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‘धर्म संसद’ में विवेकानंद ने कहा था: भारत को धर्म नहीं, रोटी चाहिए

स्वामी विवेकानंद ने अपने उस एतिहासिक भाषण में ऐसी कई और बातें भी कही थीं, जिन्हें बार-बार याद किया जाना जरूरी है 

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स्वामी विवेकानंद ने 125 साल पहले 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद के मंच से अपना पहला मशहूर भाषण दिया था. इस भाषण का जिक्र होते ही वो किस्सा जरूर याद किया जाता है, जब स्वामी विवेकानंद ने वहां मौजूद श्रोताओं को 'अमेरिका के भाइयों और बहनों' कहकर संबोधित किया था और जिस पर कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाट गूंजती रही थी.

लेकिन स्वामी विवेकानंद ने अपने उस एतिहासिक भाषण में ऐसी कई और बातें भी कही थीं, जिन्हें बार-बार याद किया जाना जरूरी है.

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सभी धर्म एक ही ईश्वर तक ले जाते हैं

स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका की धरती पर खड़े होकर दुनिया को भारतीय अध्यात्म और दर्शन की उस परंपरा से परिचित कराया, जिसमें सभी धर्मों को एक ही ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता माना गया है. अपने पहले भाषण में उन्होंने कहा था:

भाइयों और बहनों, मैं आपको उस श्लोक की कुछ पंक्तियों के बारे में बताऊंगा, जो मैं अपने बचपन के दिनों से बार-बार दोहराता रहा हूं और जिसे हर दिन लाखों लोग दोहराते हैं. अलग-अलग जगहों से निकलने वाली विभिन्न धाराओं का जल जिस प्रकार समुद्र में मिलकर एक हो जाता है, उसी तरह भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों वाले इंसान सीधे या टेढ़े-मेढ़े अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए एक ही ईश्वर को प्राप्त करते हैं...

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि परसामर्णव इव।। - शिव महिमा स्तोत्रम

स्वामी विवेकानंद ने अपने उस एतिहासिक भाषण में ऐसी कई और बातें भी कही थीं, जिन्हें बार-बार याद किया जाना जरूरी है 

स्वामी विवेकानंद ने अपने उस भाषण में सभी धर्मों की मूलभूत एकता का संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए गीता के कृष्ण-अर्जुन संवाद का जिक्र भी किया था:

ये सम्मेलन अपने आप में गीता के उस महान सिद्धांत की विजय है, उसकी वैश्विक घोषणा है, जिसमें भगवान कृष्ण ने कहा है: जो भक्त जिस भी रूप में मेरी भक्ति करता है, मैं उसकी भक्ति को उसी रूप में स्वीकार करता हूं. मनुष्य अलग-अलग मार्गों से मुझ तक पहुंचने का प्रयास करते हैं और वे सभी मार्ग आखिरकार मुझ तक ही आते हैं.

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यमहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।। - गीता

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स्वामी विवेकानंद ने अपने इस भाषण का समापन जिन शब्दों के साथ किया था, वो आज भी उतने ही प्रासंगिक और दिल को छूने वाले हैं, जितने सवा सौ साल पहले थे:

सांप्रदायिकता, धर्मांधता और उससे पैदा होने वाली खतरनाक उन्मादी सोच ने लंबे अरसे से इस सुंदर धरती पर कब्जा जमा रखा है. इन बुराइयों ने सारी दुनिया को हिंसा से भर दिया है, धरती को बार-बार इंसानों के खून से नहलाया है, सभ्यताओं को नष्ट किया है और भरे-पूरे राष्ट्रों को बर्बादी की गर्त में धकेलने का काम किया है. अगर बुराइयों के ये खौफनाक दानव मौजूद नहीं होते, तो मानव समाज आज के मुकाबले कहीं ज्यादा विकसित हुआ होता. लेकिन अब इन बुराइयों का वक्त पूरा हो चुका है, और मुझे पूरा विश्वास है कि आज सुबह इस सम्मेलन के सम्मान में जो घंटी बजी, वो तमाम उन्मादी कट्टरता, तलवार और शब्दों के जोर से किए जाने वाले उत्पीड़न और अलग-अलग रास्तों से एक ही लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करते लोगों के बीच आपसी दुश्मनी के भाव को खत्म करने वाली मौत की घंटी साबित होगी.

शिकागो की विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का दिया ये भाषण बेहद मशहूर है. लेकिन उन्होंने उस धर्म संसद में सिर्फ एक ही भाषण नहीं दिया था. 11 से 27 सितंबर 1893 के दौरान स्वामी विवेकानंद ने धर्म संसद को कुल 6 बार संबोधित किया था.

हम एक-दूसरे के खिलाफ क्यों हो जाते हैं?

स्वामी विवेकानंद ने अपने उस एतिहासिक भाषण में ऐसी कई और बातें भी कही थीं, जिन्हें बार-बार याद किया जाना जरूरी है 

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का दूसरा भाषण 15 सितंबर 1893 को हुआ था, जिसमें उन्होंने धर्म के नाम पर आपस में लड़ने वालों को कुएं के मेढक की कहानी सुनाकर संकीर्णताओं से बाहर निकलने का संदेश दिया था. इस छोटे लेकिन बेहद महत्वपूर्ण संबोधन का समापन करते हुए उन्होंने कहा था:

मैं एक हिंदू हूं. मैं अपने छोटे से कुएं में बैठकर सोच रहा हूं कि सारी दुनिया मेरे इस छोटे से कुएं में ही समाई हुई है. ईसाई अपने छोटे से कुएं में बैठकर उसे ही सारी दुनिया समझता है. मुसलमान अपने कुएं में बैठकर मानता है कि दुनिया का दायरा इतना ही है. मैं अमेरिका को धन्यवाद देता हूं कि आप हमारी इस छोटी सी दुनिया को संकीर्ण सोच के अलग-अलग दायरों में बांटने वाली दीवारें खत्म करने का महान प्रयास कर रहे हैं. मुझे विश्वास है कि आप भविष्य में अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में जरूर सफल होंगे और इसमें ईश्वर आपकी पूरी सहायता करेगा.
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हिंदू धर्म के बारे में क्या बोले थे स्वामी विवेकानंद?

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का सबसे लंबा भाषण हिंदू धर्म के बारे में था, जो उन्होंने 19 सितंबर 1893 को दिया था. अपने इस भाषण में स्वामी जी ने बताया था कि हिंदू धर्म का असली संदेश लोगों को अलग-अलग धर्म-संप्रदायों के खांचों में बांटने का नहीं, बल्कि पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोने का है. उन्होंने कहा कि गीता में खुद भगवान कृष्ण ने यही संदेश दिया है:

अलग-अलग रंगों के कांच से होकर हम तक पहुंचने वाला प्रकाश एक ही है... ईश्वर ने भगवान कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिंदुओं को बताया: मोतियों की माला को पिरोने वाले धागे की तरह मैं हर धर्म में समाया हुआ हूं... तुम्हें जब भी कहीं ऐसी असाधारण पवित्रता और असामान्य शक्ति दिखाई दे, जो मानवता को ऊंचा उठाने और उसे सही रास्ते पर ले जाने का काम कर रही हो, तो समझ लेना मैं वहां मौजूद हूं.

भारत को धर्म नहीं, रोटी चाहिए

1893 की विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का चौथा भाषण इतना छोटा था कि उसे एक संक्षिप्त टिप्पणी भी कह सकते हैं. लेकिन 20 सितंबर 1893 को अपनी इस संक्षिप्त टिप्पणी में वो एक ऐसी बात कह गए, जिसकी अहमियत आज भी बहुत बड़ी है:

पूरब की दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत धर्म से जुड़ी हुई नहीं है. उनके पास धर्म की कमी नहीं है, लेकिन भारत की लाखों पीड़ित जनता अपने सूखे हुए गले से जिस चीज के लिए बार-बार गुहार लगा रही है, वो है रोटी. वो हमसे रोटी मांगते हैं, लेकिन हम उन्हें पत्थर पकड़ा देते हैं. भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना, उसका अपमान है. भूखे व्यक्ति को तत्वमीमांसा की शिक्षा देना उसका अपमान है.
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विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का आखिरी संदेश

स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में अपना छठा और अंतिम भाषण 27 सितंबर 1893 को सम्मेलन के समापन सत्र में दिया था. उनका वो संदेश सारी दुनिया को सदियों तक राह दिखाता रहेगा:

धर्म संसद ने दुनिया के सामने ये साबित कर दिया है कि पवित्रता, शुद्धता और उदारता, दुनिया के किसी एक धर्म की मिल्कियत नहीं है, सभी धर्मों ने सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले महान पुरुषों और महिलाओं को जन्म दिया है. इस बात के साबित होने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति सिर्फ अपने धर्म के आगे बढ़ने और बाकी धर्मों के नष्ट होने का सपना देखता है, तो मुझे उस पर दिल की गहराइयों से तरस आता है. मैं ऐसे लोगों को बताना चाहूंगा कि तमाम विरोध के बावजूद हर धर्म के बैनर पर बहुत जल्द लिखा होगा “युद्ध नहीं, सहयोग”, “विनाश नहीं, मेल-मिलाप”, “आपसी कलह नहीं, शांति और सद्भावना

स्वामी विवेकानंद ने सवा सौ साल पहले दुनिया के लोगों, खासतौर पर धर्म की बात करने वालों से जो उम्मीद लगाई थी, क्या वो अब तक पूरी हो सकी है? इस सवाल का जवाब तलाशने और उन अधूरी उम्मीदों को पूरा करने की कोशिश ही स्वामी विवेकानंद के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा की कसौटी है.

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