सरहद पर भारत और चीन के बीच पिछले तीन महीने से जारी तनातनी के बीच ये सवाल जेहन में बार-बार आता है कि आज सुषमा स्वराज होतीं तो लद्दाख विवाद का हल कैसे निकलता? क्या डोकलाम की तरह इस बार भी चीन पीछे हटने को तैयार हो जाता? क्या LAC पर दोनों देशों के बीच दिन-ब-दिन बढ़ती सैन्य तैनाती की नौबत ही नहीं आती?.
तीन साल पहले की बात है जब सिक्किम में भारत-चीन-तिब्बत सीमा पर ट्राई-जंक्शन के पास डोकलाम में भारत और चीन की सेना आमने-सामने आ गई थी. विवाद तब शुरू हुआ जब भारतीय सैनिकों ने इस इलाके में चीनी सेना के सड़क निर्माण को रोक दिया. करीब 73 दिनों तक डोकलाम में दोनों देशों के बीच गतिरोध जारी रहा. और 28 अगस्त 2017 को बातचीत के जरिए विवाद सुलझा लिया गया.
भारत में डोकलाम का मसला राजनीतिक गलियारों में लंबे समय तक छाया रहा. विपक्षी दल लामबंद होकर संसद में सरकार को घेरते रहे. प्रधानमंत्री मोदी के बयान और चर्चा की मांग करते रहे. डोकलाम गतिरोध के दौरान सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री संसद में सरकार की तरफ से मोर्चा संभाले रखा और विपक्षी दलों और जनता को भी भरोसा दिलाया कि विवाद को बातचीत के जरिए सुलझा लिया जाएगा. सुषमा ने तब कहा था कि जंग किसी समस्या का हल नहीं है. और ऐसा ही हुआ.
करीब एक साल बाद, 1 अगस्त 2018 को, कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के हंगामे के बीच, सुषमा स्वराज ने लोकसभा में बताया कि ‘डोकलाम गतिरोध को “कूटनीतिक परिवक्ता” से बिना कोई जमीन गंवाए सुलझा लिया गया, जिसके बाद से विवादित इलाके में यथास्थिति बरकरार है’.
सुषमा ने फिर ये भी बताया कि डोकलाम विवाद के बाद वुहान में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बैठक की तैयारी के लिए वो खुद चीन गई थीं. बैठक का उद्देश्य दोनों देशों के बीच आपसी सहजता, समझ और विश्वास बढ़ाना था. सुषमा स्वराज ने दावा किया कि वो तीनों उद्देश्यों को हासिल करने में कामयाब रहीं. मुलाकात के दौरान मोदी और जिनपिंग में ये भी सहमति बनी कि विवाद के हालात में दोनों देशों की सेना अपने स्तर पर बातचीत कर मामले को सुलझा लेंगे.
लेकिन तीन साल बाद एक बार फिर चीन के साथ LAC पर तनाव बना है और विवाद सुलझने का कोई रास्ता नजर नहीं आता.
इंदिरा के बाद सबसे ताकतवर महिला नेता
अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत के विदेश मंत्री के तौर पर सुषमा स्वराज ने इंदिरा गांधी के बाद देश की दूसरी सबसे ताकतवर महिला की पहचान बना ली थी. सुषमा जब बोलती थीं तो दुनिया सांसें रोक कर सुनती थी.
सितंबर 2018 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा के 73वें सत्र में सुषमा स्वराज का वो भाषण इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका है, जिसमें उन्होंने आतंकवाद की सरपरस्ती के लिए पाकिस्तान की धज्जियां उड़ा दीं. सुषमा ने बताया कि पाकिस्तान से बातचीत के लिए वो खुद इस्लामाबाद गई थीं, लेकिन कुछ ही दिनों बाद पठानकोट में एयरबेस पर हमला हो गया. पाकिस्तान में आतंकवादियों को स्वतंत्रता सेनानी बताकर सम्मानित करने की परंपरा की पोल खोलते हुए सुषमा ने संयुक्त राष्ट्रसंघ से आतंकवाद को परिभाषित करने की मांग कर दी.
“मोदी सरकार और बीजेपी की संकटमोचक”
सुषमा स्वराज वाकई संकटमोचक थीं, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में विदेश मंत्री का कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने दुनिया भर से युद्धग्रस्त इलाकों में फंसे हजारों भारतीय लोगों बचाकर वापस लाने का काम किया. अकेले यमन से उन्होंने ‘ऑपरेशन राहत’ के तहत 2015 में चार हजार से ज्यादा भारतीयों को बाहर निकाला, एक साल बाद ‘ऑपरेशन संकटमोचन’ लॉन्च कर दक्षिणी सूडान के सिविल वॉर में फंसे 500 से ज्यादा भारतीयों की घर वापसी कराई.
सिर्फ एक ट्वीट पर सुषमा विश्व के किसी भी कोने में फंसे भारतीय को बचाने की मुहिम छेड़ देती थीं. सुषमा कहती थीं भारतीय दूतावास मंगल ग्रह से भी निकालने में आपकी मदद करेगा.
कंधे पर विदेश मंत्रालय जैसी बड़ी जिम्मेदारी रहने के बावजूद सुषमा मानवीय मदद के लिए ना सिर्फ वक्त निकाल लेती थीं, बल्कि इसे एक मिशन की तरह अंजाम देती थीं. ये सुषमा स्वराज के अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि 2015 में भटककर पाकिस्तान जा पहुंची दिव्यांग लड़की गीता एक दशक के बाद स्वदेश लौट सकीं. और मौत की सजा सुनाए गए भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव की मां और पत्नी को पाकिस्तान ने उससे मिलने की इजाजत दे दी.
या ऑनलाइन दोस्त से मिलने के लिए बिना वीजा पाकिस्तान में घुसे मुंबई के हामिद अंसारी को 6 साल बाद पाकिस्तान की जेल से निकालकर भारत लाईं.
हरियाणा के अंबाला कैंट में जन्मीं सुषमा ने राजनीति की शुरुआत तो जनता पार्टी से की लेकिन बीजेपी में आने के बाद वो पार्टी की संकटमोचक बन गईं, चाहे इसके लिए उन्हें राजनीतिक नुकसान ही क्यों ना झेलना पड़ा हो.
1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले दो पूर्व मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच सियासी झगड़ा इतना बढ़ गया कि लगा राजधानी में बीजेपी दो टुकड़ों में बंट जाएगी. उस समय सुषमा अटल बिहारी वाजेपयी की कैबिनेट में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं. लेकिन पार्टी का फैसला मानते हुए उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया.
सुषमा दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं. सिर्फ 51 दिनों के कार्यकाल में अंदरूनी कलह से कमजोर बीजेपी को राजधानी में दोबारा सत्ता में लाना मुमकिन नहीं था, इसलिए पार्टी विधानसभा चुनाव तो हार गई, लेकिन सुषमा के बीच में आने से बीजेपी टूटने से बच गई.
सिर्फ एक साल बाद, सुषमा स्वराज ने दोबारा पार्टी के लिए खुद को दांव पर लगा दिया. 1999 का लोकसभा चुनाव सिर पर था, अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी सरकार गिर चुकी थी. सोनिया गांधी कांग्रेस की कमान संभाल चुकी थीं लेकिन पार्टी में विदेशी मूल का मुद्दा गरम था, कांग्रेस तोड़ कर शरद पवार ने अलग नेशनल कांग्रेस पार्टी बना ली थी.
सोनिया ने कर्नाटक के बेल्लारी से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला लिया. बीजेपी ने सोनिया को टक्कर देने के लिए सुषमा स्वराज को बेल्लारी भेजा. यह सीट कांग्रेस का किला माना जाता था. कर्नाटक में तब बीजेपी का कमल खिला नहीं था. चुनाव प्रचार के लिए उनके पास सिर्फ दो हफ्ते का वक्त मिला था, लेकिन संकटमोचक सुषमा ने सिर्फ चुनौती स्वीकार किया, बल्कि इतने कम समय में कन्नड़ भाषा सीखकर, स्थानीय लोगों की जुबान में कैंपेनिंग कर सोनिया गांधी को जबरदस्त टक्कर दी. सुषमा बेल्लारी चुनाव हार गईं लेकिन वहां के लोगों का दिल जीत गईं, और कई सालों तक वहां जाती रहीं.
कई साल बाद 2013 में सुषमा ने एक कार्यक्रम में कहा,
‘बेल्लारी का चुनाव मेरे लिए एक मिशन था, मैं चुनाव हार गई, लेकिन युद्ध जीत गई’.
ये कथन इसलिए भी सच था कि बेल्लारी के उस चुनाव के बाद ही कर्नाटक की राजनीति में बीजेपी की पकड़ मजबूत होती चली गई. और 2007 में पहली बार वहां बीजेपी की सरकार भी बनीं.
प्रखर वक्ता, बेमिसाल जननेता सुषमा स्वराज की जिम्मेदारियां बदलती रहीं लेकिन वो पार्टी की संकटमोचक बनी रहीं.
2013 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को जब बीजेपी ने पीएम पद का उम्मीदवार बनाया तो एल के आडवाणी नाराज हो उठे. अखबारों में छपी रिपोर्ट के मुताबिक वो मोदी के नाम पर तैयार नहीं थे. जिस कार्यक्रम में इसकी घोषणा हुई उसमें शामिल नहीं हुए. इससे पहले जब मोदी को बीजेपी चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाया गया तो नाराज होकर आडवाणी पार्टी के तीन बड़े पदों से इस्तीफा दे चुके थे.
उस समय पार्टी अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह को उन्होंने बिना मोदी का नाम लिए लिखा था, ‘कुछ समय से मुझे पार्टी के मौजूदा कामकाज, या जिस दिशा में पार्टी जा रही है, के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल लग रहा है.’ ऐसा लग रहा था कि 2014 चुनाव से पहले ही बीजेपी दो फांक हो जाएगी. फिर आडवाणी को मनाने की जिम्मेदारी सुषमा स्वराज ने संभाली. वो हमेशा से उनके काफी करीब मानी जाती थीं.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक आडवाणी के एकतरफा फैसले से सुषमा हैरान थीं, लेकिन उन्होंने कहा वो आडवाणी से मिलने जाएंगी और उन्हें पूरा यकीन है कि आडवाणी को मनाने में वो कामयाब रहेंगी. आखिरकार आडवाणी के मान जाने से पार्टी पर मंडराता बड़ा सियासी संकट टल गया.
इसके बाद 2014 लोकसभा चुनाव में भोपाल से टिकट नहीं मिलने पर आडवाणी दोबारा नाराज हो गए, पार्टी ने उन्हें गांधीनगर से टिकट दिया था. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक खुद नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी से मिलकर उन्हें मनाने की कोशिश की थी. इस दौरान भी सुषमा स्वराज बार-बार आडवाणी से मिलकर उन्हें मनाने की कोशिश करती रहीं. बाद में आडवाणी अहमदाबाद से चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए.
67 साल के सफर में सुषमा स्वराज ने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की, विश्व मंच पर देश का नाम रौशन किया, लेकिन आखिरी सांस तक वो अपने नाम की तरह सौम्य बनी रहीं, उनका हृदय विशाल था, वो शीतल स्वभाव की थीं.
सुषमा हमेशा विवाद और चकाचौंध से दूर रहीं. मीडिया और इंटरव्यू को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहती थीं. वो सादगी में यकीन करती थीं. यही वजह है 2016 में जब सुषमा ने ट्विटर पर अपने किडनी ट्रांसप्लांट की खबर दी तो उन्हें किडनी दान करने की इच्छा रखने वाले लोगों का तांता लग गया.
6 अगस्त, 2019 को उनके देहांत के एक साल बाद भी आज पूरे देश को सुषमा की कमी चुभ रही है
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