वरुण फिरोज गांधी (Varun Firoz Gandhi) को आगामी लोकसभा चुनावों (Lok Sabha Election) के लिए पार्टी की ओर से टिकट देने से इनकार करना 44 साल पहले 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में विजयी वापसी के तुरंत बाद हुए उनके जन्म से अंतहीन उतार-चढ़ाव को उजागर करता है.
इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस संजय गांधी के पुत्र के तौर पर उनके सितारे वाकई में बहुत उज्ज्वल थे लेकिन उनके जन्म के तीन महीनों के भीतर वरुण की दुनिया ढहने लगी. दरअसल, वरुण के जन्म के तीन महीने बाद ही उनके पिता संजय गांधी का विमान दुर्घटना में निधन हो गया.
दो साल बाद हालात और खराब हो गए, जब उनकी दादी ने उनकी विधवा मां मेनका गांधी को उनके नए राजनीतिक उत्तराधिकारी बड़े बेटे राजीव गांधी के चुनाव लड़ने के लिए निर्वासित कर दिया. वरुण को मेनका से छीनने के प्रयास तो नाकामयाब रहे लेकिन इस बीच मेनका गांधी ने गांधी परिवार छोड़ दिया.
एक घबराया हुआ दो साल का बच्चा अपनी मां का हाथ पकड़कर देश भर के अखबारों के पहले पन्नों पर बैनर की सुर्खियों और तस्वीरों से सबका ध्यान खींच रहा था. इसके दो साल बाद इंदिरा गांधी की हत्या सिख सुरक्षा गार्डों ने स्वर्ण मंदिर में सैन्य अभियान के बदले के तौर पर कर दी थी.
वरुण की जिंदगी में लगातार होते उतार-चढ़ाव
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी की नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने अभूतपूर्व रिकॉर्ड जीत दर्ज की. यहां पर वरुण और मेनका की किस्मत और खराब होते दिखाई दिए.
इस चुनाव में मेनका गांधी ने अपने पति के पुराने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से अपने राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा. लेकिन मेनका गांधी को 270,000 से अधिक मतों से हार मिली. मेनका के राजनीतिक गुमनामी के कगार पर खड़े होने की वजह से वरुण की भविष्य की राजनीतिक संभावनाएं भी धुंधली लग रही थीं.
हालांकि, 1980 के दशक के अंत में राजीव गांधी का कार्यकाल खत्म होने के साथ ही वरुण के जिंदगी के उतार- चढ़ाव का ग्राफ फिर से ऊपर जाने लगा. बोफोर्स घोटाले से कलंकित और वीपी सिंह और अरुण नेहरू जैसे प्रमुख सहयोगियों द्वारा छोड़े गए, राजीव गांधी ने 1989 के राष्ट्रीय चुनावों में जनता दल के नेतृत्व में गठबंधन दलों के एक प्रेरक समूह की वजह से सत्ता गंवा दी. इस दौरान मेनका पीलीभीत लोकसभा क्षेत्र से जनता दल के टिकट से जीत गईं. राजीव का सत्ता खोना और पीलीभीत से जीतना मेनका की खुशी की दो वजहें थीं.
हालांकि, जनता दल सरकार गिरने के बाद हुए मध्यावधि चुनावों में वह पीलीभीत सीट पर बीजेपी से हार गईं. लेकिन अपने बेटे वरुण गांधी को ये सीट सौंपने से पहले वह 4 बार इस सीट से जीत चुकी हैं.
गांधी परिवार से जुड़े वरुण गांधी अपने परिवार में सबसे कम उम्र में राजनीति में आने वाले नेता बने. 2004 में वरुण अपनी मां के साथ बीजेपी में शामिल हुए. साल 2009 में जब वह पहली बार चुनाव लड़े तो संसद में बड़े अंतर से जीत कर पहुंचे.
ये जीत का अंतर उनकी चाची सोनिया और चचेरे भाई राहुल और यहां तक कि उनकी अपनी मां से भी अधिक यानी 420,000 वोट अधिक थे. दिलचस्प बात यह है कि अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से उनकी जीत का अंतर 1984 में राजीव गांधी और मेनका गांंधी के बीच के अंतर यानी 10,000 वोट से अधिक था.
बीजेपी में वरुण का राजनीतिक कद तेजी से बढ़ा और लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह सहित कई वरिष्ठ नेताओं को लगा कि गांधी परिवार पर यह एक बड़ी राजनीतिक पकड़ है.
वास्तव में, 2013 में उन्हें बीजेपी का सबसे कम उम्र का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया था, जिससे उनकी आकांक्षाओं को और भी आगे बढ़ाया जा सके. उन्होंने पहले ही अपने निर्वाचन क्षेत्र में युवा कार्यकर्ताओं को आकर्षित करने और धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी अपना प्रभाव बढ़ाने में अपनी छाप छोड़ी थी.
आज के बीजेपी में उनका कोई भविष्य नहीं
लेकिन इस उभरते राजनीतिक सितारे के लिए दुर्भाग्य से 2014 में मोदी-शाह की जोड़ी ने वरुण गांधी को उस पायदान से नीचे गिरा दिया, जहां पर बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें पहुंचाया था.
साफ तौर पर वरुण का राजनीतिक महत्व प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष की नजर में कुछ नहीं था. इसी अध्यक्ष ने अभी-अभी चुनावी रूप से गांधी परिवार को ध्वस्त कर दिया था और उन्हें तेजी से एक तेजतर्रार नेता के तौर पर उभर रहे थे. जिनके पास एक ऐसी पार्टी में भरोसा करने के लिए बहुत सारे स्वतंत्र विचार थे जहां सर्वोच्च नेता में आपका अंध विश्वास ही सफलता की कसौटी थी.
2017 के राज्य विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के उदय के साथ वरुण गांधी की मुश्किलें और बढ़ गईं, योगी के चुने जाने के बाद अन्य दावेदारों के लिए राजनीतिक रसूख की शायद ही कोई गुंजाइश बची थी.
वरुण अपनी पहली जीत के बाद लगातार दो संसदीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं, लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थित रूप से हाशिए पर डाल दिया गया है.
अपने बदलते सितारों के साथ वह राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए कभी-कभी हिंदुत्व की नफरत को लेकर बयानबाजी करते हैं, लेकिन अक्सर रोजी-रोटी के गंभीर मुद्दों का पर बोलते हैं.
वरुण भले ही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की कई मौके पर इज्जत करते हैं लेकिन इसके साथ ही प्रदर्शनकारी किसानों की ओर से अपनी आवाज उठाते हैं और निजी तौर पर विपक्ष के संपर्क में रहते हैं. उनके चचेरे भाई राहुल गांधी और चाची सोनिया भी शामिल हैं, भले ही वह बीजेपी से नाता तोड़ने से इनकार करते रहे हैं.
दुर्भाग्य से, यह जानने के बावजूद कि वर्तमान नेतृत्व के तहत बीजेपी में उनका कोई भविष्य नहीं बचा है, इसके बावजूद वैकल्पिक राजनीतिक करियर बनाने के लिए वरुण के पास विकल्प सीमित हैं. कांग्रेस और न ही समाजवादी पार्टी के पास उन्हें देने के लिए बहुत अच्छा पद नहीं है और न ही वे इसकी ओर झुकाव दिखाते हैं और बाद की बहुत अस्थायी चुनावी संभावनाओं को देखते हुए विपक्ष के दोस्ताना इशारों से उन्हें लुभाया नहीं गया है.
(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं और 'बहनजी: अ पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती' के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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