आरुषि-हेमराज मर्डर केस अब देश-दुनिया की बड़ी मर्डर मिस्ट्री में शामिल हो चुका है. अब आरुषि के मम्मी-पापा को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बरी कर दिया है, तो फिर से वही सवाल बरकरार है कि कातिल कौन है? ये सवाल हर किसी के मन में है. सवाल ये भी है कि क्या वाकई केस इतना पेचीदा था कि पहले यूपी पुलिस, फिर सीबीआई की दो टीमें भी कातिल तक नहीं पहुंच पाई. देश की बड़ी से बड़ी गुत्थी सुलझाने वाली सीबीआई भी इसमें उलझ गई. ऐसी स्थिति आ गई कि हाई कोर्ट को भी सीबीआई जांच पर सवाल उठाना पड़ गया.
यहां एक बात साफ करना चाहूंगा कि ये केस आम मर्डर या डबल मर्डर की तरह ही था. ये सुनकर हैरान हो सकते हैं, पर यही सच है. मैं इस केस को पहले दिन से कवर कर रहा हूं. इसलिए ऐसा कह रहा हूं. बस, गड़बड़ी हुई है तो जांच करने के तरीके में. यूपी पुलिस के सिस्टम में. प्रेशर में कुछ भी कर गुजरने की.
अगर यूपी पुलिस के काम करने में थोड़ा बदलाव किया जाए तो आने वाले दिनों में आरुषि-हेमराज जैसे मर्डर केस दुनिया की मिस्ट्री नहीं बनेगी. एक मां-बाप अपनी ही बेटी के कत्ल में जेल की सलाखों में नहीं जाएंगे.
यूपी पुलिस के सिस्टम में खामी
मेरा मानना है कि यूपी पुलिस के सिस्टम में अब भी सबसे बड़ी खामी है, लॉ एंड ऑर्डर और इन्वेस्टिगेशन दोनों की जिम्मेदारी एक ही पुलिसकर्मी पर थोप देने की. दूसरा, मीडिया या शासन स्तर पर आए प्रेशर में काम करने की. अगर इन दोनों सिस्टम को बदल दिया जाए तो कोई भी केस इस कदर नहीं बिगड़ेगा कि वो रहस्य में तब्दील हो जाए.
अब चर्चा करते हैं कि 16 मई 2008 के दिन का. इसी दिन सुबह आरुषि के मर्डर का पता चला था. इसी दिन सुबह ही नोएडा सेक्टर-11 मेट्रो अस्पताल में भर्ती कम्युनिस्ट नेता हरकिशन सिंह सुरजीत को देखने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी आने वाली थीं. मतलब, नोएडा पुलिस के लिए वीआईपी ड्यूटी थी. एसएसपी से लेकर सभी पुलिस अधिकारी और दो-तीन थानों की पुलिस इसी वीआईपी ड्यूटी में व्यस्त थी.
लिहाजा, जब नोएडा सेक्टर-25 के जलवायु विहार में डॉक्टर दंपति की बेटी की कत्ल की सूचना मिली तो सिर्फ चौकी इंचार्ज और एक-दो सिपाही मौके पर पहुंचे.
मीडिया में मामला थोड़ा तूल पकड़ा तो एसओ और पहली पोस्टिंग पर आए नए-नवेले आईपीएस अखिलेश सिंह मौके पर पहुंचे. दूसरे किसी बड़े अधिकारी को मौके पर आने और गहनता से पड़ताल करने का तो मौका ही नहीं मिला था.
ऐसे में न आरुषि के घर में तलाशी ली गई और न ही आसपास. बस, इतना हुआ कि घटना के बाद से नौकर हेमराज लापता है. लिहाजा, वही कातिल है. उसकी तलाश में नोएडा, दिल्ली से लेकर पुलिस की एक टीम नेपाल तक भेज दी गई. मगर, बेसिक पुलिसिंग ही नहीं की गई.
गंभीरता से नहीं हुई केस की पड़ताल
अब बात करते हैं कि कैसे ये साधारण क्राइम का केस ही था. दरअसल, अगर यूपी पुलिस में लॉ एंड ऑर्डर और इन्वेस्टिगेशन दोनों अलग-अलग पुलिस टीम की जिम्मेदारी होती तो 16 मई की सुबह पहुंची टीम का एक मात्र फोकस क्राइम पर होता. उसे ये नहीं सोचना पड़ता कि वीआईपी ड्यूटी में क्या करना है. किसी भी क्राइम सीन पर वहां एक-एक पहलू पर गंभीरता से देखना और पड़ताल करना जरूरी होता है.
अगर किसी पर शक होता है तो उसके कमरे की तलाशी जरूरी है. ऐसा करने से उसी दिन हेमराज के कमरे में शराब की एक बोतल, बीयर, कोल्डड्रिंक और तीन गिलास मिल जाती. ऐसे में ये समझना आसान होता कि उसके कमरे में कुछ लोग आए थे.
दूसरी बात, किचन में पड़ताल होती तो वहां हेमराज का रखा खाना भी मिल जाता क्योंकि 15 मई 2008 यानी घटना वाली रात उसने खाना नहीं खाया था. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से भी बाद में खाना नहीं खाने की पुष्टि हो गई थी. ऐसे में ये अंदाजा लग जाता कि उसने खाना नहीं खाया, तो क्या वजह हो सकती थी.
अगर उसे साजिश के तहत ऐसा करना होता तो कम से कम अपने कमरे में शराब की बोतल, अपना खाना और गिलासें नहीं छोड़ता. दूसरी बात, अगर डॉग स्क्वॉयड की मदद ली जाती तो वो आसानी से तलवार के घर की छत पर सूंघते हुए पहुंच जाता क्योंकि छत की सीढ़ियों पर तो नहीं लेकिन रेलिंग पर खून जरूर लगा था. इस तरह जिस हेमराज का शव एक दिन बाद मिलता वो उसी दिन मिल जाता.
ऐसे में मौके से सभी फिंगरप्रिंट तुरंत लिए जाते, सभी फॉरेंसिक सैंपल लेकर जांच होती तो क्राइम का मोटिव और कातिल के बारे में पता लगाना आसान हो जाता. जैसा कि हाई कोर्ट के फैसले में पेज-226-227 पर जिक्र है कि हेमराज का खून एक शख्स के तकिये पर मिला था जिसे सीबीआई ने टाइपिंग में गड़बड़ी होने का दावा किया था.
हालांकि, हाई कोर्ट ने ये मान लिया कि वो टाइपिंग की गड़बड़ी नहीं है. इसका मतलब हेमराज का खून उस शख्स के तकिये तक पहुंचा था. अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि उस रात जिस मच्छर ने हेमराज को काटा वही कुछ दूरी पर फ्लैट में सो रहे उस शख्स के तकिये पर जाकर मर गया हो और उसका खून वहां लग गया. ऐसे में वाकई वो संदेह के घेरे में था तो 16 मई 2008 की सुबह ही एक्सपर्ट डॉग हेमराज के खून को सूंघते हुए उस तक भी पहुंच गए होते और 12 घंटे के भीतर ही केस का खुलासा हो चुका होता.
मगर, ऐसा नहीं हुआ. 9 साल बाद भी कातिल का पता नहीं. कत्ल की वजह का भी पता नहीं. अब शायद ये रहस्य आगे भी बरकरार ही रहे. मगर, अगर यूपी पुलिस के सिस्टम में ऐसा बदलाव कर दिया जाए तो आने वाले समय में ऐसे क्राइम के केस को आसानी से हल किया जा सकेगा.
पुलिस की कार्य-प्रणाली में हो फेरबदल
यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह कई अरसे से पुलिस की कार्य-प्रणाली में फेरबदल करने की बात कर रहे हैं. वो लॉ एंड ऑर्डर और इन्वेस्टिगेशन टीम को अलग करने पर अपनी रिपोर्ट भी दे चुके हैं. मगर, अब तक ऐसा नहीं किया गया है. अगर आने वाले दिनों में दोनों टीमें अलग-अल्ग बनाकर उन्हें फॉरेंसिक के साथ डॉग स्क्वॉड की सुविधा दे दी जाए तो ऐसी मर्डर मिस्ट्री बनने की नौबत ही नहीं आएगी.
(सुनील मौर्य लेखक हैं. उन्होंने आरुषि मर्डर केस पर 'क़ातिल ज़िंदा है, एक थी आरुषि' नाम की किताब लिखी है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. )
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