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क्‍या सवर्ण आरक्षण बिल लाने से BJP की हताशा झलक रही है?

मंडल आयोग की रिफारिशें लागू कर वीपी सिंह ने खुद को पिछड़ों के मसीहा के रूप में पेश किया था.

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भारतीय राजनीति में आरक्षण नीति का हथियार अंतिम उपाय के रूप में है. बिल्कुल परमाणु हमले की तरह, इसके बाद एक बेकाबू प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता है. आखिरी बार जब भारतीय प्रधानमंत्री ने इस हथियार का इस्तेमाल किया था, इसने भारतीय राजनीति की शक्ल बदल दी थी.

मंडल आयोग की रिफारिशें लागू कर वीपी सिंह ने खुद को पिछड़ों के मसीहा के रूप में पेश किया था. लेकिन लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और एचडी देवेगौड़ा जैसे अचानक से उभरने वाले जातीय क्षत्रपों की वजह से वीपी सिंह की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं.

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विश्वासघाती है आरक्षण नीति

वीपी सिंह से एक दशक पहले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने इसी तरह से सरकारी नौकरी में आरक्षण को लागू किया था, लेकिन जल्द ही सत्ता गंवा बैठे. इतिहास गवाह है कि आरक्षण नीति भरोसे के लायक नहीं. ये देखने में भले ही सबसे फायदे वाला लगे, लेकिन इसके सहारे सत्ता हासिल नहीं कर सकते.

ऐसे में इस ‘मास्टरस्ट्रोक’ में बीजेपी को क्या उम्मीद दिख रही है? अपनी राजनीति में धार लाने के लिए बीजेपी के लिए जरूरी है कि वो प्रमुख आंतरिक समस्याओं पर ध्यान दे.

पहला, सरकार को ये मानना होगा कि बीते कुछ महीनों से उसके संवाद का स्तर गिरता चला गया है. अपने समर्थकों और विरोधियों के बीच अपनी सरकार के काम-काज का बखान पहुंचाने के लिए जरूरी है कि वो प्रभावी रूप से संवाद क्षमता का इस्तेमाल करे. उदाहरण के लिए, सरकारी विज्ञापनों में इकट्ठे किए गए करों के बारे में लगातार जिक्र कर सरकार ने कुछ वर्गों के मानस पटल पर अपनी जगह बना ली है.

दूसरा, अपने कार्यकाल के आखिर में 10 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान करने से साफ पता चलता है कि सरकार की राजनीतिक मंशा क्या है. खास तौर पर जब उसे हाल के चुनावों में हिंदी क्षेत्र में हार का मुंह देखना पड़ा.

सुझाव ये नहीं है कि ये विषय ही अप्रासंगिक है, बल्कि आम चुनावों से 2-3 महीने पहले इसका ऐलान करने से बीजेपी को इससे कितना फायदा होगा, इसमें भी संदेह है. खासकर तब, जबकि इसको लेकर कई किंतु-परंतु पहले से उठने लगे हैं.

आरक्षण नीति पर तर्क-वितर्क

इस आरक्षण नीति को लेकर दो तरह की सोच आ सकती हैं. पहला, इस कदम के पीछे की विशिष्टता को लेकर है. हालांकि इसमें एसटी, एससी और ओबीसी के अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े आम हिंदुओं को फायदा देने की बात कही गई है, लेकिन इसका वास्तविक आधार साफ नहीं है.

एसटी, एससी और ओबीसी को छोड़ गरीब वर्ग का बड़ा तबका मुस्लिम समुदाय से है, ऐसे में आय का आधार नीचे रखने पर उन्हें फायदा हो सकता था. लेकिन सालाना 8 लाख रुपये की आय तय कर सरकार ने इस नीति को आर्थिक रूप से पिछड़े उच्च जाति के हिंदुओं को फायदा देने की विशिष्टता को खत्म कर दिया है.

इसकी जगह, इस बात की संभावना ज्यादा है कि इसका फायदा आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के पिछड़े हिंदुओं की जगह मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के ज्यादातर हिंदुओं को मिलेगा.

इसके आधार पर हम दूसरी सोच की ओर बढ़ सकते हैं. पिछले 15 सालों से हम सी वोटर के जरिए उस रकम का पता लगाते रहते हैं, जिस पर औसत मध्यवर्गीय परिवार के हिसाब से कर नहीं लगना चाहिए.

करीब 15 साल पहले ये रकम 1.5 लाख रुपये के करीब थी, आज ये राशि 4.5 लाख रुपये हो गई है. दूसरे शब्दों में कहें, तो 4 लोगों के एक औसत मध्यवर्ग का परिवार आसानी से इस राशि से गुजारा कर सकता है. तो क्या इस रकम पर सरकार को टैक्स लगाना चाहिए?

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सत्ताधारी सरकार में घबराहट के लक्षण

हालांकि सरकार टैक्स छूट की सीमा बढ़ाने को अनसुना करती रही है. ऐसे में 8 लाख रुपये से कम कमाने वालों को आर्थिक रूप से पिछड़े के रूप में चिह्नित करने के मौजूदा प्रस्ताव से आयकर स्लैब को युक्तिसंगत बनाने की मांग जोर पकड़ सकती है. यहां तक कि पार्टी के कुछ अतिउत्साही समर्थक भी एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण में एक बराबर स्लैब की मांग कर सकते हैं और इससे ये मसला और जटिल हो सकता है. इस पर बहस किसी और दिन करेंगे.

वास्तव में, आयकर छूट को 8 लाख रुपये तक बढ़ाने के फैसले से बीजेपी को सटीक राजनीतिक फायदा मिल सकता है.

दो स्थिति पर गौर करें- राज्यसभा में सरकार के पास जरूरी संख्या नहीं है और उच्च जाति के वोटर बीजेपी के परंपरागत वोट बैंक रहे हैं. फिर भी उन्हें लुभाने के इस हताश भरे कदम से महसूस होता है कि सरकार घबराई हुई है. इसके अलावा, ठीक आरक्षण संबंधी घोषणा के समय सीबीआई निदेशक मामले में एक प्रतिकूल फैसले आने के बाद से भी लगता है कि सरकार घबराहट में है.

इसके बाद हमारे सामने तीन स्थितियां हैं. सबसे अच्छी स्थिति ये है कि बीजेपी की उच्च जाति के वोटरों में पैठ बनेगी. साथ ही उसके दूसरे वोट-बैंक भी उसी तरह बने रहेंगे. ऐसी स्थिति, जिसमें न कोई फायदा, न नुकसान. वो ये कि पार्टी को हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होगा, लेकिन उसे उसकी मौजूदा स्थिति से कोई बड़ा घाटा भी नहीं होगा.

खराब से खराब स्थिति में, पार्टी को उच्च जाति के वोटरों का लाभ तो नहीं ही मिलेगा, साथ ही इसकी वजह से उसका मौजूदा वोट बैंक भी बिखर जाएगा.

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BJP का स्वार्थ

ऊपर-ऊपर देखें, तो यह एक व्यक्तिपरक विश्लेषण के रूप में दिखाई दे सकता है, लेकिन एक स्थिति तो साफ दिख रही है. वो ये कि अच्छी से अच्छी स्थिति में भी बीजेपी अपने समर्थकों को बनाए रखने की जद्दोजहद में ही लगी हुई है. किसी भी हालात में बीजेपी के समर्थकों या वोटरों की संख्या नहीं बढ़ रही है.

क्या इस विधेयक को दोनों सदनों में पारित किया जाना चाहिए. इससे बीजेपी को कुछ पैंतरा दिखाने का मौका मिल सकता है. बिल पास करने में बाधा उत्पन्न होने की स्थिति में सरकार ये कह सकती है कि वो लाचार है, हालांकि उसने कोशिश पूरी की.

इसका सार यही है कि यह एक ऐसा नीतिगत कदम है, जिसमें कई स्वार्थ छिपे हुए हैं और इसमें गलती की कोई गुंजाइश नहीं. यह एक ऐसा राजनीतिक फैसला है, जिस पर सरकार अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में कदम उठा सकती है. अब तो इसे उतावले साहस और राजनीतिक जोखिम का विचित्र गठजोड़ ही कहेंगे.

(लेखक सी वोटर इंटरनेशनल के सह निदेशक हैं. उनका ट्विटर है @YRDeshmukh. यह एक विचार है. व्यक्त विचार लेखक के हैं. क्विंट इसकी वकालत नहीं करता, न ही इसके लिए ज़िम्मेदार है.)

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