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UCC लागू करने का रास्ता क्या हो सकता है? स्वतंत्रता और धार्मिक दखलअंदाजी पर रोक

भारत में Uniform Civil Code लागू करने का एक रास्ता अमेरिकी संविधान की प्रेरणा से होकर गुजरता है

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भारत की आत्मा का आधार- “अनेकता में एकता” एक बार फिर खतरे में हो सकता है. हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक दल, बीजेपी की सरकार ने संसद के आगामी सत्र में समान नागरिक कानून (Uniform Civil Code या UCC) पारित करने के अपने इरादे का ऐलान कर दिया है. UCC सभी भारतीयों पर उनकी जातीयता या धर्म से परे लागू होगा. शादी, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत सहित निजी मामलों के लिए एक ही तरह का कानून होगा.

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मोदी सरकार का तर्क है कि UCC देश की एकता, कानूनों की एकरूपता, लोगों में समानता और महिलाओं के अधिकारों के लिए जरूरी है. हालांकि विपक्ष को इसमें बहुसंख्यकवाद थोपने की नियत दिखती है.

भारत के प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने ऐलान किया है कि UCC “संविधान, स्वतंत्रता और विविधता के खिलाफ है.”

1. झारखंड में आदिवासी समूहों को डर है कि इससे उनके परंपरागत कानून असरदार नहीं रह जाएंगे.

2. यहां तक कि शिव सेना और AIADMK जैसे हिंदूवादी संगठन भी इसके विरोध में हैं. उनका तर्क है कि UCC धार्मिक आजादी को सीमित कर देगा और देश का ध्रुवीकरण कर देगा.

लेकिन भारत की बहुमत वाली संसदीय प्रणाली, सरकार को अपनी मर्जी से कोई भी कानून बनाने की ताकत देती है. सरकार का तर्क है कि UCC पहले से ही संविधान में है और नीति निदेशक सिद्धांतों में इसका जिक्र है.

UCC को इकलौते कानून के रूप में लागू करने का विरोध

हमारे देश के संस्थापकों ने UCC को संविधान में बाध्यकारी प्रावधान बनाने के बजाय सलाहकारी प्रावधान के रूप में रखा, क्योंकि इसे लेकर एक राय नहीं थी. ग्रेनविले ऑस्टिन भारत के संविधान के निर्माण के बारे में अपनी किताब में लिखते हैं, “इन कदमों के पीछे की वजह, पहली नजर में हिंदू रूढ़िवाद के साथ टकराव से बचने की चिंता लग सकती है, लेकिन इसकी वजह मुसलमानों और सिखों के प्रति खासतौर से नेहरू की संवेदनशीलता थी.”

नेहरू ने बाद में जब 1951 में हिंदू कोड बिल (Hindu Code Bill) लागू करने की कोशिश की तो उन्हें एहसास हुआ कि UCC को लागू करना कितना मुश्किल है. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसे “बेहद भेदभावपूर्ण" बताते हुए इसका जोरदार विरोध किया, और नेहरू के इसे वापस लेने के बाद ही संवैधानिक संकट टाला जा सका. इससे उनके कानून मंत्री बीआर अंबेडकर नाराज हो गए और उन्होंने इस मुद्दे पर इस्तीफा दे दिया.

मोदी सरकार अमेरिका के संविधान से उनका तरीका उधार लेते हुए UCC में बदलाव करके इसको एक अकेले कानून के रूप में न लागू कर ज्यादा समझदारी से काम ले सकती है, और धार्मिक आजादी में दखलअंदाजी से बच सकती है. UCC को लागू करने का एक सर्वसम्मत तरीका अमेरिकी सिद्धांत पर पालन करके किया जा सकता है जिसमें— राष्ट्रीय सर्वोच्चता, स्थानीय स्वतंत्रता और चर्च व राज्य के अलगाव का पालन किया गया है.

यह राष्ट्रीय एकरूपता और स्थानीय जातीय भावनाओं का बेहतरीन संयोजन होगा. यह भारत के धार्मिक बहुलवाद को भी मजबूत करेगा और किसी भी धर्म या सरकार के संप्रदायवाद पर अंकुश लगाएगा.

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स्वतंत्र कार्यप्रणाली पर अमेरिकी संविधान से प्रेरणा

राष्ट्र की सर्वोच्चता केंद्र सरकार को राज्यों द्वारा पारित कानूनों को खारिज करने की शक्ति देती है. अमेरिकी संविधान में “राष्ट्रीय सर्वोच्चता खंड” (national supremacy clause Article VI, clause 2) है. भारतीय संविधान की भी ऐसी ही भावना है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसकी पुष्टि की है.

भारत अगर इस व्यवस्था को मजबूत करता है, जो कि एक संविधान संशोधन से भी किया जा सकता है, तो यह व्यापक राष्ट्रीय सहमति वाले संघीय कानूनों को पूरे देश में समान रूप से लागू करने की शक्ति देगा. इस तरह मोदी सरकार नागरिक संहिता में सबसे जरूरी मामलों- जैसे कि समानता, महिलाओं के अधिकार, भेदभाव का खात्मा और धर्मांतरण पर “एक राष्ट्र-एक कानून” बना सकती है. जैसे-जैसे देश में ज्यादा आम सहमति बनेगी एकरूपता और धार्मिक सुधार में आगे बढ़ा जा सकता है.

भारत के संघवाद में पहले से ही स्थानीय स्वतंत्रता एक खासियत है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में भी है. लेकिन इसमें एक फर्क है. हमारी अपनी बनावट में केंद्रीयकृत संसदीय प्रणाली की वजह से भारत के राज्य कानून बनाने में बहुत ज्यादा आजाद नहीं हैं. लेकिन अगर उन्हें पार्टी आलाकमान और केंद्र दोनों से ज्यादा आजादी मिलती तो वे स्थानीय जातीय और सांस्कृतिक भावनाओं को जगह देने वाले नागरिक कानून बना सकते थे.

इसमें रीति-रिवाज, धार्मिक अनुष्ठान और समारोह; जन्म, मृत्यु, शादी और तलाक का पंजीकरण; अलगाव, तलाक, गुजारा भत्ता और पुनर्विवाह की शर्तें; उत्तराधिकार के नियम और दूसरे प्रावधान जो राष्ट्रीय कानूनों में दर्ज नहीं हैं, जैसे मामले शामिल किए जा सकते हैं. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार पहले से ही ऐसा नजरिया अपना रही है— रिपोर्टें हैं कि उत्तराखंड अपना खुद का UCC बना रहा है— लेकिन इस मुद्दे पर खास विचारधारा थोपने की कोशिश के बिना ज्यादा ठोस राष्ट्रीय प्रयास की जरूरत है.

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भारत में UCC के लिए रास्ता

धार्मिक समानता और नागरिक सद्भाव के लिए तीसरी और सबसे बड़ी जरूरत केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी धार्मिक गतिविधि में दखलअंदाजी से रोकना है. यहीं पर भारत बहुत बुरी तरह नाकाम रहता है. हमारे संविधान में अमेरिका के फर्स्ट अमेंडमेंट (America’s First Amendment) जैसी व्यवस्था का अभाव है, जो “धर्म की व्यवस्था का सम्मान करते हुए” इसके पालन पर पाबंदी लगाने वाले किसी भी कानून के निर्माण पर रोक लगाता है.

इसकी जगह हमारे संविधान का लक्ष्य बहुलवाद (pluralism) है, जो एक प्रमुख धर्म वाले देश में संप्रदायवाद (sectarianism) पर पहुंच जाता है. अगर हमने इन तीन-बिंदुओं पर आधारित नजरिये पर अमल किया, तो भारत उन सामाजिक सुधार को लागू करने की शुरुआत कर सकता है जो 75 वर्षों से एक आदर्श नीति निदेशक सिद्धांत का सपना रहा है. कुछ आम सहमति अभी बनेगी और समय के साथ और ज्यादा सहमति बनेगी. लेकिन अगर मोदी सरकार का असल इरादा सिर्फ अगला चुनाव जीतने में मदद के लिए हिंदू राष्ट्रवाद को उभारना है, तो सच्ची सर्वसम्मति पर आधारित UCC सिर्फ एक आदर्श सपना भर रह जाएगा.

(लेखक भानु धमीजा दिव्य हिमाचल समूह के संस्थापक और CEO हैं और Why India Needs the Presidential System किताब के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @bhanuDhamija है. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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