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ULFA-केंद्र के बीच शांति समझौता: जब पहले की कोशिशें नाकाम तो दोबारा क्यों मिले हाथ?

1980 के दशक की शुरुआत में ULFA का जन्म असम में विद्रोह के इतिहास में एक नया अध्याय था.

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असम (Assam) में उग्रवाद की शुरुआत पचास के दशक के मध्य में हुई जब सांस्कृतिक जगत की मशहूर शख्सियत बिष्णु प्रसाद राभा के नेतृत्व में भारतीय रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी (RCPI) थोड़े समय के लिए हिंसा की छिटपुट गतिविधियों में शामिल रही, जो सरकार की कठोर कार्रवाई के बाद जल्द शांत पड़ गई. एक दशक बाद लाचित सेना (Lachit Sena) जैसे दूसरे ग्रुप भी सामने आए थे जिनका एकमात्र मकसद राज्य में बाहरी लोगों के बढ़ते असर को रोकना था.

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1980 के दशक की शुरुआत में ULFA (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम) का गठन असम में उग्रवाद के इतिहास में एक नया अध्याय था. यह पिछले संगठनों के मुकाबले बहुत बड़ा और बेहतर तरीके से संगठित था. 1987 तक ट्रेनिंग और हथियारों की खरीद के लिए यह 87 कार्यकर्ताओं के गुट को म्यांमार के काचिन भेज चुका था. बाद में और भी सदस्य भेजे गए. 1990 के दशक के मध्य तक संगठन बांग्लादेश, पाकिस्तान, चीन और भूटान और फिर और ज्यादा देशों तक अपनी पहुंच बना चुका था. नतीजतन इसके पास एक ऐसा नेटवर्क बन चुका था जो दक्षिण एशिया में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) के बाद दूसरा सबसे बड़ा संगठन था.

1990 के दशक की शुरुआत से लेकर मौजूदा समय तक, उल्फा और सरकार के बीच बातचीत से समाधान की चार बार कोशिशें की गईं. कई वजहों के चलते पिछली कोशिशें नाकाम रहीं. हर बार अलग-अलग हालात के चलते यह कवायद शुरू हुई लेकिन कुछ समय बाद पटरी से उतर गई.

शांति की पहली पहल (1992)

27 नवंबर 1990 को जब संगठन के खिलाफ ऑपरेशन 'बजरंग' शुरू किया गया तो उल्फा पर पाबंदी लगा दी गई थी. यह ऑपरेशन सिर्फ उन शिविरों को खत्म करने में कामयाब रहा जो राज्य भर में फैले थे, लेकिन संगठन के विकास को रोकने और अस्तित्व के खात्मे के अपने मकसद में नाकाम रहा. साढ़े चार महीने बाद राज्य विधानसभा चुनाव से पहले ऑपरेशन रोक दिया गया. उल्फा के खिलाफ एक और कार्रवाई ऑपरेशन 'राइनो' 15 सितंबर 1991 को शुरू की गई जिसके जल्द नतीजे मिलने शुरू हो गए. कई सदस्यों को पकड़ा गया, जिससे चेयरमैन अरबिंद राजखोवा के नेतृत्व वाले गुट के कुछ नेताओं को समझौते की संभावना का पता लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

महासचिव अनूप चेतिया के नेतृत्व में छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने समझौते के तौर-तरीकों पर बातचीत करने के लिए प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव और सरकार के आला अफसरों से मुलाकात की. लेकिन वे इस शर्त के साथ आए कि प्रक्रिया संगठन की जनरल काउंसिल की मंजूरी के बाद ही औपचारिक रूप से शुरू हो सकेगी.

हालांकि 1992 में वार्ता समर्थक नेताओं द्वारा तेजपुर के पास बुलाई गई ‘प्रतिनिधि सभा’ में डिब्रूगढ़, दरांग और नलबाड़ी जिलों ने असहमति जताई. इन जिलों के नेता सशस्त्र संघर्ष जारी रखने के हिमायती थे. अनूप चेतिया इस नतीजे पर पहुंचे कि जनरल काउंसिल की बैठक से साफ तस्वीर सामने आएगी, जिसे उन्होंने नागांव के बाहरी इलाके में बुलाने का फैसला किया था. हालांकि, बैठक से मौजूदा माहौल में शायद ही कोई फर्क पड़ा क्योंकि चीफ ऑफ स्टाफ परेश बरुआ, जो बांग्लादेश में रहते थे, ने बैठक में शामिल होने से इनकार कर दिया और सशस्त्र शाखा के ज्यादातर पदाधिकारियों ने उनके समझौता न करने के रुख का समर्थन किया.

गतिरोध सुलझने के कोई आसार नहीं दिखने और सरकार के साथ शांति प्रक्रिया की पुष्टि नहीं होने पर बैठक दूसरे दिन ही खत्म कर दी गई. अनूप और राजखोवा ने सरकार को उल्फा नेताओं के बीच आम सहमति बनाने के लिए, जिसके लिए परेश के साथ एक बैठक भी करनी जरूरी थी, और ज्यादा समय देने को राजी किया. अनूप और राजखोवा चुपचाप सीमावर्ती शहर धुबरी निकल गए, जहां बरुआ भी उनसे मिलने बांग्लादेश से इस पार आए थे.

दो दिन बाद यह तिकड़ी प्रस्ताव को खारिज करने के सर्वसम्मत निर्णय पर पहुंची. वे बांग्लादेश में जल्द से जल्द कार्यकारी परिषद की बैठक बुलाने, सरकारी नीति का मुकाबला करने की रणनीति बनाने और नए सिरे से अभियान चलाने के लिए संगठन को मजबूत करने पर सहमत हुए.

शांति की दूसरी पहल (2005-07)

2005 में शुरू हुई दूसरी कोशिश पहले के मुकाबले लंबी और ज्यादा बड़ी थी क्योंकि इसमें पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप (PCG) नाम का एक समूह भी शामिल था जिसमें सिविल सोसायटी के सम्मानित सदस्य थे. यह प्रक्रिया 2005 में मशहूर असमिया साहित्यकार प्रोफेसर इंदिरा गोस्वामी द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) से हरी झंडी मिलने के बाद शुरू की गई थी, जिन्होंने इस बातचीत में मुख्य भूमिका निभाई थी.

2005-06 में तीन दौर की वार्ता हुई जिसके नतीजे में सरकार और उल्फा के बीच 40 दिन का संक्षिप्त युद्धविराम भी हुआ. हालांकि, संघर्ष विराम खत्म होने के बाद सरकार और संगठन द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ कार्रवाई फिर से शुरू करने से यह कोशिश फिर से नाकाम हो गई. यह कोशिश इतनी लंबी इसलिए चली क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम में संघर्ष खत्म करने को लेकर सचमुच फिक्रमंद थे. और यह निश्चित रूप से उनके कहने पर ही हुआ था कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन ने उल्फा अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा को एक खत भेजा, जिसमें एक अभूतपूर्व नई बात यह थी सभी ‘मुख्य मुद्दों’ पर बातचीत की सरकार की इच्छा का संकेत दिया गया था, जो देश में किसी भी विद्रोही संगठन के साथ पहले कभी नहीं हुआ था.

सरकार और पार्टी, दोनों में ही प्रधानमंत्री के कामयाब होने को लेकर उम्मीदें बहुत धूमिल थीं. सुरक्षा प्रतिष्ठान को पक्के तौर पर लगता था कि चीफ ऑफ स्टाफ परेश बरुआ कभी भी सरकार के साथ बातचीत में हिस्सा नहीं लेंगे या अध्यक्ष राजखोवा को शामिल होने की इजाजत नहीं देंगे. यह निश्चित था कि परेश पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी ISI की गिरफ्त में थे और असम में संघर्ष का अंत एजेंसी के हित में नहीं था. गृह मंत्रालय ने यह मांग भी की कि उल्फा को उन प्रतिनिधियों के नामों का ऐलान करना चाहिए जो पांच बंदियों को जेल से रिहा करने से पहले बातचीत के लिए बैठेंगे.
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गृह मंत्रालय की चिंताएं 2006 की पहली छमाही में उल्फा के हमलों की बढ़ती संख्या के चलते थीं, जो एक साल पहले की इसी अवधि के मुकाबले में ज्यादा तेज थे. एक आकलन है कि सितंबर 2005 और जून 2006 के बीच उल्फा ने 50 से ज्यादा धमाके किए और सशस्त्र बलों पर 15 हमले किए, जिसके नतीजे में 41 नागरिकों और सुरक्षाबल के 6 जवानों की मौत हुई और 170 घायल हुए. इस अवधि में सुरक्षा बल की उल्फा के साथ 20 मुठभेड़ें हुईं, जिनमें संगठन के 21 सदस्य मारे गए और 38 गिरफ्तार किए गए. साफ तौर पर दोनों पक्षों के बीच भरोसे की भारी कमी थी, जिसे सरकार और PCG के बीच तीन दौर की बातचीत पाटने में नाकाम रही.

परेश के इरादों को लेकर मंत्रालय का शक पूरी तरह गलत नहीं हो सकता था. ऐसा लगता है कि उनका मकसद इस कोशिश से राजनीतिक लाभ हासिल करना था. 2011 में, उन्होंने म्यांमार के तागा में कैंप में इस संवाददाता से कहा था कि शांति प्रक्रिया का मकसद यह पता लगाना था कि भारत सरकार असम की संप्रभुता पर किस हद तक जा सकती है. मंत्रालय का अनुमान था पूरी संभावना है कि वह सरकारी प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के लिए नहीं बैठे होंगे, भले ही बातचीत किसी विदेशी जमीन पर होती.

शांति प्रक्रिया के प्रति गृह मंत्रालय के हिचकिचाहट भरे रवैये को सेना, पुलिस और कांग्रेस राजनेताओं के एक वर्ग का समर्थन मिला, जो असम में यथास्थिति बनाए रखने के हिमायती थे. अगर असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई लगातार इस कवायद का समर्थन करते तो हालात अलग मोड़ ले सकते थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को दोबारा जीत मिलने के बाद उनके रवैये में बदलाव आ गया.

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शांति की तीसरी पहल (2008)

24 जून 2008 को, उल्फा की म्यांमार स्थित कुख्यात 28 बटालियन की दो कंपनियों ने सरकार के साथ एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी. दो दिन बाद सादिया में मृणाल हजारिका के नेतृत्व में वरिष्ठ नेताओं ने मीडिया को जानकारी देते हुए कहा कि उन्हें सरकार के साथ समझौते की संभावनाओं को परखने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि नेतृत्व ने उन मुद्दों पर ध्यान देने से इनकार कर दिया था जो वे पिछले कई वर्षों से उठा रहे थे, और अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से असमिया समुदायों को खतरे पर खामोशी अख्तियार कर रखी थी. उन्होंने ढाका में बैठे नेताओं से भी यही रास्ता अपनाने का आग्रह किया.

संगठन के चीफ ऑफ स्टाफ परेश बरुआ ने ढाका में आरोप लगाया कि संघर्ष विराम का कदम उल्फा नेताओं में इसके निचली पांत के नेताओं के बारे में शक पैदा करने के लिए रची गई साजिश का हिस्सा है. उनके विरोध के बावजूद, सरकार ने युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किए क्योंकि ऐसा करने से खासकर उग्रवाद विरोधी अभियानों में बहुत फायदा मिलता.

युद्धविराम करके गुट को खासतौर से बनाए गए तीन शिविरों में रखा गया और गृह मंत्रालय से हर सदस्य को 3,000 रुपये महीना भत्ता मिलता था. उन्हें अपने ज्यादातर हथियार अपने पास रखने की इजाजत दी गई थी क्योंकि म्यांमार के उल्फा नेताओं द्वारा बदला लेने का डर था. इधर, सरकार कुछ केंद्रीय नेताओं की हिस्सेदारी के बिना गुट के साथ बातचीत को तैयार नहीं थी. गुट ने ढाका में नेताओं से संपर्क करने से परहेज किया और भविष्य में सरकार के साथ फिर से बातचीत शुरू होने का इंतजार करने का फैसला लिया.

तब तक, गुट के पास तय शिविरों में बसने और युद्धविराम के लिए तय हुए नियमों का पालन करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. यह ठहराव का दौर था, लेकिन कार्यकर्ताओं ने असम की आजादी के लिए अभियान को त्याग देने के अपने फैसले पर कभी अफसोस नहीं जताया. उन्हें यकीन था कि युद्धविराम ने उनके साथी कैडरों की जान बचाई है, जो देर-सबेर निश्चित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा मार दिए गए होते.

2010 में नेताओं को छोड़कर संगठन के निचले स्तर के सदस्यों और 28 बटालियन की दोनों कंपनियों ने चौथी शांति प्रक्रिया का जबरदस्त समर्थन किया, जो दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ बांग्लादेश से भारत वापस आने के बाद अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा के नेतृत्व में शुरू हुई थी.

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शांति की चौथी पहल

पिछले एक दशक में, ऐसे कई मौके आए जब अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा की अगुवाई वाले गुट ने किसी समझौते पर पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी. महीनों की लगातार बातचीत के बाद लंबे समय तक गतिरोध बना रहा, जिसके दौरान तीन वार्ताकार भी बदल गए.

कुछ वरिष्ठ नेताओं ने दावा किया है कि जिस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं, उसमें गुट द्वारा सरकार को सौंपे गए ‘मांग पत्र’ का लगभग 70 प्रतिशत शामिल किया गया है. कई धाराएं जोड़ी गई हैं जो पहले के मांग पत्र में शामिल नहीं थीं.

इस समझौते को करने में सबसे खास वजह अगले साल होने वाले आम चुनाव हैं. हालांकि बीजेपी आश्वस्त दिख रही है, फिर भी उसे पूर्वोत्तर में अपनी सफलताओं का ढिंढोरा पीटने की जरूरत है जो कुछ नया हो और विकास के आम नारे से अलग हो. NSCN (IM) के साथ शांति प्रक्रिया में अभी भी गतिरोध जारी है और मणिपुर में अनगिनत कुकी-जो ओवरग्राउंड विद्रोही संगठनों के साथ समझौते की शायद ही कोई गुंजाइश है. ऐसे में उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के अलावा कोई बेहतर विकल्प नहीं था. इस समझौते से बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ नहीं था बल्कि पाने के लिए सब कुछ था.

गुट के कुछ वरिष्ठ नेताओं के अनुसार, समझौते की रुकावटों को दूर करने में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की सक्रिय भूमिका महत्वपूर्ण रही. अक्टूबर में पहली बार केंद्र सरकार ने नई दिल्ली में बातचीत में हिस्सा लेने के लिए पुलिस प्रमुख जीपी सिंह को लगाया था, जिन्होंने असम में प्रवासियों द्वारा राजनीतिक अवसरों के और अधिक हड़पने को रोकने के लिए एक तंत्र की संगठन की मांग का जोरदार समर्थन किया. माना जाता है कि गृह मंत्री अमित शाह के साथ सरमा के तालमेल और जल्द समझौते के लिए उनकी कोशिशों ने भी समझौते में तेजी लाने में भूमिका निभाई.

पिछले कुछ समय से और खासतौर से 2021 में राज्य में BJP की सत्ता में वापसी के बाद उम्मीदें काफी ज्यादा थीं कि वार्ता विरोधी गुट के प्रमुख परेश बरुआ भी सरकार के साथ बातचीत में शामिल होने के लिए सहमत होंगे. बरुआ ने दो साल पहले असम में विधानसभा चुनाव के कुछ ही हफ्तों के भीतर सरकार के साथ एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी. बताया जाता है एक सुरक्षा एजेंसी ने बरुआ की मनोदशा समझने और यह जानने के लिए कि क्या वह सचमुच बातचीत के जरिये समाधान के लिए गंभीर हैं, विदेश में एक स्थान पर उनसे मुलाकात के लिए एक नुमाइंदा भेजा था. हालांकि, बरुआ अपने पहले के रुख पर अड़े रहे– कि बातचीत का केंद्रीय मुद्दा असम की संप्रभुता होना चाहिए– जिसे सरकार मंजूर करने की ख्वाहिशमंद नहीं थी.

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गुट के एक नेता, जो एक प्रमुख वार्ताकार भी थे, की राय है कि समझौते के लिए केंद्र सरकार का फैसला आंशिक रूप से पूर्वोत्तर में समग्र सुरक्षा परिदृश्य में सुधार लाने के इरादे से प्रेरित था. बांग्लादेश में अगले महीने होने वाले चुनाव के नतीजों के बारे में कुछ कहना मुश्किल है. अगर BNP सत्ता में लौटती है, तो पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठनों के देश में सक्रिय होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. म्यांमार में हालात अलग नहीं हैं और सैन्य जुंटा के खिलाफ वसंत क्रांति के नतीजे की भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी होगी. इसका मतलब यह है कि भारत की वहां की सरकार से बार-बार अपील के बावजूद बांग्लादेश में अलगाववादी शिविर कुछ और समय तक अछूते रहेंगे.

(राजीव भट्टाचार्य असम के वरिष्ठ पत्रकार हैं और ULFA: The Mirage of Dawn के लेखक हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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