जब तक ट्रैक पर नजर पहुंचती तब तक उसेन बोल्ट ओलंपिक गोल्ड मेडल जीत चुके थे. बोल्ट के 2008 ओलंपिक मेडल की कहानी सुना रहे हैं शिवेंद्र कुमार सिंह
16 अगस्त 2008. मैं बीजिंग में था. ये पहला मौका था जब मैं ओलंपिक कवरेज के लिए गया था. बीजिंग से हाल-चाल जानने के लिए एक पुराने दोस्त को फोन किया. वो दोस्त स्पोर्ट्स के एनसाइक्लोपीडिया थे. हिंदुस्तान में लोगों को क्रिकेट और हॉकी के तमाम रिकॉर्ड्स याद रहते हैं लेकिन उन्हें इन दोनों खेलों के अलावा भी काफी कुछ जुबानी याद रहता था. मिसाल के तौर पर आप उनसे पूछिए 1988 में विबंलडन किसने जीता था? वो जवाब देने की बजाए जब से विंबलडन शुरू हुआ तबसे लेकर 2018 तक जो-जो खिलाड़ी चैंपियन रहे हैं उनका नाम और साल बताते जाएंगे.
खैर, उस रोज हाल चाल लेने के बाद उन्होंने कहा कि आज तो सौ मीटर की रेस का फाइनल होना है. किस्मत वाले हो दोस्त कि तुम्हें ओलंपिक की सौ मीटर रेस का फाइनल देखने को मिलेगा. कोट और टाई पहन कर देखने जाना. मैंने कहा कि भाई लॉर्ड्स में तो सुना था कि कोट और टाई पहनकर जाना चाहिए ये 100 मीटर की रेस का कोट टाई से क्या लेना देना. उन्होंने बड़े ताव से कहा कि लॉर्ड्स के किसी भी टेस्ट मैच से 100 मीटर की रेस ज्यादा बड़ा स्पोर्टिंग इवेंट है. उनकी समझ को चुनौती देने की ना तो मुझमें हिम्मत थी और ना ही मैं कोट-टाई पहन कर जाने को तैयार था.
लिहाजा बात यहीं खत्म हो गई. शाम को मैं अपने कैमरामैन के साथ ट्रैक एंड फील्ड इवेंट के एरिना में पहुंचा. लंबी चौड़ी मशक्कत के बाद हम लोग स्टेडियम के एक हिस्से में पहुंचे जहां से रेस देखी जा सकती थी. पूरे स्टेडियम का माहौल ही अलग था. हजारों लोग थे जो वाकई कोट-टाई पहन कर रेस देखने आए थे.
मैंने लॉर्ड्स में भी कई मैच कवर किए हैं. ऑस्ट्रेलिया के भी ऐतिहासिक मैदानों में मैच कवर किया है लेकिन 100 मीटर रेस देखने का ये अलग ही तजुर्बा था. थोड़ी ही देर में ‘स्टार्टिंग प्वाइंट’ पर एथलीट आकर खड़े हो गए. तमाम एथलीट्स में उसेन बोल्ट और असाफा पॉवेल का नाम मैंने भी सुना था. दोनों जमैका के थे. इस दौरान हमें बड़ी मुश्किल से बैठने के लिए सीट भी मिल गई. मैं आराम से बैठकर मोबाइल पर कुछ मैसेज देखने लगा. तब तक रेस शुरू हो गई.
मेरे चारों तरफ बैठे लोग उत्तेजना में खड़े हो गए. जब तक मैं कुछ समझता और अपनी जगह पर खड़े होकर ट्रैक तक निगाहें ले जाता तब तक मेरे साथ ‘खेल’ हो गया था. जब ट्रैक पर मेरी नजर पड़ी तब उसेन बोल्ट अपनी छाती को ठोंक रहे थे. वो रेस जीत चुके थे. उस रोज बड़ा अफसोस हुआ कि सबकुछ रहते हुए भी उन्हें दौड़ते नहीं देख पाया.
वो उसेन बोल्ट का पहला ओलंपिक गोल्ड मेडल था. वो खुशी के सातवें आसमान से भी ऊपर थे. स्टेडियम में लगी बड़ी स्क्रीन पर उनकी रेस को देखने के बाद भी यकीन नहीं हो रहा था कि ये इंसान है या मशीन, क्या वाकई बोल्ट हवा से बातें करते होंगे. खैर, उनकी छाती ठोंकने के अंदाज पर अगले दिन काफी विवाद भी हुआ लेकिन दुनिया को उसका सबसे तेज दौड़ने वाला एथलीट मिल चुका था.
चूंकि मैं क्रिकेट कवर करने के लिए जमैका जा चुका हूं इसलिए वहां के मिजाज से वाकिफ हूं. शायद कम ही लोग जानते होंगे कि जमैका में एक जुमला बड़ा मशहूर है- ‘नो प्रॉब्लम मैन नो प्रॉब्लम’. जमैका के लोगों से आप कुछ भी कहिए उनका जवाब होगा- ‘नो प्रॉब्लम मैन नो प्रॉब्लम’. बोल्ट उसी देश से आते हैं इसलिए उन पर भी इस विवाद का कोई असर नहीं पड़ा.
दो-तीन दिन बाद ही 200 मीटर रेस में भी उन्होंने शानदार तरीके से गोल्ड मेडल जीता. इसके बाद अगले कुछ साल तक उसैन बोल्ट की तूती बोलती रही. वो लगातार वर्ल्ड चैंपियनशिप का गोल्ड मेडल जीतते रहे. विश्व रिकॉर्ड तोड़ते रहे. उन्हें ‘लाइटनिंग बोल्ट’ कहा जाने लगा. बचपन में क्रिकेट और फुटबॉल का शौक रखने वाले उसेन बोल्ट को महानतम एथलीट माना गया. लोग उनकी रफ्तार के दीवाने हो गए.
जमैका में बोल्ट के पिता एक दुकान चलाया करते थे. बोल्ट उन दिनों अपने भाई के साथ क्रिकेट या फुटबॉल खेला करते थे. 11-12 साल के थे जब स्कूल की रेस में वो लगातार जीतने लगे. 2001 के आस पास उन्होंने ट्रैक पर अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया. यूथ चैंपियनशिप जीती. अगले दो तीन साल उन्होंने इतने अवॉर्ड्स और मेडल जीते जिनका हिसाब रखना मुश्किल है. ये वो खिताब थे जो किसी भी एथलीट की आंखों में एक सपना देने की ताकत रखते हैं- वो सपना होता है ओलंपिक मेडल. उसेन बोल्ट की आंख में भी तब तक वो सपना पलने लगा था.
2004 एथेंस ओलंपिक में वो इस सपने के साथ एथेंस पहुंचे भी लेकिन एक ओलंपिक मेडल करियर के सैकड़ों-हजारों मेडल से बड़ा होता है. ये बात तब साबित हुई जब बोल्ट को एथेंस ओलंपिक में नाकामी हाथ लगी. वो 200 मीटर रेस के शुरूआती दौर में ही ‘अनफिट’ हो गए. अगले साल बोल्ट ने नए कोच ग्लेन मिल्स के साथ ट्रेनिंग शुरू की. ग्लेन मिल्स अपने दौर में जमैका के जाने माने एथलीट थे. इन बदलावों को भी रंग लाने में वक्त लगा. ‘वर्ल्ड लेवल’ पर बोल्ट अब भी खुद को साबित नहीं कर पाए थे.
इसी दौरान उनका एक एक्सीडेंट भी हुआ. हालांकि उसमें उन्हें ज्यादा चोट नहीं आई. बोल्ट पसीना बहाते रहे. कामयाबी का इंतजार करते रहे. आखिरकार जो पहली बड़ी कामयाबी उन्हें मिली वो थी 2007 की वर्ल्ड चैंपियनशिप जहां बोल्ट ने सिल्वर मेडल जीता. अगले साल उन्होंने न्यूयॉर्क ग्रां प्री में 100 मीटर रेस का वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम किया. अब बोल्ट तैयार थे अपने उस सपने को पूरा करने के लिए जो उन्होंने कई साल पहले देखा था. उनकी चोट और पुराने रिकॉर्ड्स को देखते हुए इस बात पर भी काफी चर्चा हुई थी कि क्या वो ओलंपिक में अपना कमाल जारी रख पाएंगे. इसका जवाब उन्होंने कैसे दिया इस कहानी पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं. 9.69 सेकंड में रिकॉर्ड कायम कर बोल्ट सोने को चूम चुके थे. बोल्ट के बड़े मेडल्स को इस टैली में देख लेते हैं.
कहानी यहीं खत्म नहीं होती. इन कामयाबियों के बीच 2012 का साल आया, जब लंदन ओलंपिक्स कवर करने का मुझे मौका मिला. इस बार ट्रैक पर जस्टिन गैटलिन, योहान ब्लेक और असाफा पॉवेल के तौर पर प्रतिद्वंदी उसेन बोल्ट के सामने थे. इस बार भी नतीजों के लिहाज से कुछ नहीं बदला. सिवाय इसके कि मैंने पहले से ही सीट पर बैठने की बजाए खड़े होने का फैसला कर लिया था.
लंदन में उन्होंने बीजिंग के मुकाबले और भी तेज समय में रेस जीती. आखिरकार मैं भी ये कह सकता हूं कि मैंने भी हवा से बातें करता इंसान देखा है. 2016 ओलंपिक मैंने कवर तो नहीं किया लेकिन रेस टीवी पर जरूर देखी. जहां हर तरफ बोल्ट ही बोल्ट दिखाई दे रहे थे. अगले साल उन्होंने संन्यास का ऐलान कर दिया था. दुनिया के महानतम एथलीटों में शुमार उसेन बोल्ट लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम के भी बेहद लोकप्रिय ‘कैरेक्टर’ हैं.
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