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Encounter: गैंगस्टर्स से उत्तर प्रदेश में पहले के मुख्यमंत्री कैसे निपटते थे?

जब यूपी के सीएम वीपी सिंह थे तब 1981 में केवल एक साल में ही पुलिस मुठभेड़ों में 1480 डकैत मारे गए थे.

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योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के सत्ता में आने के बाद से उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में पुलिस द्वारा संदिग्ध मुठभेड़ों में गैंगस्टरों को मार गिराए जाने से देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में काफी विवाद खड़ा हो गया है.

वहीं जेल में बंद चल रहे दो अपराधियों को सरेआम पुलिस और मीडिया की मौजूदगी में मारना इससे भी अधिक चौंकाने वाली घटना है. इसी परिवार से ताल्लुक रखने वाले दो सदस्यों को भी मुठभेड़ में हफ्तेभर पहले ही मार दिया गया था.

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उत्तर प्रदेश में आज जो कुछ भी हो रहा है उसकी तुलना चार दशक पहले से करना दिलचस्प हो सकता है जब गैंगस्टरों और पुलिस मुठभेड़ों ने राज्य में कोहराम मचा कर रखा था. यह राज्य तब विश्वनाथ प्रताप सिंह के निर्देश पर चलता था.

40 साल पहले वीपी सिंह के समय पुलिस की ज्यादतियों की बढ़ती संख्या बहुत ही भयावह तस्वीर पेश करती है.

इंडिया टुडे ने एक अधिकारी के हवाले से बताया कि, छह साल पहले योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के बाद से 183 सूचीबद्ध अपराधियों को पुलिस मुठभेड़ों में मार गिराया गया, वहीं 1981 में केवल एक साल में ही पुलिस मुठभेड़ों में 1480 डकैत मारे गए थे.

वीपी सिंह का राज और डेढ़ महीने में 310 डकैतों का खात्मा

साल 1981 में अकेले डेढ़ महीने में 310 डकैतों को मार गिराया गया था, ये तब हुआ जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी सिंह ने डकैतों के खतरे को तुरंत खत्म करने के लिए शपथ ली थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब खुद उनकी प्रशंसा की थी.

डकैतों ने कई निर्दोष ग्रामीणों का नरसंहार किया था, जिनमें से अधिकांश निचली जाति के थे. वहीं अप्रैल में, मुख्यमंत्री के बड़े भाई चंद्र प्रताप सिंह, एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और उनके बड़े बेटे को अज्ञात हमलावरों ने घात लगाकर मार डाला था.

अपने खुद के परिवार के सदस्यों की भी रक्षा करने में असमर्थ रहे सिंह ने कुछ महीने बाद ही कांग्रेस पार्टी के अंदर नारायण दत्त तिवारी और वीर बहादुर सिंह जैसे दुश्मनों और मुलायम सिंह यादव जैसे विपक्षियों द्वारा उनके खिलाफ एक साजिश के बीच इस्तीफा दे दिया था.

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मुलायम सिंह यादव की एंट्री के बाद क्या बदला?

यूपी की राजनीति से वीपी सिंह की विदाई के बाद उत्तर प्रदेश में डकैत बनाम पुलिस की गाथा छिटपुट घटनाओं को छोड़कर सुर्खियों में आना बंद हो गई.

1995 में, जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने कुख्यात फूलन देवी के खिलाफ सभी आरोपों को हटा दिया और उन्हें अपनी समाजवादी पार्टी में शामिल कर लिया. साथ ही वे दो बार चुनाव जीतीं, हालांकि 2001 में दिल्ली आवास के सामने हत्या कर दी गई थी.

तब से, राज्य में ज्यादातर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने डकैतों के साथ संबंध विकसित कर लिए ताकि उन्हें फायदा हो सके. इन्हीं डकैतों को फिर बाहुबली कहा गया, जिनका अपनी जाति पर काफी प्रभाव था और ये वित्तीय रूप से भी ताकतवर थे.

1997 में जब बीजेपी के कद्दावर नेता कल्याण सिंह ने मायावती के नेतृत्व वाली बीएसपी-बीजेपी गठबंधन सरकार को गिरा दिया, तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में गंभीर आपराधिक आरोपों वाले 19 मंत्रियों को शामिल किया, जिनमें से कुछ अपराध के सर्वेसर्वा थे.

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मायवती को पहले डकैतों का समर्थन, फिर डकैतों का एनकाउंटर

कांशीराम की दलित राजनीति से बीएसपी उभरी, इसके बावजूद बीएसपी ने जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में अपने पंख फैलाए तब इन अपराधी सरदारों से सुरक्षा मांगी. उदाहरण के लिए, राज्य के दो सबसे कुख्यात डकैत गिरोह- ददुआ और ठोकिया, जो बुंदेलखंड क्षेत्र से थे. अचानक 2007 में वे बहनजी और उनके हाथी के प्रतीक का समर्थन करने लगे, जबकि वे जानते थे कि राजनीतिक हवा किस तरफ बह रही थी.

चुनाव प्रचार के दौरान इस गिरोह ने मोहर लगेगी हाथी पर, नहीं गोली पड़ेगी छाती पर (हाथी को वोट दो या सीने में गोली खाओ) का नारा देकर लहर पैदा कर दी. हालांकि, 2007 में मायावती के पूर्ण बहुमत से ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद, उन्होंने अपने निडर कैबिनेट सचिव चंद्र शेखर सिंह की सलाह पर डकैतों का रास्ते से हटाने का फैसला किया.

मायावती के सत्ता में आने के कुछ महीनों के अंदर ही पुलिस ने ददुआ और ठोकिया के साथ उसके गिरोह के कई सदस्यों को मार गिराया. वह मुख्तार अंसारी, राजा भैया और अतीक अहमद जैसे कई अन्य कुख्यात अपराध प्रमुखों के पीछे भी गई, जिनमें से कई पूर्व मंत्री और अन्य राजनीतिक दलों के विधायक थे.

इसके बाद मायावती उत्तर प्रदेश में सबसे खूंखार अपराधियों के खिलाफ अपने अभियान के लिए स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में छा गई. उसी मीडिया ने मायावती को कवर किया जो अब तक दलित नेताओं को टीवी या अखबारों में कम जगह देती थी.

हालांकि बाद में मायावती को इसकी एक भारी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी.

2009 के महत्वपूर्ण संसदीय चुनावों के दौरान, जब बहनजी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपना नाम आगे करने की कोशिश की थी, तो ददुआ और ठोकिया के रिश्तेदारों के नेतृत्व में बुंदेलखंड के गिरोह ने अपना नारा बदलकर समाजवादी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया.

इस बार नारा दिया कि गोली पड़ेगी छाती पर, अगर मोहर लगेगी हाथी पर.

2012 में, भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी मायावती चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाई. और मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी सत्ता पर काबिज हुई.

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अखिलेश यादव और उनका सख्त रवैया

मायावती के शासन के बाद आई अखिलेश यादव सरकार के पास एक मंत्रालय था जिसमें लगभग एक चौथाई का आपराधिक रिकॉर्ड था या उनके बहुत ही संदिग्ध संबंध थे. सभी को मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने चुना था, जिनका गैंगस्टर की दुनिया से संपर्क था.

युवा और शहरी यादव वंश ने डीपी यादव जैसे अपराधियों को पार्टी में प्रवेश से रोका और मुख्तार अंसारी के साथ चुनावी गठबंधन से इनकार करने के लिए सख्त रुख अपनाने की कोशिश की, लेकिन अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल के साथ युद्ध ने उन्हें कमजोर कर दिया. जमीनी स्तर पर उनकी भले ही मीडिया ने प्रशंसा की हो. उनकी पार्टी को बाद में 2014 और 2017 में संसदीय चुनावों और राज्य विधानसभा चुनावों दोनों में मोदी की जीत से हार का सामना करना पड़ा.

यह देखा जाना बाकी है कि क्या योगी आदित्यनाथ भी बाकी मुख्यमंत्रियों की तरह अपराधियों के खिलाफ लड़ाई के शिकार होंगे. हालांकि बाकी सीएम की तुलना में योगी को आरएसएस के प्रचार तंत्र की वजह से समर्थन मिलेगा जो पुलिस द्वारा चलाए जा रहे डकैत-विरोधी अभियानों को सांप्रदायिक मोड़ देने में कामयाब है.

(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं और 'बहनजी: ए पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती' के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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