उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार एक प्रस्ताव पर विचार कर रही है, जिसके मुताबिक सरकारी नौकरियों में ओबीसी कोटे में अलग-अलग जातियों को अलग-अलग हिस्सा मिलेगा. 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चार सदस्यों वाली एक कमेटी ने राज्य की 79 ओबीसी जातियों को तीन हिस्सों में बांटने की सिफारिश की है.
सबसे दबंग मानी जाने वाली जातियों को बैकवर्ड क्लास माने जाने का प्रस्ताव है, जिनमें यादव, कुर्मी, पटेल और चौरसिया शामिल हैं. इस ग्रुप को 7 परसेंट रिजर्वेशन देने की बात कही गई है.
सबसे पिछड़ी जातियों को मोस्ट बैकवर्ड क्लास में रखा जाएगा, जिनमें घोषी, निषाद और राजभर शामिल हैं. इनके लिए 9 परसेंट कोटा की सिफारिश की गई है.
इसके अलावा एक ग्रुप होगा मोर बैकवर्ड क्लास, जिनमें गुज्जर, साहू, लोघ और कुशवाहा शामिल होंगे. इस ग्रुप के लिए 11 परसेंट कोटा की सिफारिश की गई है.
लोकसभा चुनाव सिर पर है. ऐसे में इस रिपोर्ट को लागू करने को लेकर सरकार पर दबाव बढ़ने वाला है. ध्यान रहे कि 2002 में उत्तर प्रदेश में उस समय की बीजेपी सरकार ने इसी तरह के फैसले को लागू करने की बात की थी. बाद में काफी विरोध के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था.
क्या इन ताजा सिफारिशों को मान लेने से बीजेपी को चुनाव में फायदा होगा? इसका कोई सीधा जवाब नहीं है. यह एक दोधारी तलवार हो सकता है और दांव उल्टा भी पड़ सकता है. इसकी कई वजह हैं:
उत्तर प्रदेश में ओबीसी की आबादी करीब 8 करोड़ है और राज्य की कुल जनसंख्या में इस समूह की हिस्सेदारी करीब 45 परसेंट है. इतनी बड़ी आबादी को तीन ग्रुप में बांटने से सारे ग्रुप संतुष्ट हो जाएंगे, ये काफी मुश्किल है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ओबीसी के कोटे का बड़ा हिस्सा कुछ दबंग जातियों को मिलता रहा है. लेकिन चूंकि रिजर्वेशन के फायदे, यानी सरकारी नौकरियों के मौके इतने कम हैं कि तथाकथित दबंग जातियों का बड़ा हिस्सा भी किसी भी फायदे से वंचित ही रहा है. ऐसे में उनके कोटे को और कम कर देने से पूरे समूह का गुस्सा बढ़ सकता है.
क्या बीजेपी को लगता है कि यह ऐसा जोखिम है, जिसे उठाया जा सकता है और उसका नुकसान कम और फायदे ज्यादा होंगे? यह भी संभव है कि सारी दबंग जातियां एकसाथ लामबंद हो जाएं. अगर ऐसा होता है, तो यह बीजेपी के लिए अच्छी खबर नहीं है.
ध्यान रहे कि इस फैसले का दूसरे राज्यों में भी असर होगा. कम से कम दूसरे हिंदीभाषी राज्यों में तो इसका असर होना तय है. बीजेपी के यह काफी रिस्की हो सकता है.
आंकड़े बताते हैं कि ओबीसी जातियां एकसाथ वोट नहीं करती हैं. इनका वोट किसको पड़ेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि स्थानीय स्तर पर जातियों का एक-दूसरे से कैसा रिश्ता है.
कोटे के अंदर एक अलग कोटा बनाने से इसमें बदलाव आ सकता है. चूंकि यह नया एक्सपेरिमेंट है, इसीलिए इससे होने वाले बदलाव का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल है.
रिजर्वेशन का फायदा सिर्फ सरकारी नौकरियों तक सीमित है. सरकारी नौकरी के मौके साल में कुछ हजार से ज्यादा नहीं होते हैं. ऐसे में उन जातियों की मायूसी का क्या, जिनको लगेगा कि इस फैसले से उन्हें ज्यादा फायदा होने वाला है.
और आखिर में, हमें यह ध्यान रहे कि इस फैसले के बाद जाति पर बहस तेज होने वाली है. फिर हिंदू समाज की एकता के पैरोकारों का क्या होगा? याद रहे कि 1990 के दशक में मंडल की राजनीति के सामने में मंदिर की राजनीति फीकी हो गई थी. जाति पर बहस तेज होती है, तो ऐसा फिर से हो सकता है. क्या बीजेपी इसके लिए तैयार है?
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