बचपन में टाइम ट्रैवल को लेकर हम बहुत रोमांचित होते थे. कॉमिक्स पढ़ते हुए आइंसटाइन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी को लेकर हमारी समझ यह हुआ करती थी कि “हम इतनी तेज रफ्तार से सफर करें कि समय भी पिछड़ जाए.” जो लोग बुद्धिशाली होते थे, वे ऐसे टाइम कैप्सूल के बारे में बात करते थे जो “प्रकाश से भी तेज सफर करता है. हमारी नजरों के सामने से अतीत की घटनाएं भी ऐसे होकर गुजर जाती हैं, जैसे फिल्म का फ्लैशबैक.” चाहे वह लगभग 5000 ईसा पूर्व भगवान राम का अयोध्या से लौटना हो, या सात हजार साल बाद 2020 ईस्वी में एक घातक वायरस के चलते लोगों का डिजिटल गुफाओं में गायब होना- हमारा टाइम कैप्सूल प्रकाश की किरणों से आगे निकल जाएगा और हमें भूतकाल का शानदार मंजर देखने को मिलेगा.
पिछले हफ्ते मैं कॉमिक बुक्स से असलियत की जमीन पर उतर गया। मैं लंदन जा पहुंचा ताकि आइंसटाइन के जीनियस को समझ सकूं। लेकिन इस कहानी को समझाने के लिए, मुझे वापस उस वक्त में पहुंचना होगा, जब मैं पहली बार अप्रैल 2021 ईस्वी में अपनी डिजिटल गुफा से बाहर निकला था...
मई 2021 ईस्वी का वह भयानक महीना
भारत कोविड-19 की जानलेवा दूसरी या डेल्टा लहर की चपेट में था. उस समय तेरह महीने से मैं अपने घर की चारदीवारी में लगभग कैद था। ढेर सारी बीयर पी रहा था. कंप्यूटर स्क्रीन के सामने गीजा के स्फिंक्स की तरह बुत बना बैठा था (स्फिंक्स एक ऐसी मूर्ति है जिसका शरीर शेर और सिर मनुष्य जैसा है). लेकिन फिर परिवार में एक हेल्थ इमरजेंसी के कारण हमें न्यूयॉर्क के रास्ते लंदन की यात्रा करने को मजबूर होना पड़ा.
हां, आपने सही सुना- न्यूयॉर्क से लंदन. चूंकि भारतीयों के सीधा लंदन जाने पर पाबंदी थी इसलिए हमें न्यूयॉर्क जाना पड़ा- वहां दस दिनों तक रहना पड़ा और फिर हम लंदन में घुस पाए. यह पूरा अनुभव विचित्र था, लेकिन यह मानव सभ्यता का 'न्यू नॉर्मल' था.
मैंने एयर इंडिया के नॉन-स्टॉप विमान में न्यूयॉर्क जाने से 72 घंटे पहले अपना पहला आरटी-पीसीआर टेस्ट कराया. एक अल्प प्रशिक्षित 'टेक्नीशियन' (एक मिसॉजिनिस्ट आदमी जो मेरी तकलीफ का आनंद ले रहा था) ने मेरे गले और नथुने में दो दर्दनाक जैब घुसाए और कहा कि मेरा रिजल्ट नेगेटिव है.
अब मैं उड़ने के लिए तैयार था. पैकेज्ड कन्फेक्शनरी, सभी प्रकार के चिप्स और चॉकलेट के साथ हवाई जहाज में स्वागत किया गया. सभी तरह की ‘कॉन्टैक्ट एक्टिविटी’ पर पाबंदी थी, जैसे टेबलक्लॉथ और ट्रे पर गर्म खाना परोसना, या रजाई देना. 14 घंटे की यह उड़ान मेरे लिए अब तक की सबसे नीरस और बेस्वाद यात्रा थी.
न्यूयॉर्क सिटी में घबराहट कम थी
न्यूयॉर्क सिटी का जॉन एफ कैनेडी एयरपोर्ट काफी सुनसान था लेकिन इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से कम घबराहट नजर आती थी. हमारी टेस्ट रिपोर्ट और ट्रैवल डॉक्यूमेंट्स की जांच बहुत तेजी से की गई. हमें सलाह दी गई कि हमें खुद को क्वारंटाइन करना चाहिए हालांकि इस संबंध में कोई कानूनी आदेश नहीं था.
दो दिन बाद हम ‘क्वारंटाइन रिलीज’ टेस्ट्स के लिए सिटी एमडी सेंटर गए. जब टेक्नीशियन जैब को घुसाने की तैयारी कर रहा था, एक सनसनी मेरे नाक और गले में दौड़ रही थी. लेकिन उसने मेरे कांपते हुए नथुने में सिर्फ दो मिलीमीटर तक ही जैब को पांच बार घुमाकर कहा- ऑल डन। मेरी खुशी का पारावार न रहा. कोई दर्द नहीं, कोई चोट नहीं। वह मेरा पहला रैपिड एंटीजन टेस्ट (आरएटी) था, जो भयानक आरटी-पीसीआर से कहीं अधिक आसान था. ईश्वर का शुक्र है कि अमेरिका में उस आदिम युग के निदान पर जोर नहीं दिया गया था. जब मैंने उस टेस्ट की फीस चुकाने के लिए अपना क्रेडिट कार्ड निकाला तो मुझसे कहा गया- यह टेस्ट मुफ्त है। वाह!
न्यूयॉर्क में आठ दिन काफी आरामदेह थे. लोग बाहर निकल रहे थे, मॉल और बार लोगों से भरे हुए थे, और कुछ ही लोग मास्क पहने थे. लेकिन हमें लंदन जाने से पहले फिर से आरटी-पीसीआर कराना था. पर यहां भी हम खुशकिस्मत रहे। यूके ने अपने नियमों में ऐन वक्त पर बदलाव कर दिए. आरटी-पीसीआर की जगह रैट से काम चल सकता था. हम फिर सिटी एमडी गए- वह आरामदेह टेस्ट कराया और लंदन रवाना हो गए. यह एक छोटा सफर था, और कम नीरस भी.
लंदन में हालात बुरे थे
मई 2021 में लंदन का कोविड -19 प्रोटोकॉल काफ्का की कहानियों वाले खतरनाक दुनिया जैसे थे. हमें तीन डू-इट-योरसेल्फ (DIY) टेस्ट किट प्री-बुक करने के लिए मजबूर होना पड़ा. हरेक के लिए कुछ सौ क्विड (ब्रिटिश पाउंड) देने पड़े. खुशी की बात है कि ये आरएटी थे- और चूंकि मुझे इसे खुद करना था, तो मैंने अमेरिकियों से भी सहजता बरती. मैं पक्के तौर से नहीं कह सकता कि मैंने जो सैंपल लिया, वह एकदम सटीक भी था. खैर, जो भी हो, मेरे सारे टेस्ट नेगेटिव ही रहे!
हमें आठ दिनों तक क्वारंटाइन में रहना था, जब तक कि पांचवें दिन हम ‘रिलीज टेस्ट’ न करा लें- लेकिन
भले ही पांचवें दिन हमारा टेस्ट नेगेटिव हो और हम घूमने को आजाद हों, फिर भी हमें आठवें दिन टेस्ट करना होगा. कोई नहीं समझा सकता था कि ऐसा हास्यास्पद नियम क्यों बनाया गया था - इसलिए हम इस बात पर खूब बहसे कि यह सरकार की तरफ से जबरन वसूली थी या मुनाफाखोरी का चक्कर.
आखिर में हम इस बात पर राजी हुए कि यह दोनों है. हमारे पांच लंबे और तनहा दिनों की खामोशी को तोड़ने का काम किया, लंदन के कोविड-19 मॉनिटरिंग सेल के मिस्ड कॉल्स ने. यह हमारी लोकेशन का पता लगाने की चतुर चाल ही थी. भारत ने अपने पूर्व स्वामियों को इस बात के लिए प्रेरित किया था कि अपने बाशिंदों की जासूसी करने के लिए कौन से जुगाड़ू तौर तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि यह पक्का हो कि हम क्वारंटाइन के नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं.
किसी तरह से हम भारत लौटे लेकिन उससे पहले एक और आरटी-पीसीआर कराना पड़ा ताकि भारत सरकार को तसल्ली हो सके कि हम कोविड-मुक्त हैं.
0001 AC (कोविड युग के बाद) में लंदन की यात्रा
कहा जाता है कि आधुनिक माइथोलॉजी में 0001 AC (यानी आफ्टर कोविड या कोविड के बाद) को 2022 ईस्वी के रूप में भी जाना जाता है. यही वह साल है जब हमने टाइम कैप्सूल में वापस लंदन की यात्रा की. दुनिया कितनी बदल गई थी! किसी ने भी उड़ान से पहले आरटी-पीसीआर टेस्ट या फ्लाइट में मास्क लगाने पर जोर नहीं दिया. नॉर्मल खाना और शराब परोसी गई. हीथ्रो में जब मैंने इमीग्रेशन अधिकारी से पूछा कि क्या वह मेरा वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट देखना चाहता है तो उसने सवालिया नजरों से मुझे देखा. किसी ने नहीं पूछा कि क्या हमने दूसरे या पांचवें या आठवें दिन के DIY टेस्ट बुक किए हैं. किसी ने भी हमारी लोकेशन की 'जासूसी' करने के प्रैंक कॉल नहीं किया. मास्क? वह तो प्रागैतिहासिक काल की वस्तु लगता है.
लंदन गुलजार था जैसे वह 2019 ईस्वी हो- आधुनिक माइथोलॉजी के हिसाब से लगभग 0003 BC (यानी बिफोर कोविड या कोविड से पहले). यहां असल जिंदगी में आइंसटाइन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी नजर आ रही थी. मैं एक अनजानी दुनिया को फिर से देखने के लिए लौटा था, जिसके लिए माना जा रहा है कि वह महामारी में कहीं दफन कर दी गई है।
बेशक, भारत में वापसी ने दोबारा असलियत की जमीन पर ला पटका. हम दो घंटे प्लेन में बैठे रहे क्योंकि पायलट और क्रू की आरटी-पीसीआर रिपोर्ट्स नहीं आई थीं- भारत के कोविड-19 नियमों के तहत यह जरूरी है. मैंने पूछा कि पायलट्स और क्रू की टेस्टिंग क्यों जरूरी है, जबकि 350 यात्री बिना टेस्ट के वापस लौट रहे हैं. पर मुझे कोई समझदारी भरा जवाब नहीं मिला. सिर्फ यही कहा गया- भारत में हम ऐसे ही हैं!
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