बस्तर के पत्रकारों के सामने चैलेंज
- बंदूक की नोक पर जीत की खबरें छपवाना चाहते हैं नक्सली और सरकार
- पत्रकारों के फोन टेप करके उनकी निगरानी करता है सरकारी तंत्र
- पत्रकारों को निशाना बनाता है तथाकथित सामाजिक संगठन
- जंगल में मलेरिया, हीट स्ट्रोक और अन्य बीमारियों से जूझते हैं पत्रकार
एक पत्रकार का जीवन चुनौतियों से भरा होता है. खासकर जब उसके पास काम रिपोर्टिंग का हो. वह तरह-तरह के लोगों से मिलता है. नेताओं से और अपराधियों से भी. बहुत बार नेता बन गए अपराधी से भी.
वह पुलिस से भी मिलता है और उन लोगों से भी, जिन्हें कानून अपराधी मानती है. वह पुलिस के गैर-कानूनी हथकंडों का भी गवाह बनता है. पत्रकार बौद्धिक लोगों से भी मिलता है और घोर बुद्धि विरोधी लोगों से.
लेकिन यह उसकी पेशेगत चुनौती होती है कि वह इनमें से कुछ भी न बने. उन सबसे मिले, उनके बारे में लिखे, लेकिन पत्रकार ही बचा रहे. और, अधिकांश मामलों में वह बचा भी रहता है. वह बचा इसलिए रहता है, क्योंकि वह लोकतंत्र का हिस्सा है. लोकतंत्र का अघोषित चौथा स्तंभ. बहुत बार वह ऐसे लोगों से मिलता है और उनके बारे में लिखता है, जो इस लोकतंत्र में भरोसा नहीं रखते. कानून को नहीं मानते. या उन्हें यह विश्वास होता है कि उनके पास इस कानून से बचने के रास्ते हैं. चाहे वे रास्ते वैध हों या अवैध. समाज और सरकारें पत्रकार के लिखे से, कहे से और दिखाए से उन लोगों को भी समझती है.
कौन बताएगा पत्रकारों का दर्द?
पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह जिसके बारे में लिखे उसके पक्ष में खड़ा न हो. वह सिर्फ सूचना दे. जितना कुछ भी सच उसके सामने है उसे सामने लाए. इस सच को उजागर करने के अपने खतरे होते हैं. लेकिन यह खतरा तब और बढ़ जाता है, जब लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से कोई एक भी इस सच का हिस्सा बन जाता है. तब लोकतंत्र की जगह सिकुड़ने लगती है.
सोच इस तरह बदलने लगती है कि लोकतंत्र के अंग किसी दूसरे अंग को शक की निगाह से देखने लगते हैं. आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाता है और आखिरकार लोकतंत्र ही कमजोर होता जाता है. छत्तीसगढ़ का बस्तर इसका सटीक उदाहरण है.
जंगल के जर्रे-जर्रे में बस चुका है नक्सलवाद
‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ की रिपोर्ट को इसके सबूत के रूप में देखा जा सकता है. छत्तीसगढ़ का बड़ा हिस्सा नक्सल प्रभावित है. बस्तर तो कई दशकों से नक्सली गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है.
बरसों-बरस सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार, आदिवासियों के शोषण में उनकी भागीदारी और ठेकेदार-व्यापारियों से उनकी मिली भगत ने नक्सलवाद या माओवाद के लिए ऐसी उर्वर जमीन तैयार की है कि अब वह नक्सलवाद बस्तर के जंगलों का हिस्सा बन गया है.
आलोचना करने वाले लोग “देशद्रोही”
सरकारों के लिए नक्सलियों से निपटना एक ऐसी चुनौती बन गया है, जिसमें वह जीत का दावा करती हैं, लेकिन हर बार हारती हुई दिखती हैं. लेकिन इस बार राज्य की रमन सिंह सरकार हारती हुई नहीं दिखना चाहती, इसलिए उसके अधिकारी नहीं चाहते कि ऐसी खबरें प्रकाशित-प्रसारित हों, जिसमें उनकी हार दिखती हो.
वह सिर्फ जीत की खबरें दिखाना चाहते हैं, इसलिए वे चाहते हैं कि वही प्रकाशित-प्रसारित किया जाए, जो वह बता रहे हैं. इसके अलावा कुछ भी उन्हें अपने खिलाफ जाता दिखता है.
चूंकि वे तंत्र का हिस्सा हैं, इसलिए वे बार-बार यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि जो उनके खिलाफ है, वह दरअसल देश के खिलाफ है. देश के लिए खतरा है.
डर के साए में जी रहे हैं पत्रकार
अब तक चार पत्रकार जेल के सीखचों के भीतर डाले जा चुके हैं. कोई पत्रकार नहीं जानता कि उसकी बारी कब आ जाए. चाहे यह सच न हो, लेकिन हर रिपोर्टर के मन में भय है कि वह सरकार की निगरानी में है.
टेप किए जाते हैं पत्रकारों के फोन
यह भय यूं ही नहीं आया है. खुद जगदलपुर के जिलाधीश कहते हैं कि जेल में बंद सोमारू नाग और संतोष यादव के फोन निगरानी में थे और वही बड़े सबूत हैं, जिनके खिलाफ सरकार सबूत नहीं जुटा पा रही है.
उनके लिए एक संगठन खड़ा कर लिया गया है. सामाजिक एकता मंच. न केवल बस्तर में, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में यह जानकारी आम है कि यह मंच बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी की शह पर बना और चल रहा है.
स्क्रोल डॉट कॉम के लिए लिख रहीं मालिनी सुब्रह्मण्यम पर पुलिस ने कार्रवाई नहीं की. उनके खिलाफ कहीं कोई शिकायत नहीं की, बल्कि इस सामाजिक एकता मंच ने ‘कार्रवाई’ की. रायपुर में बैठे बड़े पुलिस अधिकारियों में से एक मानते भी हैं कि इस मंच से जुड़े लोगों में से कई की पृष्ठभूमि आपराधिक है. लेकिन फिलहाल पुलिस को पत्रकारों के खिलाफ दर्ज छोटे-मोटे, सच्चे-झूठे मामले याद आ रहे हैं.
बस्तर में तैनात एक बड़े अधिकारी माथे पर शिकन लाए बगैर कहते हैं, “नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई निर्णायक मोड़ पर है. हमने तय कर लिया है, ऊपर के लोगों को मार दो और नीचे के लोगों से सरेेंडर करवा लो.”
अब अगर यह पहले से तय है कि किसे मारना है तो यह भी तय है कि मुठभेड़ का प्रहसन रचा जाएगा. यानी फर्जी एनकाउंटर. लेकिन चूंकि यह देश का मामला है, इसलिए पत्रकारों से अपेक्षा है कि वह यह न देखे कि एनकाउंटर असली था या नकली. वह यह देखे कि कितने नक्सली कमांडर मारे गए. पत्रकार से यह भी अपेक्षा है कि वह यह नहीं देखे कि जिन्होंने कथित तौर पर आत्मसमर्पण किया, वे असली नक्सली हैं या पुलिस प्रायोजित.
कांग्रेस अपनी रिपोर्ट में लिख रही है कि सुरक्षा बल आदिवासी महिलाओं की यौन प्रताड़ना कर रहे हैं. लेकिन पत्रकारों से अपेक्षा है कि वे आदिवासियों से बात न करें. यह न तो ‘देशभक्ति’ है
और न ‘राष्ट्रवादी’.
नक्सलियों से भी डरकर जी रहे हैं पत्रकार
यह पत्रकारों की अकेली चुनौती नहीं है. चुनौती नक्सलियों की धमकियों से निपटने की भी है. दो पत्रकारों को वे भी मार चुके हैं. एक को तो मारने के बाद बाकायदा माफी भी मांग ली.
बस्तर में काम कर रहे पत्रकारों पर उनका भी दबाव कम नहीं है. वे भी चाहते हैं कि वही लिखा जाए, जो वे कह रहे हैं. वे न भारतीय संविधान को मानते हैं और न कानून को. हिंसा उनके लिए क्रांति का रास्ता है. अत्याचार के किस्से उनके भी हैं. लेकिन पत्रकार से अपेक्षा है कि वे जनक्रांति के रास्ते में न आएं.
बुरे आर्थिक हालातों से भी जूझ रहे हैं पत्रकार
पत्रकारों के सामने तीसरी चुनौती है पत्रकारिता की दुर्दशा की. सरकार जिला स्तर से नीचे काम करने वाले पत्रकारों को अधिमान्यता नहीं देती, इसलिए सरकार की नजर में तहसील-कस्बों में काम करने वाले पत्रकार दरअसल पत्रकार नहीं हैं. अखबार और टेलीविजन चैनलों का भी हाल बुरा है. जिला स्तर पर वे किस पत्रकार को कितना पैसा दे रहे हैं, इसका कोई पैमाना ही नहीं है. दे भी रहे हैं या नहीं, यह भी ठीक नहीं.
जिले से नीचे तो प्रेस का कार्ड दे देना ही अहसान है. ऐसे में बड़ी संख्या में पत्रकार को अपनी आजीविका के लिए रास्ते तलाश करने होते हैं. यह रास्ता कभी सरकारी ठेकेदारी होती है, कभी कोई अन्य व्यापार या फिर भ्रष्टाचार की खबरें न छापने के लिए वसूली भी. लेकिन यह बात ऐसे समय में हो रही है, जब हर प्रकाशन संस्थान के अपने व्यावसायिक हित हैं. चाहे वह कोयले के खदान हों, बिजली कंपनी या फिर रियल स्टेट का धंधा. ऐसे में कोई संस्थान अपने पत्रकार को रोकना तो दूर, टोक भी नहीं सकता.
दिल्ली में बैठकर बस्तर की पत्रकारिता पर चिंता करना वाजिब है. आसान भी है. पर बस्तर का पत्रकार किस हाल में है, यह वहीं जाकर समझा जा सकता है.
(विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ही एडिटर्स गिल्ड के सदस्य भी हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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