पीयूष गोयल के मन में इस हफ्ते शायद यही बात आई होगी. सबको लग रहा था कि अरुण जेटली अपना छठा बजट पेश करने जा रहे हैं, लेकिन यह जवाबदेही गोयल के जिम्मे आ गई है. वह एक तरह से जेटली के लिए सेकेंड विकेटकीपर बन गए हैं.
अंतिम विश्लेषण में यह बात मायने नहीं रखती कि बजट कौन पेश करता है. इसमें ध्यान इस पर रहता है कि बजट में क्या है.
बजट पेश करते वक्त लंबी स्पीच की जरूरत भी नहीं है. इससे कोई फायदा नहीं होता. अच्छा तो यही होता कि सदन में बजट दस्तावेज पेश कर दिए जाते.
पी चिदंबरम की चेतावनी के बावजूद ‘पूर्ण’ बजट और अंतरिम बजट या लेखानुदान में बहुत अंतर नहीं है. लेखानुदान में संसद, सरकार को सैलरी, पेंशन और कर्ज चुकाने की मंजूरी देती है. इसका प्रावधान आर्टिकल 116(1) में है. इसके बावजूद लेखानुदान परंपरा के अलावा और कुछ भी नहीं. यह संवैधानिक जरूरत नहीं है. संविधान में लेखानुदान का तो जिक्र है, लेकिन उसमें यह नहीं बताया गया है कि इसमें क्या हो सकता है या होना चाहिए.
हमें इस पर भी गौर करना चाहिए कि अगर कोई सरकार पूर्ण बजट पेश करने के बाद गिर जाए, तब भी चुनाव कराने पड़ेंगे. ऐसा 1979, 1989, 1998 और 1999 में हो चुका है, जब आम चुनाव से पहले पूर्ण बजट पेश किया गया था.
अपने मतलब की कहानी
अगर इस तरह से देखें तो अंतरिम बजट को लेकर चुनाव की थ्योरी का कोई मतलब नहीं निकलता. यह विपक्ष का गढ़ा हुआ एक फिक्शन है, जो अगली सरकार बनाने की उम्मीद करता है. पूर्ण बजट के बाद सरकार गिरने की वजह से हुए आम चुनाव के मामले में आप यह तर्क दे सकते हैं कि तत्कालीन वित्त मंत्रियों को बजट पेश करते वक्त पता नहीं था कि आगे सरकार नहीं रहेगी. यह बात ठीक है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है. ऐसा बहुत कम हुआ है, जब नई सरकार ने खुद को पिछले बजट या लेखानुदान से पूरी तरह अलग किया हो.
देश के इतिहास में सिर्फ तीन बार- 1957, 1970 और 1991 में चुनाव के बाद आई सरकारों ने बिल्कुल अलग बजट पेश किया, नहीं तो दूसरी सारी सरकारों ने टैक्स और खर्च पर पिछली सरकार की नीतियों को जारी रखा. यह भी कहना गलत है कि अंतरिम बजट में नई नीतियों (खासतौर पर खर्च को लेकर) का ऐलान नहीं हुआ. हाल में जहां तक मुझे याद है, 2004 में जसवंत सिंह ने लेखानुदान में और पी चिदंबरम ने ऐन चुनाव से पहले बड़े एक्सपेंडिचर प्रोग्राम की घोषणा की थी.
प्रणब मुखर्जी ने 2009 में ऐसा ही किया था. जसवंत सिंह ने अंत्योदय योजना का ऐलान किया था, लेकिन उन्होंने नए टैक्स नहीं बढ़ाए थे. मुखर्जी ने निर्यातकों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज दरों में छूट की घोषणा की थी और रक्षा बजट बढ़ाया था. चिदंबरम ने 2014 में वन रैंक वन पेंशन का ऐलान किया था, लेकिन इनमें से किसी ने भी वित्त विधेयक या इनकम टैक्स कानून में बदलाव नहीं किए थे.
एन माधवन इन मामलों के एक्सपर्ट हैं. उन्होंने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया था, ‘कोई सरकार कभी भी विधेयक ला सकती है और किसी कानून को बदल सकती है.
तकनीकी तौर पर, इनकम टैक्स कानून में मॉनसून या शीत सत्र में बदलाव किया जा सकता है. अगर बदलाव पूरी तरह से टैक्स से जुड़ा है तो उसे मनी बिल के रूप में पेश किया जा सकता है
इसे लागू करने के लिए बिल का सिर्फ लोकसभा से पास होना जरूरी है. लेकिन परंपरा रही है कि इनकम टैक्स कानून में पूर्ण बजट में ही बदलाव किया जाता है.’ इससे अंतरिम बजट या लेखानुदान में इनकम टैक्स कानून में बदलाव की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं, लेकिन नए एक्सपेंडिचर की घोषणा करने पर रोक नहीं है. नई सरकार के पास इसे बदलने या खत्म करने का विकल्प होता है. कहने का मतलब यह है कि बजट के मामले में ‘सब चलता है.’
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