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तालिबान कैबिनेट: क्या 'निष्पक्ष' रहकर भारत अपना खोया हुआ प्रभाव पा सकता है?

Talban Cabinet में नियुक्तियों से संकेत मिलता है कि भारत के लिए दरवाजे बंद नहीं हैं

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अफगानिस्तान में (Afghanistan) जब तालिबान (Taliban) के विरोध में भारी भीड़ सड़कों पर उतरी और पाकिस्तान की निंदा की, तब उसी दरमियान प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने नई 'कार्यवाहक सरकार' की घोषणा की. लेकिन यह अफगानिस्तान के लिए थोड़ा असामान्य रहा. क्योंकि जिस हिसाब से सरकार को तैयार किया है उसको देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह सभी लोगों को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है.

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तालिबानियों द्वारा तैयार की गई नई कैबिनेट में "समावेशिता" का दिखावा भी नहीं किया गया है. इसमें न तो अल्पसंख्यकों न ही महिलाओं को जगह दी गई है, लेकिन यह किसी को नहीं चौंकाता नहीं है. वहीं एक समावेशी सरकार के गठन में अमेरिका का विश्वास भी संदिग्ध है.

इस बीच सरकार में नियुक्त किए नए लोग चल रहे सत्ता संघर्ष के खिलाफ अपना बचाव करने में व्यस्त होंगे. वहीं अन्य दूसरों से अपने प्रायोजकों के हितों की देखभाल करने की अपेक्षा की जाएगी, जिसमें न केवल पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के डायरेक्टर जनरल फैज हमीद शामिल हैं, जो शाम को सेरेना होटल में चाय की चुस्की ले रहे हैं, बल्कि बीजिंग में भी उनके संरक्षक हैं और एक चौकन्ना मास्को भी है.

ऐसे में इस सरकार की संरचना को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसी राजनीतिक अस्थिरता लगभग तय है. लेकिन नियुक्तियों से यह भी संकेत मिलता है कि भारत के लिए दरवाजे बंद नहीं हैं, अगर वह चाहे तो मदद कर सकता है.

पुराने चेहरों पर जोर

जिन लोगों की नियुक्ति की गई है उनके चेहरों और नामों को देखकर ऐसा लगता है कि पुराने दौर या मूल तालिबान खुद को सुरक्षित करने में कामयाब रहा है.

इस सरकार के मुखिया के तौर पर मुल्ला हसन अखुंद को चुना गया है वहीं उसके दो प्रतिनिधि के रूप में मुल्ला गनी बरादर और अब्दुस सलाम हनफी शामिल हैं. इनके अलावा कार्यवाहक विदेश मंत्री के तौर पर आमिर खान मोत्ताकी को सरकार में शामिल किया गया है.

अखुंद सबसे पुराना है और मुल्ला उमर के राजनीतिक सलाहकार भी है. वहीं एक तथ्य यह भी है कि वे पंजवाई का काकर है. वंश के कारण उनके नाम पर ज्यादा जोर दिया जाता है. लेकिन उसको किसी प्रकार की लड़ाई का कोई अनुभव नहीं है. पुराने तालिबान और युवा कैडरों के बीच वे एक समझौतावादी उम्मीदवार प्रतीत होता है, जिनमें से अधिकांश का पाकिस्तान से मजबूत जुड़ाव है.

हनाफी, मोत्ताकी और बरादर तीनों एक ही उम्र वर्ग के हैं. ये 2001 की पहली तालिबान सरकार का भी हिस्सा रहे हैं और बाद में कतर में राजनीतिक आयोग की हुई स्थापना में भी ये शामिल थे.

इसके बाद शेर मोहम्मद स्टानिकजई हैं, जिन्हें पिछली सरकार द्वारा उप विदेश मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था और उन्होंने दोहा में बरादर के दूसरे कमांड के रूप में कार्य किया था.

व्यापक तौर पर देखा जाए तो ये वे लोग हैं, जिन्होंने चीन सहित विदेशी सरकारों के साथ बातचीत की है और अधिकांश सरकारों द्वारा इनको स्वीकार करने की संभावना भी है. जिसमें भारत भी शमिल हो सकता है.

नि:संदेह इनमें से किसी के पास भी दिल्ली को नापसंद करने का कोई कारण नहीं है, कम से कम शेर स्टानिकजई के रूप में, क्योंकि वह देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी में अपने बैचमेट्स के लिए जाने जाते थे. ये पुराने तालिबानी ऐसे व्यक्ति होंगे जो स्थिरता (अपने पदों के साथ) चाहते हैं. ये न केवल पाकिस्तान, बल्कि बाकी विश्व के साथ सक्रिय रूप से जुड़ने के आदी हैं.

ग्वांतानामो सेगमेंट

इनमें एक अन्य खेमा भी है, ये उन लोगों से बना है जो पिछली सरकार का हिस्सा थे और जिन्हें ग्वांतानामो खाड़ी में कैद करके रखा गया था.

इस खेमे में नूरुल्लाह नूरी शामिल है, जिसे सीमा और जनजातीय मामलों जैसा अहम मंत्रालय मिला है. यह एक महत्वपूर्ण पद है जो पहले हक्कानी के पास था. पाकिस्तान बॉर्डर की सुरक्षा को सुरक्षित करने और उनके जादरान जनजाति से मिठास बढ़ाने के नूरी को यह भूमिका दी गई है. नूरी के पास उत्तरी गठबंधन के पूर्व नेताओं को पसंद करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि उन्हाेंने उसे अमेरिका को सौंप दिया और आखिरकार उन्हें बंदी बना लिया गया था.

नूरी के अलावा इसमें अब्दुल हक़ वासिक है. इसने पाकिस्तान में अपनी शिक्षा पूरी की और यह पिछली सरकार में खुफिया विभाग में था. अब वह कार्यवाहक खुफिया निदेशक है, जिसका मतलब है कि वह पावरफुल राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस) का कार्यभार संभाल रहा है, जो सीधे राष्ट्रपति या राज्य के प्रमुख को रिपोर्ट करता है.

सूचना और संस्कृति विभाग का कार्यवाहक मंत्री खैरुल्ला खैरख्वा को बनाया गया है ये भी कंधारी है. इसके अलावा कंधार के ही मोहम्मद फाजिल मजलूम को उप रक्षा मंत्री का दायित्व दिया गया है, इसे पाकिस्तान सीमा पर पकड़ा गया था.

ये सभी कैदी स्पष्ट तौर पर सबसे विश्वसनीय 'कोर' तालिबानी हैं, क्योंकि इनकी रिहाई के लिए सार्जेंट बोवे बर्गदहल के बदले बातचीत की गई थी, जिसे हक्कानी द्वारा बंदी बना लिया गया था. अभी तक यह अनिश्चित है कि वे किस रास्ते पर जाएंगे, लेकिन उनके पास स्पष्ट रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका या उसके सहयोगियों को पसंद करने का कोई कारण नहीं है. पहले के अधिकांश तालिबान नेताओं की तरह, ये भी पाकिस्तान को उसकी हाथ घुमाने की रणनीति और समूह के अपहरण के लिए जिम्मेदार मानते हैं.
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हक्कानी ट्रैप

पुराने चेहरे और जेल में जा चुके लोगों के बाद तीसरा और सबसे खतरनाक समूह हक्कानी है. जिसने अमह विभागों पर कब्जा जमाया है. खूंखार आतंकी सिराजुद्दीन हक्कानी को गृह मंत्रालय जैसा अहम विभाग दिया गया है. सिराजुद्दीन के सिर पर 5 मिलियन डॉलर का ईनाम है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों के अनुसार, उसके संगठन में सबसे सक्षम और अच्छी तरह से सुसज्जित सशस्त्र लड़ाके हैं और उसका समूह क्षेत्रीय विदेशी आतंकवादी समूहों के साथ-साथ तालिबान और अल-कायदा के बीच प्रमुख संपर्क के साथ-साथ आउटरीच और सहयोग के लिए प्रमुख केंद्र के तौर पर भी कार्य करता है. ऐसे में काबुल में इनसे सावधान रहने की जरूरत है.

गृह मंत्रालय आंतरिक मंत्रालय है, जो पहले अमरुल्ला सालेह के पास था. इस विभाग में अफगान नेशनल पुलिस सहित 99,000 बलों का स्टाफ है, जो सामान्य पुलिस की तुलना में एक अर्धसैनिक बल से अधिक है. इनके पास देश के अंदर खुफिया ताकत है.

सरकार और उसके बाहर हर विभाग के कर्मचारियों के आंकड़ों के अलावा आंतरिक मंत्रालय के पास "उदारवादियों" यानी लिबरल्स को ट्रैक करने के लिए आवश्यक रिकॉर्ड और अफगान पहचान प्रमाण पत्र भी हैं. इसके अलावा इसके पास आतंकवाद विरोधी और मादक पदार्थ (नार्कोटिक्स) विरोधी जिम्मेदारियां भी हैं. यह देखने में ठीक वैसा ही लग रहा है जैसे किसी लोमड़ी को मुर्गे पर नजर रखने के लिए कहा गया हो.

हक्कानी के सहायक पूर्व खुफिया अधिकारी और नजीबुल्लाह हक्कानी के चचेरे भाई मौलवी नूर जलाल होगा. इसे टेलिकॉम विभाग दिया गया है. खलील हक्कानी जो काबुल पर वास्तविक मुख्य सचेतक के रूप में अधिकार कर रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उसको शरणार्थी मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया है. इस भूमिका में वह पाकिस्तान में शरणार्थियों की आमद को रोकने और उन्हें देश के भीतर स्थानांतरित करने के लिए जिम्मेदार होगा, जैसा कि इस्लामाबाद मांग करता है.

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तालिबान के जनक का बेटा

इनमें मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला याकूब भी शामिल है. यह महत्वपूर्ण है कि शुरू में उसे गैर-कंधारी सिराजुद्दीन को संतुलित करने और आंदोलन को गुटों में विभाजित होने से रोकने के लिए प्रमुख प्रांतों में सैन्य अभियानों का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया था. उसने लगभग अपना पूरा जीवन पाकिस्तानी मदरसों में बिताया है, जहां वे अपने पिता के करीबी प्रमुख अधिकारियों की मदद से प्रमुखता से उभरा.

अमेरिका के साथ पिछले साल हुए समझौते के ठीक बाद उसे मिलिट्री कमीशन का प्रमुख बनाया गया था. सैन्य आयोग के प्रमुख के रूप में उसकी नियुक्ति को सिराजुद्दीन की तुलना में उनके प्रभाव और स्थिति को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा रहा है.

एक्सपर्ट्स का मानना ​​है कि उसकी नियुक्ति को सउदी ने भी समर्थन दिया था, क्योंकि उसने ईरानी समर्थित इब्राहिम सदर की जगह ली थी. लेकिन यहां भी ध्यान देने वाली बात है कि याकूब को मुल्ला मोहम्मद फाजिल द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी, जो पुराने गार्ड और दोहा समूह को शक्ति का एक नया स्रोत प्रदान करेगा.

रक्षा मंत्रालय के पास अमेरिका और भारत द्वारा प्रशिक्षित कैडर को एक साथ लाने और उन्हें अपने खुद के कैडर के साथ मिलाने का एक अविश्वसनीय कार्य है. संभावित तौर पर यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां भारत चाहे तो मदद कर सकता है. ज्यादा समय नहीं बचा है, इसमें दोनों पक्षों को अपने-अपने कैडेटों को भुगतान करना होगा.
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काबुल में राजनीतिक साजिशों की है भरमार

एक स्तर पर देखें तो अफगानिस्तान में की गईं नियुक्तियां बोर्ड प्रतिस्पर्धियों को शामिल करने और गुट को एकजुट रखने की तालिबान की क्षमता को दर्शाती है. यही मुल्ला उमर ने किया था और अब ऐसा प्रतीत हो रहा कि वर्तमान अमीर, हैबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने भी यही किया है, जबकि वह रहस्यमय तरीके से अभी भी लापता है.

लेकिन जब मुल्ला उमर ने ऐसा किया था तब तालिबान एक साझा दुश्मन से लड़ रहा था. लेकिन अब यह जीत के बाद मिले उपहार का समय है.

समूह के बीच विभाजन को देखे तो पुराने समूह के सभी लोग लड़े, शासन किया और फिर एक साथ छिप (मुख्य रूप से पाकिस्तान में) गए, वहीं हक्कानी और आईएसआई से जुड़े दोस्तों को सभी विभागों में देखा जा सकता है.

काबुल बेहतरीन परिस्थितियों में भी राजनीतिक साजिशों से भरा हुआ है. यह एक मजबूत नियंत्रक के हाथ नहीं है, ऐसे में स्थिति काफी खराब हो सकती है. डीजी आईएसआई खुद को वह कारक (नियंत्रक) मान सकते हैं, लेकिन वह नहीं हैं. इसके लिए भी बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है, जो केवल चीन से ही आ सकता है.

इस बीच, ईरान अपने शियाओं के लिए "समावेशीता" के लिए घोर अवहेलना से पहले से ही नाखुश है और रूस के लिए पाकिस्तान-चीन गठबंधन की जीत की शक्ति को देखने और देखने की संभावना नहीं है.

वहीं भारत के पास भाग लेने या न लेने का विकल्प है. रूस और चीन की तरह अमेरिका भी इसके प्रभाव से दूर हो गया है.

हालांकि, जब विवाद बिगड़ता है तो समर्थन और सहायता के लिए एक निष्पक्ष देश की मांग की जाएगी. दोनों ही द्विपक्षीय संबंधों में मजबूत बिंदु हैं. लेकिन समस्या यह है कि इन प्रतिद्वंद्वी खेमों के बीच नेवीगेट करना मुश्किल होगा.

दिल्ली को तब तक इंतजार करना होगा जब तक कि नए आंतरिक मंत्री को "रावलपिंडी शूरा" में अपने आकाओं से सुरक्षा का आश्वासन नहीं मिल जाता. यह सब आसान होने वाला नहीं है, उस विशेष शूरा को खतरनाक रूप से छोटे स्वभाव के लिए जाना जाता है. ऐसे में पाकिस्तान अपना रास्ता नहीं बना पाएगा.

इस स्थिति में दूसरों के लिए वास्तविक सहायता और मार्गदर्शन देने की गुंजाइश है और यह कुछ अच्छी कार्रवाई करने का समय हो सकता है.

(डॉ. तारा कर्था इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ (आईपीसीएस) की डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं. वह @kartha_tara पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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