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आर्टिकल 370 पर न्यूज चैनलों की कवरेज अंध-राष्ट्रवाद का सटीक उदाहरण

ये सोचना बचकानी हरकत है कि आर्टिकल 370 पर सरकार के फैसले का विश्लेषण या विरोध न हो

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“राष्ट्र प्रेम मेरा आखिरी आध्यत्मिक बसेरा नहीं हो सकता. मैं मानवता के साथ खड़ा रहना चाहूंगा. मैं हीरे की कीमत पर कांच के टुकड़े नहीं खरीदूंगा और मैं जीते जी कभी देशप्रेम को मानवता पर जीत हासिल नहीं करने दूंगा.”
रवीन्द्रनाथ टैगोर

कवि, लेखक और दार्शनिक होने के साथ बीसवीं सदी में एक पीढ़ी की अंतरआत्मा को झकझोरने वाले गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के इन शब्दों पर आने की जरूरत मौजूदा टीवी चैनलों के सर्कस से उपजी घृणा है.

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दो दिन पहले तक टीवी चैनलों (और काफी हद तक अखबारों ने भी) ने पूरे देश में यह माहौल बना कर रखा कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद राज्य में शांति बनी हुई है. सब कुछ सामान्य है और जल्द ही कर्फ्यू उठा लिया जायेगा. लेकिन 9 अगस्त आते-आते कश्मीरियों में असंतोष और विरोध प्रदर्शन की खबरें बाहर आने लगीं. पहले विदेशी मीडिया और फिर कई वेबसाइट्स ने कश्मीर पहुंच कर इस सच्चाई को बाहर निकाला. कुछ राष्ट्रीय अखबारों के पत्रकारों ने भी ट्विटर और सोशल मीडिया पर जमीनी हालात के बारे में जानकारी दी.

आर्टिकल 370 को हटाना बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में था और सरकार ने इस कदम से अपने एक राजनीतिक वादे को पूरा किया है. लेकिन ये सोचना बचकानी हरकत होती कि इस फैसले का विश्लेषण या विरोध या इस पर बहस न हो.

टीवी चैनलों ने जम्मू-कश्मीर के विषय पर सभी पक्षों की राय, जमीनी हालात और सरकार के फैसले के दूरगामी (सकारात्मक या नकारात्मक) पहलुओं पर कोई बहस करने के बजाय एक अंध-राष्ट्रवादी उन्माद भड़काने की कोशिश की.

स्टूडियो में एंकर “वंदे-मातरम” और “भारत माता की जय” चिल्लाते देखे गए. सरकार के फैसले के खिलाफ राय रखने वाले को देशद्रोही करार दिया गया. 30 साल पहले अपने घरों से निकाले गये कश्मीरी पंडितों के दर्द और इतिहास के पन्ने की बारीकियों को समझाने के बजाय उन पंडितों को कश्मीरी मुसलमानों के सामने प्रतिपक्षी की तरह खड़ा कर दिया गया. कश्मीर के विभाजन के फैसले को पंडितों के सामने जीत की ट्रॉफी की तरह पेश किया गया. और इस खाई को पैदा करने के साथ ही टीवी चैनलों ने यह जयकारा लगाया कि कश्मीर सही मायनों में भारत में ‘शामिल’ हो गया है.

'छद्म राष्ट्रप्रेम...

असल में आर्टिकल 370 मामले की कवरेज टीवी पत्रकारिता के निरंतर पतन का वो पड़ाव है जिस गर्त से वापस लौटना अब उसके लिये मुमकिन नहीं होगा. जिस एक धुरी पर चलकर टीवी पत्रकारिता का रथ यहां तक पहुंचा है वह है 'छद्म राष्ट्रप्रेम'. पिछले कुछ सालों में सरकार को राष्ट्र और सरकार की वकालत को राष्ट्रप्रेम में तब्दील किया गया है. और बहुत जल्द ही टीवी चैनलों के एंकरों ने सैनिकों की पोशाक पहन कर या तिरंगा हाथ में लेकर कार्यक्रम आयोजित करने शुरू कर दिए.

आज टीवी एंकरों से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह रवीन्द्र नाथ टैगोर, अवतार सिंह पाश, सैम्युएल जॉनसन और थामस पेन समेत उन तमाम लेखकों, कवियों और दार्शनिकों को समझेंगे जिन्होंने देश और सरकार के बीच के अंतर को समझाया. जब देशप्रेम में सरकार की आलोचना करना पाप हो जाए तो ऐसे देशप्रेम की मरीचिका किसी भी पत्रकार के लिये बेहद खतरनाक है.

ऐसा देशप्रेम पत्रकार को दृष्टिविहीन कर उसकी सोचने की शक्ति को पंगु कर देता है. अंग्रेज लेखक एच जी वेल्स कहते हैं –

“हमारी सच्ची नागरिकता हमारी मानवता है.”

लेकिन क्या हम मानवता के साथ खड़े हैं?

आर्टिकल 370 सरकार का राजनीतिक कदम है जिसका उसे पूरा अधिकार है. लेकिन क्या आज टीवी चैनल इस सवाल पर बहस को तैयार होंगे कि कहीं सरकार ने बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और महंगाई जैसे विषयों पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं की? वरना क्या जल्दी थी कि कश्मीर में फलते-फूलते रोजगार और सैलानियों के ठसाठस भरे मौसम में सरकार ने यह कदम उठाने की जल्दबाजी की. जिस पर कुछ महीने बाद भी फैसला लिया जा सकता था.

ऐसे सवाल किसी को देशद्रोही नहीं बनाते और ऐसे सवालों के साथ भी भारत की संप्रभुता और एकता की बात की जा सकती है. रोजगार, पर्यावरण और महंगाई के साथ मानवाधिकारों की बात करना सरकार को परेशान कर सकता है. लेकिन क्या इससे देश को खतरा है या इससे समाज, लोकतंत्र और पत्रकारिता का मयार ऊंचा होता है.

सच्चा देशभक्त कौन है ये बात अमेरिकी लेखक और पर्यावरण प्रेमी एडवर्ड ऐबी के शब्दों में झलकती है जहां वह कहते हैं -

“एक देशभक्त को हमेशा अपने देश को सरकार से बचाने के लिए तैयार रहना चाहिए.”

आज अमेरिका समेत दुनिया में राजनीति बंटी हुई है लेकिन पत्रकारों ने कई देशों में अपना संयम नहीं खोया है.जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ट्विटर पर कहते हैं कि “CNN देश की छवि बिगाड़ रहा है.” तो जवाब में CNN कहता है

“देश की छवि की फिक्र करना हमारा नहीं आपका काम है. हमारा काम तथ्यों की रिपोर्टिंग करना है.”

हमारे मीडिया से इतने मुखर होने की उम्मीद न भी की जाए तो इतनी चापलूसी का शोक तो मनाया ही जा सकता है. अगर टीवी चैनल ये सारे सवाल नहीं उठा रहे तो उन्हें सैम्युअल जॉनसन की यह अमर पंक्ति याद दिलाने की जरूरत है बिना इसका ट्रांसलेशन किए.

“Patriotism is the last refuge of the scoundrel.”

(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लंबे वक्त तक कवर किया है.)

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