मैंने कई सालों तक एक मूवी स्टूडियो के साथ काम किया है. वहां मेरा काम यह था कि स्टूडियो जो फिल्में प्रोड्यूस और फाइनांस करता था, मैं उनकी डिजिटल मार्केटिंग करूं.
किसी फिल्म के डिटिजल मार्केटिंग कैंपेन में दो बातें बहुत मायने रखती हैं- फिल्म के एसेट्स पर ट्विटर ट्रेंड्स और यूट्यूब व्यूज़. ‘एसेट्स’ का मतलब होता है, फिल्म के गाने और ट्रेलर, यानी रिलीज से पहले के प्रमोशनल एसेट्स, बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. अगर शुरुआत में आपके हैशटैग ट्रेंड हो गए और ट्रेलर को मिलियन व्यूज मिल गए तो समझ लीजिए कि आपने किला फतह कर लिया.
लेकिन, यह क्षणिक आनंद आपको लालची बना देता है- डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मान्यता मिलने के बाद चाहत हिलोरे मारने लगती है. इतने भर से खुशी नहीं मिलती कि आप ट्रेंड होने लगे हैं या मिलियन व्यूज मिल गए हैं. दूसरी ख्वाहिशें पंख तौलने लगती हैं.
...कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने रिकॉर्ड समय में इंटरनेट पर धूम मचाई है
इसके बाद यह देखा जाता है कि आप कितने दिनों तक ट्रेंड हुए और आपके ‘एसेट’ को मिलियन व्यू मिलने में कितना वक्त लगा. अब आपको सिर्फ मिलियन व्यू ही नहीं चाहिए- आपको कुछ ही समय में इस लक्ष्य तक पहुंचना होता है ताकि प्रोड्यूसर स्पीड, रीच और बेमिसाल शोहरत, इन सभी का दावा कर सके. 12 घंटे में पांच मिलियन व्यूज की इस कहानी में और भी बहुत कुछ है.
अगर आपके एक फिल्म ट्रेलर ने रिकॉर्ड समय में इंटरनेट पर धूम नहीं मचाई, तो इन व्यूज की संख्या कोई मायने नहीं रखती.
हर हफ्ते एक फिल्म ट्रेलर इंटरनेट पर ताबड़तोबड़ व्यूज हासिल करता है, फिल्म की स्टारकास्ट इसे ऐतिहासिक और अनूठा बताती है लेकिन कुछ ही घंटों में इतिहास बीते वक्त की बात हो जाता है.
तब तक एक नया गाना बाजार में आ जाता है. इतिहास को फिर दोहराया जाता है. ठीक वैसे ही जैसे कोई ब्रेकिंग न्यूज क्षण भर के लिए हंगामा मचाती है और फिर हवाई किले की तरह ढह जाती है.
आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि इस किस्से का टेलीविजन न्यूज से क्या ताल्लुक है. मैं अपने पहले के काम के बारे में इतनी बातें क्यों कर रही हूं. चलिए, असल मुद्दे पर आते हैं.
न्यूज चैनलों की रेटिंग को रद्द किया गया, पर क्यों?
सबसे पहले पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं पर नजर फेरी जाए. बार्क या ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (टेलीविजन चैनलों की रेटिंग करने वाली संस्था) ने तीन महीने के लिए सभी न्यूज चैनलों की रेटिंग्स को रद्द कर दिया है.
दरअसल मुंबई पुलिस ने इंग्लिश न्यूज चैनल, द किंगडम ऑफ अर्नब, ओह सॉरी, रिपब्लिक टीवी पर टीआरपी डेटा के कथित फर्जीवाड़े की जांच की थी. इसके बाद बार्क ने यह कदम उठाया है. बार्क का कहना है कि ‘विशिष्ट जॉनर के डेटा की समीक्षा करने और उसे बेहतर बनाने... साथ ही पैनल होम्स में घुसपैठ करने की कोशिशों को रोकने के लिए’ यह काम किया गया है.
यहां मैं ऐतराज जताती हूं. बार्क ने गलत किया, जब उसने कहा कि वह न्यूज चैनलों की रेटिंग को रद्द कर रहा है. इस साल न्यूज चैनलों की यह जिम्मेदारी है कि वे सिर्फ लोगों का मनोरंजन करें. बार्क के कदम से उनके लिए अपनी जिम्मेदारी को पूरा करना मुश्किल होगा.
वैसे सही टिप्पणी तो यह होगी कि बार्क ने लो कॉस्ट, लोब्रो इंटरटेनमेंट चैनलों की रेटिंग्स को रद्द कर दिया है. ये चैनल महामारी के दौरान बॉलिवुडिया मनोरंजन का विकल्प बन गए थे. जब बॉलिवुड छुट्टी पर चला गया था, तो इन चैनलों ने लोगों को दिल बहलाव किया. सोचिए, जब लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में उदास बैठे थे, तब कैसे इन चैनलों ने दर्शकों की तुच्छ सेवा की.
करीब चार महीने इन चैनलों ने एक युवा ऐक्टर की दुखद मौत की ‘जांच’ करते हुए, कथाओं, उपकथाओं, मोड़ और नए मोड़ों के जरिए लोगों को ध्यान खींचा. आखिर, देश में सबसे पास नेटफ्लिक्स का कनेक्शन नहीं है और न ही डेली सोप्स के नए ऐपिसोड्स आ रहे थे. ऐसे में हमारे सुपरहीरो आए और सांसारिक दुनिया में अस्तित्व के सवाल से जूझते आम जन का ध्यान खींचने की कोशिश करने लगे.
न्यूज चैनलों ने वही किया, जिसका आरोप अनुचित रूप से बॉलिवुड पर लगता रहता है. उन्होंने देश को एक एस्केपिस्ट इंटरटेनमेंट, यानी पलायनवादी मनोरंजन दिया जिससे उनकी वास्तविक जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता. और न ही जमीनी हकीकत से उनका कोई तालुल्क होता है.
उन्होंने नई दिशा बदली. आपका इंटरटेनमेंट करने के लिए उन्होंने इंटरटेनर्स का ही रुख किया. बॉलिवुड की सबसे मशहूर उपमा का सहारा लिया- एंग्री यंग मैन का. सिवाय, इसके कि वह अधेड़ उम्र का है, अति नाटकीय है. लेकिन जब लोब्रो और लो लॉस्ट इंटरटेनमेंट की बात हो तो जैसा कि कहा जाता है, इतने पैसे में इतना ही...
पर कहा जा सकता है कि बॉलिवुड एक ऐसी इंडस्ट्री के लिए नाशुक्रा ही बना रहा जिसने संकट के समय उसकी जिम्मेदारी पूरी की.
पिछले हफ्ते 34 फिल्म प्रोड्यूसर्स, जैसे करण जौहर, आमिर, शाहरुख, सलमान और अक्षय कुमार ने दिल्ली हाई कोर्ट में गुहार लगाई कि वह इन चैनलों को रोके. वे लगातार बॉलिवुड के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहे हैं.
न्यूज के संकट का हल बॉलिवुड के पास है
इंटरटेनर्स चकाए हुए हैं. यूं इंटरटेनर्स को दूसरे इंटरटेनर्स के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए. इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे फूहड़ और चापलूस हैं. लोब्रो हैं और रचनात्मकता की खाल ओढ़े रहते हैं. यहां कुछ भी पर्सनल नहीं था. सिर्फ इंटरटेनमेंट का इरादा था.
इसके बाद एक और लोब्रो आया- चैनसों की रेटिंग्स को रद्द कर दिया गया. उन्हें 700 से अधिक घरों में आपस में गुत्थमगुत्था होने से रोका गया. लेकिन कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त. मेरे पास उनके लिए एक रास्ता है, और यहीं से मैं अपनी कहानी पर लौटती हूं. इसका हल भी बॉलिवुड ही देता है.
क्या गलत होगा कि 2020 में इंटरटेनमेंट करते न्यूज चैनल बॉलिवुड में लोकप्रियता के मापदंडों को ही अपना लें.
अगले तीन महीनों में अगर उन्हें रेटिंग्स के लिए एक दूसरे से भिड़ने का मौका न मिले तो वे दूसरे विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं. ये तो वीकली रेटिंग्स से भी ज्यादा दमदार होगा. सिर्फ बृहस्पतिवार को ही क्यों, वे रोजाना किसी न किसी बात पर उलझ सकते हैं. बॉलिवुड की मार्केटिंग से उधार लेकर अपने लिए ‘न्यू नॉर्मल’ बना सकते हैं.
- हमारे 8 PM show को यूट्यूब पर एक मिनट में 1000 व्यू मिले. 59 सेकेंड्स में सबसे तेज 1000 व्यू. फास्ट एंड फ्यूरियस.
- ‘बैरोमीटर की किसे जरूरत है. हमारे पास डेसिबल मीटर है और इस बात का निर्णयात्मक सबूत भी कि हमारे न्यूज एडिटर्स सबसे तेज चिल्लाते हैं.'
- ‘आपके हैशटैग #GDPCRISIS के मुकाबले हमारा हैशटैग #GDPISABORE दो बार ट्रेंड हुआ. सो, देश का समय बर्बाद करना बंद करें.’
- ‘ब्रेकिंग न्यूज: हम अब व्हॉट्सएप पर वायरल हैं. हां, हम जानते हैं कि यह एनक्रिप्टेड है लेकिन हमारे न्यूज एडिटर को भी व्हॉट्सएप के बारे में कुछ बातें पता हैं.'
तो, ये चैनल इंस्टा रील्स और ट्विटर ट्रेंड्स पर भी झगड़ सकते हैं. आप अपने पॉपकॉर्न का पैकेट थामे रहिए.
कुछ लोग अब भी विश्वास करते हैं कि टेलीविजन न्यूज वाले इन तीन महीनों में सोचे विचारेंगे और वैसा ही करेंगे, जैसे फिल्मों में पत्रकार करते हैं. वे न्यूज रिपोर्टिंग करने लगेंगे. यह ठीक वैसा ही है जैसे यह कहना कि लॉकडाउन के दौरान आपने स्पैनिश, कोडिंग और गिटार सब सीख लिया. अब सात महीने बीत जाने के बाद बताइए कि आपके सारे इरादे कैसे धरे के धरे रह गए.
न्यूज वही रहेगी, जैसे वह रेटिंग के बिना, या रेटिंग के साथ रहती. मानहानि के दावों के बावजूद. क्योंकि खबरें वैसी ही रहेंगी, जैसी आप उन्हें पकाएंगे. एक लोब्रो किस्म का पागलपन. अब ये भी जान लें कि लगातार जिस लोब्रो शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे इंटरटेनमेंट की दुनिया में ऐसा कंटेंट माना जाता है जिसमें कोई गंभीर कलात्मक या सांस्कृतिक विचार शामिल नहीं होता.
मीडिया थ्योरिस्ट नील पोस्टमैन ने 1985 में अपनी सेमिनल किताब अम्यूजिंग आवरसेल्व्स टू डेथ में लिखा था कि भविष्य का अनुमान लगाते समय लोग अक्सर जॉर्ज ऑर्वेल के डिस्टोपिया की परिकल्पना करने लगते हैं.
लेकिन हमें जिस किताब को याद रखना चाहिए, वह ऐल्डस हक्सले की ब्रेव न्यू वर्ल्ड है. हक्स्ले ने कहा था कि एक ऐसा दौर आएगा जब सच्चाई असंगत हो जाएगी. उनका डर यह था कि हमारी संस्कृति अप्रासंगिक हो जाएगी और हमने इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया है कि ‘मनुष्य लगातार चाहता है कि उसका ध्यान असल मुद्दों से भटकता रहे.’
पोस्टमैन और हक्स्ले दोनों सही थे. हम साल 2020 में हैं, और उस दुनिया में सांस ले रहे हैं जहां सब कुछ मनोरंजन ही है.
(नाओमी दत्ता अतीत में एक टीवी पत्रकार रही हैं, और खुश हैं कि वह अतीत की बात है. वह nowme_datta पर ट्विट करती हैं और पेंग्विन रैंडम हाउस प्रकाशित हाऊ टू बी द लाइकेबल बाइगॉट की ऑथर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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