ADVERTISEMENTREMOVE AD

कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास में मदद के लिए आगे आएं कॉरपोरेट्स

एकता की कमी और सरकारी वादे पर जरूरत से ज्यादा भरोसे ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को बढ़ा दिया है, लिखते हैं अमर भूषण

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

हर साल घाटी में वापसी के लिए 19 जनवरी को विरोध सभाएं करती, रैलियां निकालती कश्मीरी पंडितों की भीड़ एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं रह गई है. इससे भी ज्यादा हास्यास्पद है मीडिया का इस घटना को कवर करना, राज्य और सरकारों से प्रतिक्रियाएं लेना.

समस्या यह है कि 26 साल बाद भी ये कश्मीरी पंडित यह कड़वी हकीकत नहीं समझ पाए कि इनकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि इनकी समस्या का चुनावों पर कोई असर हो सके.

और लोकतंत्र में तो संख्या का ही सिक्का चलता है. उनकी त्रासदी पर किसी को भी शक नहीं है, पर अमेरिका के यहूदियों और भारतीय पारसियों की तरह इनके पास इतना पैसा भी नहीं है कि सरकार इनकी नीतिगत मांगों पर ध्यान दे.

एकता की कमी और सरकारी वादे पर जरूरत से ज्यादा भरोसे ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को बढ़ा दिया है, लिखते हैं अमर भूषण
11 जून 2008 को एक कश्मीरी पंडित वृद्ध महिला सालाना त्योहार के दौरान श्रीनगर से 11 किमी दूर खीरभवानी मंदिर पर पूजा करते हुए. (फोटो: रॉयटर्स)

कश्मीरी पंडितों को निकाले जाने का दर्द अब कोई नहीं सुनता

इस दुर्भाग्य में और बढ़ोतरी करने वाली बात यह है कि इनके पास कोई स्टीवन स्पीलबर्ग भी नहीं है, जो इनकी परेशानियों को सिनेमा के पर्दे पर उतार दे और लोगों तक इनका दर्द पहुंचाए.

हमारे फिल्मकार कश्मीर पर फिल्में तो बनाते हैं, पर वे कश्मीरी मुसलमानों के बारे में होती हैं, क्योंकि हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत में वही बिकता है.

कोई आश्चर्य की बात नहीं कि संग्रामपुरा (1997) वंधामा, प्राणकोट (1998), रघुनाथ मंदिर (2002), नदीमार्ग (2003) में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार या फिर रमजान की सबसे पवित्र रात को उनके 23 बच्चों व महिलाओं को कत्ल कर दिया जाना किसी गिरीश कर्नार्ड, किसी नसीरुद्दीन शाह या अनुपम खेर को कोई नाटक लिखने के लिए उत्साहित नहीं करता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बंटे हुए हैं पंडित

19 जनवरी, 1990 की बात थी, जब JKLF और हिजबुल मुजाहिदीन ने पंडितों को दो विकल्प दिए थे- या तो इस्लाम कुबूल कर लें या फिर कश्मीर छोड़कर चले जाएं. यह चेतावनी कुछ दिनों में एक बड़ा खतरा बनकर सामने आई, जब वे उनके घर जलाने लगे और उनकी हत्याएं करने लगे.

आज वे 1990 की अपनी जनसंख्या के एक प्रतिशत से भी कम रह गए हैं. कश्मीर छोड़ देने वाले 2000 पंडितों को छोड़कर 40,668 को जम्मू के 9 कैंपों में बसाया गया और बचे हुए 19,338 को दिल्ली के 15 कैंपों में बसा दिया गया. अपने घरों से दूर ये लोग गरीबी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर हैं.

विडंबना यह है कि कश्मीरी पंडित आपस में बंटे हुए हैं और अलग-अलग सुरों में बोलते हैं. कुछ कश्मीरी पंडित इस घटना को जेनोसाइड और एथनिक क्लि‍नजिंग की तरह सामने रखते हैं, और कुछ इससे असहमत हैं.

मारे गए लोगों और नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या पर भी सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के आंकड़े अलग-अलग हैं.

एकता की कमी और सरकारी वादे पर जरूरत से ज्यादा भरोसे ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को बढ़ा दिया है, लिखते हैं अमर भूषण
3 मार्च, 2015 को जयपुर में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान कश्मीरी पंडित (फोटो: IANS)
स्नैपशॉट

कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास

  • समस्या यह है कि 26 साल बाद भी ये कश्मीरी पंडित यह कड़वी हकीकत नहीं समझ पाए कि इनकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि इनकी समस्या का चुनावों पर कोई असर हो सके.
  • इन पंडितों में एकता की कमी उनकी आवाज को और भी कमजोर कर देती है.
  • वे उन कमजोर आवाजों के आश्वासन पर घाटी में लौटने की हिम्मत नहीं दिखा सकेंगे, जो बहुसंख्यकों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं.
  • अब वक्त आ चुका है कि कश्मीरी पंडित यह मान लें कि राजनीति पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला. उन्हें सरकारी आश्वासनों का इंतजार नहीं करना चाहिए.
  • कॉरपोरेट्स इस मुद्दे पर आगे आकर कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का कार्यक्रम शुरू कर उन्हें नए सिरे से जीने में मदद कर सकते हैं.
एकता की कमी और सरकारी वादे पर जरूरत से ज्यादा भरोसे ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को बढ़ा दिया है, लिखते हैं अमर भूषण
दिल्ली में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए टाउनशिप बसाने के सरकार के प्रस्ताव का विरोध करने वाले अलगाववादियों का पुतला जलाते कश्मीरी पंडित. (फोटो: IANS)

कब खत्म होगा इंतजार

कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के लिए तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन को जिम्मेदार ठहराते हैं. उनका मानना है कि विस्थापन इसलिए कराया गया, ताकि मुसलमानों पर धार्मिक उत्पीड़न का आरोप लगाया जा सके.

पर सच्चाई तो यही है कि कश्मीरी पंडितों की पूरी की पूरी पीढ़ी को अपने घर और जमीन छोड़कर अपने ही देश और अपने ही राज्य में शरणार्थियों की तरह रहना पड़ रहा है. 26 साल बाद भी वे घाटी में लौटने का इंतजार कर रहे हैं.

सवाल यह है कि उनका इंतजार कब खत्म होगा? जहां बात-बात पर ISIS और पाकिस्तान के झंडे फहराने लगते हैं, इस्लामिक आतंकवादी जहां कश्मीर को पाकिस्तान से मिलाने के लिए लड़ रहे हैं और जहां हजारों युवा कश्मीर को आजाद देखना चाहते हैं, वहां कुछ कमजोर आवाजों के आश्वासन पर राष्ट्रवादी कश्मीरी पंडितों का घाटी में लौटने का साहस दिखा पाना असंभव ही है.

जिन शर्तों पर वे लौटना चाहते हैं, उन्हें पूरा किया जाना भी लगभग असंभव है. कोई भी सियासी पार्टी कश्मीरी पंडितों को दक्षिणी कश्मीर में जगह नहीं देने वाली. न ही उनके लिए कोई सरकार टाउनशिप बसाने वाली और न ही उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाली या विधानसभा में उनके लिए सीटें आरक्षित करने वाली है, क्योंकि ऐसा करने से उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान जो होगा.

एकता की कमी और सरकारी वादे पर जरूरत से ज्यादा भरोसे ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को बढ़ा दिया है, लिखते हैं अमर भूषण
11 अप्रैल, 2005 को कश्मीरी पंडितों के लिए टाउनशिप बसाने के सरकार के प्रस्ताव के बाद अलगाववादियों ने श्रीनगर में बंद का आह्वान किया. (फोटो: IANS)

कॉरपोरेट हाउस को करनी चाहिए मदद

अब वक्त आ चुका है कि कश्मीरी पंडितों को सरकारी मदद का इंतजार बंद कर यह मान लेना चाहिए कि राजनीति में उनकी समस्या का कोई खास महत्व नहीं है. उनकी वापसी सिर्फ कॉरपोरेट जगत की मदद से ही हो सकती है.

आदर्श स्थिति तो तब होती, जब देश के अन्य हिस्सों में अच्छा बिजनेस कर रहे कश्मीरी पंडित अपने लोगों की मदद करते, पर वे यहूदी नहीं हैं.

ऐसे में अज़ीम प्रेमजी, शिव नादर, जीएम राव व उनके जैसे अन्य लोगों को उनकी मदद के लिए आगे आने की जरूरत है, ताकि उनकी त्रासदी खत्म हो और जम्मू व कश्मीर के नागरिक के तौर पर उनके अधिकार भी सुरक्षित रह सकें.

कश्मीरी पंडितों को उनके गंदे शिविरों से बाहर निकालने के लिए एक बड़े प्रयास की जरूरत होगी, पर किसी को तो उन्हें उनकी उम्मीदों से बाहर निकालना होगा, जो कभी सच नहीं होंगी.

(लेखक केंद्रीय सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×