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ओवैसी यूपी चुनाव में जो प्रयोग करना चाहते हैं वो खूब हो चुके और फेल हो चुके

UP Election के नतीजे तय करेंगे कि ओवैसी 'चार मीनार' के अंदर बंद रहेंगे या बाकी देश में भी सियायत चमकाएंगे?

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ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है. वो प्रदेश में तूफानी दौरे कर रहे हैं. अपनी हर रैली में वो मुसलमानों से अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को जिताने की अपील कर रहे हैं.

ओवैसी का दावा है कि अगर मुसलमान SP, RLD, BSP और कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को एकजुट होकर वोट करें तो प्रदेश में मुस्लिम उपमुख्यमंत्री बन सकता है. पहले उनका ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव समाज पार्टी के साथ गठबंधन था. राजभर के अखिलेश के पाले में जाने के बाद ओवैसी अकेले ही मौदान में डटे हुए हैं.

क्या है ओवैसी का एजेंडा?

सबसे पहले इस पर चर्चा होनी चाहिए कि आखिर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के पीछे असदुद्दीन ओवैसी का एजेंडा क्या है? मूल रूप से असदुद्दीन ओवैसी हर राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले दो मुद्दे मुख्य रूप से उठाते हैं. पहला विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी और सत्ता में उनकी वाजिब हिस्सेदारी.

जाहिर है कि उत्तर प्रदेश में भी वह इसी एजेंडे के तहत चुनाव लड़ने के लिए दम ठोक रहे हैं. इस मुद्दे पर उन्हें प्रदेश के मुस्लिम समुदाय का कितना समर्थन मिलेगा, यह कह पाना बहुत जल्दबाजी होगी. क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा में 2017 से पहले तक मुस्लिम विधायकों की संख्या और सत्ता में उनकी हिस्सेदारी ठीक ठाक रही है.
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हर पार्टी में मजबूत मुस्लिम नेतृत्व

उत्तर प्रदेश में लगभग हर पार्टी में मुसलमानों का मजबूत नेतृत्व रहा. यहां सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में सलमान खुर्शीद दो बार पार्टी के अध्यक्ष रहे. कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में 1998 में लोकसभा चुनाव तो 2007 में विधानसभा चुनाव लड़ा. उनके अलावा मोहसिना किदवई, जियाउर रहमान अंसारी और आरिफ मोहम्मद खान जैसे कद्दावर नेता और बड़े चेहरे संसद में मुसलमानों की नुमाइंदगी और रहनुमाई करते रहे हैं.

कई बार लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या 10 से ज्यादा रही है. ये कद्दावर नेता केंद्रीय मंत्रिमंडल का भी हिस्सा रहे हैं. लिहाजा यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी और सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिली.

एसपी-बीएसपी के प्रयोग

मुसलमानों की विधानसभा और संसद में नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अच्छे प्रयोग किए हैं. 1990 के बाद से इन दोनों पार्टियों का ही सत्ता से लंबा नाता रहा है. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद सबसे कद्दावर नेता आजम खान रहे. अहमद हसन को भी आजम खान के बराबर की ही तवज्जो दी गई.

वहीं बीएसपी में मायावती के बाद सबसे मजबूत नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बाद में चौधरी मुनकाद अली रहे. समाजवादी पार्टी सत्ता में रही तो आजम खान 5-6 बड़े मंत्रालयों के साथ सबसे मजबूत मंत्री रहे. बीएसपी सत्ता में रही तो नसीमुद्दीन सिद्दीकी लगभग इतनी ही ताक़त से मुस्लिम समाज की नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी भी करते रहे.

मुस्लिम विधायकों की संख्या

2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों की नुमाइंदगी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. मौजूदा विधानसभा में अब तक के सबसे कम सिर्फ 25 मुस्लिम विधायक हैं. मुस्लिम विधायकों की यह हिस्सेदारी करीब 6% है. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 19.26 फीसदी है. इस हिसाब से 403 सदस्यों वाली विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 74-75 होनी चाहिए, आजादी के बाद किसी भी विधानसभा में इतने मुस्लिम विधायक नहीं जीते हैं.

2012 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 69 मुस्लिम विधायक जीते थे. बाद में उपचुनाव में एक और विधायक जीता था. इस तरह पिछली विधानसभा में कुल 69 मुस्लिम विधायक हो गए थे और विधानसभा में मुसलमानों की हिस्सेदारी 17% हो गई थी. ये आबादी की हिस्सेदारी के बेहद करीब थी.

बीजेपी बढ़ी, मुस्लिम विधायक घटे

2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 47 सीटों से 312 सीटों पर पहुंच गई. उसे अपने सहयोगी दलों के साथ 325 सीटें मिली थी. बीजेपी की इस बढ़ोतरी की वजह से विधानसभा में मुसलमानों की संख्या 65% कम हो गई. 2012 में 68 के मुकाबले सिर्फ 24 ही मुस्लिम विधायक जीत पाए. हालांकि 2007 में 14% हिस्सेदारी के साथ 56 मुस्लिम विधायक जीते थे.

2002 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों के हिस्सेदारी 11.7 थी. इससे पहले 1991 में जब बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी तब आजादी के बाद मुस्लिम विधायकों की सबसे कम 4% हिस्सेदारी थी. तब सबसे कम मुस्लिम विधायक जीते थे. 425 सीटों वाली विधानसभा में कुल 17 मुस्लिम विधायक पहुंचे थे.

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ओवैसी के हक में नहीं समीकरण

पिछले 5 विधानसभा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि जब-जब बीजेपी की ताक़त विधानसभा में बढ़ी है तब-तब मुस्लिम विधायकों की संख्या कम हुई है. जब-जब समाजवादी पार्टी या बीएसपी चुनाव जीती है तो मुस्लिम विधायकों की संख्या भी बढ़ी है. इनकी सरकारों में मुसलमानों को हिस्सेदारी भी मिली है. इस हिसाब से देखा जाए तो असदुद्दीन ओवैसी के लिए आगामी विधानसभा चुनाव में कुछ खास गुंजाइश नहीं दिखती.

ओवैसी न तो विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी ही बढ़ाने की स्थिति में है और ना ही उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने की स्थिति में. लिहाजा पश्चिम बंगाल की तरह यूपी चुनाव में उनकी हालत बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हो सकती है.

बंगाल से नहीं सीखा कोई सबक़

लगता है असदुद्दीन ओवैसी ने पश्चिम बंगाल में हुई अपनी पार्टी की दुर्गति से कोई सबक नहीं सीखा है. वहां पहले ओवैसी ने फुरफुरा शरीफ दरगाह के सज्जादा नशीं मौलाना अब्बास सिद्दीकी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया था. लेकिन बाद में मौलाना ने अपनी अलग पार्टी बना ली. असदुद्दीन ओवैसी ने अकेले 6 सीटों पर चुनाव लड़ा. उनके सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई.

4 सीटों पर टीएमसी के मुस्लिम उम्मीदवार जीते. किसी भी सीट पर ओवैसी की पार्टी का उम्मीदवार 5000 वोट भी हासिल नहीं कर पाया. इस तरह बिहार में पांच सीटें जीतकर बल्लियों उछल रहे ओवैसी पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी का खाता तक खोलने में नाकाम रहे. विधानसभा में मुसलमानों का नुमाइंदगी बढ़ाना और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाना तो बहुत दूर की कौड़ी है.

यूपी के पिछले चुनाव में क्या था हाल

दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ओवैसी ने पूरे देश के मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश की थी. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का नेता बनने के लिए उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में भी किस्मत आजमाई थी. उनकी पार्टी ने तब 38 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन एक को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी.

एकमात्र संभल विधानसभा सीट पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार को 60 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के मौजूदा सांसद शफिकुर्रहमान बर्क के बेटे थे. इस नाते उनका व्यक्तिगत जनाधार इस इलाके में है. लिहाजा इतने वोट हासिल करने में ओवैसी की पार्टी का कोई खास योगदान नहीं माना जा सकता.

बीजेपी की मदद का आरोप

2014 के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद के बाहर अपनी पार्टी का को चुनाव लड़ना शुरू किया है. तभी से उन पर बीजेपी को मदद पहुंचाने का आरोप लग रहा है. पिछले साल हुए बिहार के विधानसभा चुनाव में यह आरोप पुखता तरीके से लगा. ऐसा माना जाता है कि बिहार में उनके 24 सीटों पर चुनाव लड़ने से आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन को काफी नुकसान हुआ.

असदुद्दीन ओवैसी सिर्फ 5 सीट जीतने में कामयाब रहे. लेकिन उनकी मौजूदगी की वजह से बीजेपी को करीब 20 से 25 सीटों का फायदा और महागठबंधन को इतनी सीटों का नुकसान को हुआ. 2014 और 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी असदुद्दीन ओवैसी पर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मदद पहुंचाने का आरोप लगा था.

क्या बीजेपी के एजेंट हैं ओवैसी?

मुस्लिम समाज में एक बड़ा तबका ओवैसी बीजेपी के एजेंट के तौर पर देकता है. आरोप इतन गहरा है कि ओवैसी और उनके समर्थों को हर रैली में इस पर सफाई देनी पड़ती है. इस आरोप को बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने मजबूत किया. इसी साल जनवरी में ओवैसी ने आजमगढ़ में बड़ी रैली करके मुलायम सिंह और उनके परिवार पर मुसलमानों को धोखा देने का आरोप लगाया था.

तब बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने ओवैसी को बीजेपी का मित्र बताया था. उन्होंने कहा था कि जैसे ओवैसी ने बिहार में बीजेपी को फायदा पहुंचाया है उसी तरह वो पश्चिम बंगाल और यूपी में भी फायदा पहुंचाएंगे. साक्षी महाराज के इस बयान के बाद ओवैसी पर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप और पुख्ता हो गया है. इससे छुटकारा पाना ओवैसी के लिए अभी भी बड़ी चुनौती है.

यूपी में पहले भी हो चुके हैं प्रयोग

असदुद्दीन ओवैसी यूपी में जो प्रयोग कर रहे हैं, वैसे पहले कई बार हो चुके हैं लेकिन हर बार नाकामी ही मिली है. 1968 में अंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित डॉक्टर जलील फरीदी ने मुस्लिम मजलिस पार्टी बनाई थी. 1969 में दो सीटों पर चुनाव लड़कर जमानत जब्त कराई. 1974 में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रंति दल के टिकट पर उनके 12 विधायक जीते थे.

उसी साल डॉ. फरीदी की मौत के साथ ही मुस्लिम मजलिस ताश के पत्तों की तरह बिखर कर गई. 1995 में मायावती ने अपनी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे डॉक्टर मसूद को बाहर का रास्ता दिखाया तो उन्होंने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई. कई चुनाव लड़ने के बाद वो महज एक सांसद और एक विधायक ही जिता पाए. वक्त के साथ डॉ. मसूद कई पार्टियों में होते हुए गुमनामी के अंधेरों में खो गए हैं. अरशद खान समाजवादी पार्टी में महासचिव के तौर पर काम कर रहे हैं.

पीस पार्टी का भी था जलवा

नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के गर्त में चले जाने के बाद 2008 में पीस पार्टी वजूद में आई. 2012 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी का जबरदस्त जलवा था. यह पहला मौका था कि जब किसी मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टी के पीछे कई पूर्व आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी राजनीति में कूद पड़े थे. लग रहा था कि ये पार्टी प्रदेश की सियासत में लंबी पारी खेलेगी. 2012 में इसके 4 विधायक जीते थे. 3 सीटों पर नंबर दो रही और 25 सीटों पर अच्छे वोट भी हासिल किए थे. लेकिन 2017 ये खाता तक नहीं खोल सकी. खुद डॉ. अय्यूब भी अपना चुनाव हार गए थे.

पुराने रास्ते पर ओवैसी

एक अमेरिकी चिंतक ने कहा है कि अगर आप कोई काम ठीक उसी तरह करते हो जैसे आप से पहले लोगों ने किया है, तो यकीन जानिए आपको वही नतीजे मिलेंगे जो आपसे पहले लोगों को मिले हैं.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी भी उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ उतर रहे हैं जैसा कि उनसे पहले डॉक्टर जलील फरीदी, डॉक्टर मसूद और डॉक्टर अयूब उतरे थे. अगर ओवैसी बिहार का तरह कुछ सीटें जीत भी जाते हैं तो इससे प्रदेश की राजनीति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. इससे न तो विधानसभा में मुस्लिम समाज की नुमाइंदगी बढ़ेगी और न ही उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी.

दरअसल उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी का भविष्य भी तय करेंगे. बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद देशभर में असदुद्दीन ओवैसी का राजनीतिक कद बढ़ा था. लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव में उनकी पार्टी की दुर्गति ने उनके इस बढ़ते हुए कद को रोक दिया. अगर ओवैसी उत्तर प्रदेश में बिहार वाला प्रदर्शन दोहराते हैं तो अगले एक-दो चुनाव में उनकी पार्टी अपनी भूमिका निभाएगी लेकिन अगर पश्चिम बंगाल की तरह खाता भी नहीं खोल पाते तो फिर उनकी राजनीति हैदराबाद तक ही सिमट कर रह जाएगी.

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