मेरा परिवार 1958 से दिल्ली में रह रहा है. मेरी हिंदी और पंजाबी, मातृभाषा तमिल से अच्छी है. मुझे तमिल पढ़ना और लिखना नहीं आता. अगर मैं अपना नाम किसी उत्तर भारतीय की तरह रख लूं, तो किसी के लिए यह बताना मुश्किल होगा कि मेरा परिवार दक्षिण भारतीय है. इसके बावजूद मुझे मद्रासी की तरह देखा जाता है.
कुछ साल पहले जब दिल्ली में लोग मुझसे दक्षिण भारत की राजनीति के बारे में सवाल करते थे, तब मैं कहता था कि इसके बारे में मुझे उतना ही पता है, जितना आपको. हालांकि, बाद में मैंने यह जवाब देना बंद कर दिया. मुझे लगा कि इससे आसान तो दक्षिण भारत की राजनीति को समझना है.
इधर, दक्षिण के बारे में एक चीज मुझे बिल्कुल स्पष्ट दिख रही है. उत्तर भारत में रहने वालों, खासतौर पर हिंदी भाषी राज्यों के लोगों को दक्षिण भारतीय राज्यों में उनके प्रति बढ़ती नाराजगी पर ध्यान देना चाहिए. पिछले दो हफ्ते में कर्नाटक के मुख्यमंत्री (वहां कांग्रेस की सरकार है), तमिलनाडु में डीएमके प्रमुख और आंध्र में एक एमएलए ने कहा है कि दक्षिण भारतीय राज्यों को उत्तर भारत के साथ अपने रिश्तों की समीक्षा करनी चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं है कि ये बयान राजनीतिक वजहों से दिए गए हैं, लेकिन एक बात याद रखिए कि हमारे लोकतंत्र में अच्छे आइडिया से कहीं अधिक तेजी से बुरे आइडिया को स्वीकार किया जाता है. इसलिए इन बयानों को गंभीरता से लेना चाहिए. हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि उनकी नाराजगी जायज है या सिर्फ राजनीतिक वजहों से इस तरह की सोच को हवा दी जा रही है? सच कहूं, तो इसमें दोनों ही बातें शामिल हैं.
मैं यहां आपको आंकड़ों से बोर नहीं करना चाहता. आप चाहें तो आर्थिक सर्वे में ये आंकड़े देख सकते हैं. यह बात सही है कि पश्चिमी और दक्षिण भारतीय राज्यों की कमाई के बिना हिंदी भाषी राज्यों की हालत और भी खराब हो जाएगी. लेकिन यह भी सच है कि जहां दक्षिण भारत में प्रॉडक्टिव और प्रोड्यूसिंग स्टेट हैं, वहीं उत्तर भारत ऐसे प्रॉडक्ट्स का बड़ा मार्केट है.
जीएसटी को लेकर जो खींचतान हुई थी, उसकी वजह यही है. इसका मतलब यह भी है कि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है.
राजनीतिक मसला
इसका राजनीतिक पहलू अलग और कहीं ज्यादा गंभीर है. इसके तार राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों और राजनीतिक ताकत के बंटवारे से जुड़े हुए हैं. हिंदी भाषी उत्तर भारतीय राज्यों की आबादी अधिक है, इसलिए वहां लोकसभा की दोगुनी सीटें हैं. पांच दक्षिण भारतीय राज्यों के पास 125 से कम लोकसभा सीटें हैं. पश्चिमी और पूर्वी भारत के राज्यों की हालत तो इस मामले में और भी खराब है. इसलिए उत्तर भारत की राजनीतिक ताकत अधिक है.
अब तक इस पर बड़ा विवाद नहीं हुआ था. हालांकि, इधर वित्तीय संसाधनों की लड़ाई तेज होने से दूसरे राज्यों के प्रति नाराजगी बढ़ रही है और उसे राजनीतिक आवाज भी मिल रही है. इसलिए हिंदी भाषी राज्यों के नेताओं को बदलना होगा. वे ऐसा नहीं दिखा सकते कि देश के लिए सिर्फ वही मायने रखते हैं.
बुनियादी समस्या
भारत की स्थापना बिल्कुल सही सिद्धांत पर हुई है. इसे महासंघ नहीं, बल्कि राज्यों का संघ माना गया है. इसलिए केंद्र का मजबूत होना जरूरी है. हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि अभी जिस तरह से आर्थिक संसाधनों का बंटवारा हो रहा है, वह जारी रखा जा सकता है. दक्षिण भारतीय राज्यों के बीच ऐसी सोच की वजह संविधान की एक बुनियादी दिक्कत है. इससे राज्यों की आर्थिक और राजनीतिक ताकत में कोई सामंजस्य नहीं है.
कई चीजों को लेकर राज्यों को खुद फैसला करने का अधिकार मिला हुआ है, लेकिन वित्तीय मामलों में वे काफी हद तक केंद्र पर आश्रित हैं. इस वजह से उत्तर भारतीय राज्यों को अधिक आबादी और ज्यादा राजनीतिक ताकत का फायदा वित्तीय मामलों में मिलता रहा है.
21वीं सदी में गवर्नेंस के तरीके पर दबाव बढ़ रहा है. इसलिए संविधान की इस गलती को दूर करने पर बहस की जानी चाहिए. गाडगिल फॉर्मूले की वजह से बड़े और आर्थिक तौर पर पिछड़े राज्यों को दंडित नहीं किया जाता, उलटे इनाम दिया जाता है. नीचे दिए गए टेबल के आइटम नंबर 3 से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री, तमिलनाडु में डीएमके चीफ और आंध्र के एमएलए यह कहना चाहते हैं कि गाडगिल फॉर्मूले के आधार पर वित्तीय संसाधनों का बंटवारा आगे नहीं चल सकता.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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