल कास्ट बेस्ड सर्किल ही होता है. इसीलिए हमें यही चंगा लगता है कि सफाई कर्मचारी कचरा ही उठाता रहे, साफ सफाई ही करता रहे.
शायद यही वजह है कि कई राज्यों में सफाई कर्मचारियों की भर्तियों में खास जातियों को ही प्राथमिकता दी जाती है. राजस्थान में 2012 में सैनिटेशन वर्कर्स के एक विज्ञापन में सरकार ने हेला और वाल्मीकि जातियों को वरीयता देने की बात कही थी जिसे हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. बाद में सरकार को संवैधानिक प्रावधानों के तहत सभी जातियों के लिए इस भर्ती को खोलना पड़ा.
एक पहल कला जगत में
बात बॉलीवुड से शुरू हुई तो कला की दुनिया पर विमर्श के साथ खत्म भी होनी चाहिए. मशहूर म्यूजीशियन और एक्टिविस्ट टीएम कृष्णा ने कई साल पहले कर्नाटक संगीत में ब्राह्मणों के वर्चस्व की बात छेड़ी थी. उन्होंने कहा था कि हमारी दुनिया ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाली है, यहां दूसरी जातियों और धर्म के लोगों का स्वागत नहीं किया जाता.
उन्होंने कहा था कि इसके लिए पहल भी हमें ही करनी होगी. इसके बाद उन्होंने चेन्नई के मशहूर संगीत समारोह में हिस्सा नहीं लिया. इसके खिलाफ उन्होंने लिखना बोलना शुरू किया. चेन्नई में मछुआरों की बस्ती में संगीत समारोह करने शुरू किए. यहां लोक कला और लोकप्रिय संगीत को भी मौका दिया गया. तो सिनेमा भी कला क्षेत्र का ही एक हिस्सा है, लेकिन वहां यह चर्चा शुरू ही नहीं होती. खासकर हिंदी फिल्मों में. वहां तमिल इंडस्ट्री के पा. रंजीत और मराठी फिल्मों के नागराज मंजुले जैसे लोग मौजूद नहीं हैं.
नेपोटिज्म या भाई भतीजावाद किसी भी क्षेत्र का सत्यानाश करता है. पर अगर यह 'सवर्णों' का नेपोटिज्म है तो और भी खतरनाक है. इसीलिए नेपोटिज्म के साथ-साथ 'सवर्णों' के जातिगत नेपोटिज्म पर भी बात होनी चाहिए. अगर उसे उसी हाल में छोड़ दिया जाएगा तो यह समाज के प्रति हमारी बेपरवाही और ढिठाई का ही सबूत होगा.
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