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केवल महिलाओं का नहीं, विवाहित जोड़ों का त्‍योहार है तीज

प्रकृति के रंगों में पूरी तरह डूबकर रिश्तों को सेलिब्रेट करने का त्योहार है तीज

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सावन मतलब हरियाली. वातावरण, खान-पान, पहनावा, हर ओर हरीतिमा. हरा रंग वैसे भी प्रकृति का रंग है. प्रकृति का सबसे मनमोहक रंग, जिसके फलक पर बाकी सारे रंग यूं ही खिल-खिल उठते हैं. मौसम में ताजगी हैं और ताजा धुले पेड़-पौधे लोगों को अपनी ओर बुलाती जान पड़ती हैं. जाहिर है, उन पर झूले डलेंगे और उन झूलों पर हिंडोले देने वाली भले ही सहेलियां हों, उनके गीतों, उनकी छेड़छाड़ और उनकी चुहल में जिक्र पति का ही होगा.

ये मौसम दरअसल प्रकृति के रंगों में पूरी तरह डूबकर रिश्तों को सेलिब्रेट करने का है. और जब प्रकृति का जिक्र हो, तो पूजा-आराधना प्रकृति पुरुष शिव की होनी भी स्वाभाविक है.

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शिव जैसे पति और गौरी जैसे सौभाग्य की कामना

हरियाली तीज, अगले तीन महीने तक चलने वाले त्‍योहारों की पहली दस्तक है. ये अवसर है शिव जैसे पति की कामना का या फिर पार्वती से उनके समान अहिबात की याचना का. यूं भी अवसर चाहे कोई हो, स्त्रियों को हमेशा शिव जैसे पति की ही कामना होती है और सौभाग्य मांगने उन्हें जाना गौरी के ही पास होता है. कथाओं में शिव और पार्वती जैसे सफल दाम्पत्य का उदाहरण कोई दूसरा नहीं.

शिव-पार्वती के दाम्पत्य में सुख के साथ सहजता और समभाव भी है. सो इस रोज हरे रंग के वस्त्र और चूड़ियां पहन, हथेलियों पर मेंहदी रचा लड़कियां शिव की अराधना करती हैं, उनके समान पति के लिए और गौरी सा अखंड सौभाग्य पाने के लिए. लोक मान्यताओं के मुताबिक, पति के रूप में शिव को पाने के लिए पार्वती बरसों तक जंगल में घोर तपस्या करती रही थीं. इसी दिन यानी श्रावण मास की तृतीया को शिव ने उन्हें दर्शन देकर पत्नी के रूप में अपनाने का वचन दिया था.

इस तरह ये पार्वती के अवतार में शिव और शक्ति की जोड़ी की दूसरी पारी की शुरुआत का अवसर है. फिर भी ज्‍यादातर अनुष्ठानों के तर्ज पर तीज से जुड़े रीति-रिवाज के पालन की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के खाते में जुड़ती चली गई है. बाजार ने तो इसे पूरी तरह ही औरतों के साज और श्रृंगार का अवसर बना डाला है.   

शिव के पौरुष में अहंकार नहीं, क्षमा है

शिव को पाने के लिए की गई पार्वती की तपस्या कठिन तो थी, लेकिन उससे कहीं ज्‍यादा लंबी और कठिन थी सती वियोग में शिव की संसार से विरक्ति और उनके पुर्नजन्म की प्रतीक्षा में युगों तक किया गया उनका तप. शिव और पार्वती के दाम्पत्य से जुड़ी हर कहानी उन दोनों की बराबर भागीदारी की गवाही देती है. इसलिए सम्पन्नता न होते हुए भी उनके गृहस्थ आश्रम में सुख की धारा बिना बाधा बहती है.

शिव के पौरुष में अहंकार की ज्वाला नहीं, क्षमा की शीतलता है. किसी पर विजय पाने के लिए शिव ने कभी अपने पौरुष को हथियार नहीं बनाया, कभी किसी के स्त्रीत्व का फायदा उठाकर उसका शोषण नहीं किया. शिव ने छल से कोई जीत हासिल नहीं की. शिव का जो भी निर्णय है, प्रत्यक्ष है.

इसी तरह पार्वती में लक्ष्मी सी चंचलता नहीं, असीम साहस है. उनमें क्रोध तो है, लेकिन पति से छिपकर कुछ करने की इच्छा नहीं. तभी उनके दाम्पत्य में दुराव और द्वेष का कोई स्थान नहीं. समय चाहे कितना भी बदला हो, अच्छी गृहस्थी का मंत्र अभी भी वही का वही है.

नवविवाहित जोड़ों के लिए है खास

बिहार के कुछ हिस्सों में ये त्‍योहार मधुश्रावणी के नाम से 15 दिनों तक चलता है, जिसे नवविवाहित जोड़े मनाते हैं. शादी के पहले साल में नवविवाहित जोड़ों के लिए ये दो हफ्ते मधुमास की तरह होते हैं. ज्‍यादातर लड़कियां इसे मायके में मनाती हैं. ससुराल के ताजा बंधनों से कुछ दिनों की आजादी के दिन सुबह सखियों के साथ फूल चुनने और उन्हें शिव-पार्वती पर अर्पित कर पूजा करने में बिताई जाती है. नए दामाद के लिए भी ये मौका अपने ससुराल की खातिरदारी और हंसी मजाक के बीच कुछ वक्त बिताने का होता है.

मधुश्रावणी पूजा के दिनों में हर रोज शिव और पार्वती से जुड़ी कोई न कोई कथा सुनाई जाती है, जिसका मकसद पति-पत्नी को गृहस्थ जीवन के अलग-अलग रूपों, जैसे नोक-झोंक, रूठने-मनाने और रिश्तेदारियां निभाने के लिए तैयार करना होता है. ये लोक कथाएं अपने आप में गूढ़ अर्थ समेटे हुए हैं.

शिव जैसे नि:संकोच, दिगंबर, निर्बाध प्रेम का उदाहरण कहीं और नहीं. पार्वती के लिए उनका प्रेम सामाजिक मान्यताओं के बारे में जानने और सोचने की परवाह नहीं करता. तभी अपने विवाह में भी वे पार्वती के हाथ से खाना खाने का हठ कर बैठते हैं. वहीं शिव का साथ पार्वती को नियमों के जटिल बंधन में नहीं बांधता, बल्कि उन्हें सहजता से अपने फैसले खुद लेने को स्वतंत्र कर देता है.

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आराधना की भागीदारी बराबर हो

जैसे शिव अपनी पत्नी के संरक्षक नहीं, पूरक हैं. वैसे ही पार्वती अपने पति के पीछे-पीछे चलने वाली नहीं, अर्धांगिनी हैं. शिव और शक्ति अपने आप में पूर्ण और सक्षम हैं, फिर भी एक-दूसरे के बिना अधूरे. उन दोनों का साथ बराबरी का है, सहज और एक-दूसरे के प्रति सम्मान से पूर्ण. ऐसे में शिव और पार्वती की आराधना का भार गृहस्थी के एक ही हिस्से पर आ जाना आधुनिकता नहीं, संकीर्णता को दर्शाता है.

पिछले दिनों कांवड़ यात्रा में औरतों के शामिल नहीं होने पर भी इसी तरह के सवाल उठाए गए. हालांकि पूर्वी राज्यों में स्त्री कांवड़ियों की तादाद भी पुरुषों के बराबर ही देखी जाती है. झारखंड के देवघर स्थित राणवेश्वर महादेव मंदिर में शिवलिंग पर जल चढ़ाने में औरतें बराबरी की हिस्सेदार होती हैं. अक्सर सुल्तानगंज में गंगाजल भर देवघर तक की 100 किलोमीटर की यात्रा पति-पत्नी कांवड़ उठाए साथ-साथ तय करते हैं.

समय चाहे कितना भी बदल जाए, पति या प्रेमी के तौर पर शिव की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. शिव सच्चे अर्थों में आधुनिक, मेट्रोसेक्सुअल पुरुषत्व के प्रतीक हैं, इसलिए हर युग में स्त्रियों के लिए काम्य रहे हैं. शिव-सा पति पाने की स्त्रियों की आराधना सफल हो, इसके जरूरी है कि हर कदम पर उनकी जिम्मेदारियां बांटने के लिए उनके पास पति की सहमति और साथ हो.

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