(नरेंद्र मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने पर, यह लेख मोदी सरकार की विफलताओं पर एक नजरिया प्रस्तुत कर रहा है. आप यहां "काउंटरव्यू" पढ़ सकते हैं.)
चलिए कुछ साल पीछे चलते हैं, सेंट्रल हॉल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता के रूप में चुने जाने के बाद, मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने से कुछ दिन पहले जब नरेंद्र मोदी ने पहली बार संसद में कदम रखा था, तब उन्होंने इस संस्था को "लोकतंत्र का मंदिर" बताया था.
यहां तक कि वे लोग भी चुप रहे जो लोकलुभावन शब्दों से चिढ़ते थे. मोदी के सबको साथ लेकर न चलने वाले ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद भारत के एक महत्वपूर्ण वर्ग ने यह निष्कर्ष निकाला था कि मोदी को एक मौका दिया जाना चाहिए, खास तौर पर तब जब उनकी छवि हिंदू हृदय सम्राट से विकास पुरुष के रूप में बदल दी गई थी.
उनके 'लोकतंत्र के मंदिर' वाली टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने का बड़ा कारण इसका सांकेतिक इस्तेमाल था. आखिरकार, एक मंदिर एक पवित्र जगह है जिसे अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए, यदि संसद को कल्पित रूप से पूजा का स्थान कहा जा रहा था, तो ऐसा ही सही.
हाल ही में सेंगोल को राजनीतिक चर्चा में दोबारा लाया गया
तेजी आगे बढ़ते हैं और वहां पहुंचते हैं जब मोदी द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन एक बहुत बड़ा विवाद का मुद्दा बन गया. इस विवाद के दौरान संविधान के अनुच्छेद 79 का उल्लंघन और राज्य की शाखाओं के बीच शक्तियों का पृथक्करण के साथ अन्य मुद्दे पर बात हो रही थी, लेकिन अचानक इन मुद्दों के साथ एक नयी वस्तु जोड़ दी गई, जिस पर हैरतअंगेज तरीके से बहस होने लगती है. वह वस्तु सेंगोल है, जिसे शायद गूगल भी भूल गया था.
लेकिन हमेशा की तरह, इसके लिए पिछली सरकारों (विशेष रूप से जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली पहली सरकार) पर ब्रिटिश शासन से एक संप्रभु राष्ट्र को सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक चिन्ह को हटाने का दोष मढ़ दिया गया, पहली सरकार चुने गए नेताओं की सरकार की थी, उन नेताओं को शुरुआत में एक निर्वाचक मंडल द्वारा चुना गया था, लेकिन आगे चलकर सार्वभौमिक रूप ये पहले आम चुनाव के बाद चुने गए.
देश की राजनीतिक चर्चा में सेंगोल की वापसी होती है और इस वस्तु के लिए विधायिका के गढ़ या लोकसभा के अंदर बनाई जा रही जगह बेहद समस्यात्मक है. यह पिछले नौ सालों में देश के परिवर्तन का भी लक्षण है, जहां कार्य की अत्यंत कठिन प्रकृति के बावजूद, विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव बनाने के प्रयासों को कभी नहीं छोड़ा गया. जहां संदेह, नापसंदगी और अविश्वास को न केवल 'सामान्य' माना जाता है, बल्कि शासन के भीतर निहित तत्वों द्वारा इसे हवा दी जाती है.
सेंगोल ने एक चोल सम्राट से दूसरे चोल सम्राट को सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित किया. उच्च ब्राह्मणवादी पुजारियों द्वारा इस प्रक्रिया को अनुष्ठानिक रूप से पूरा कराया गया. यदि धार्मिक अनुष्ठान की यह छाप किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की मर्यादा को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं थी, तो सेंगोल पर लिखा संदेश सारे संदेहों को दूर कर देता है. उसमें लिखा है कि "यह हमारा आदेश है कि भगवान के अनुयायी (राजा) स्वर्ग में शासन करेंगे."
भारत की आजादी के 75वें वर्ष में, सत्ता में बने रहने वाले राजशाही के प्रतीक को प्रमुख स्थान देना (वह भी धर्म के साथ प्रमुखता देना), लाक्षणिक "लोकतंत्र के मंदिर" के रूपांतरण को एक ऐसे रूप में चिह्नित करता है जो वस्तुतः और वाकई में एक मंदिर है.
आधिकारिक समारोहों में एक ही धर्म के अनुष्ठान
यह काफी स्पष्ट है कि सरकार ने अपने रिपब्लिकन स्वभाव में बदलाव को रेखांकित करने के लिए इस ऐतिहासिक क्षण (अगले साल के संसदीय चुनावों से पहले सरकार की आखिरी वर्षगांठ) को चुना है. जैसे ही पीएम नरेंद्र मोदी विपक्ष के सपोर्ट के बिना और उसकी गैर-मौजूदगी में नए संसद भवन का प्रभावी ढंग से उद्घाटन करते हैं, वैसे ही इस नए भवन के लिए दिसंबर 2020 में हुए भूमि पूजन की यादें ताजा हो गईं.
एक ऐसे देश में जहां आधिकारिक समारोहों में अक्सर कई धर्मों के अनुष्ठान कराए जाने का प्रचलन था, वहां नई परियोजनाओं के लिए मोदी द्वारा भगवान का आशीर्वाद लेने के लिए व्यक्तिगत रूप से हिंदू अनुष्ठान किए गए. उस समय, यह साफ हो गया था कि कार्यपालिका और विधायिका के साथ-साथ धर्म और राज्य के बीच जो लाइन थी वह धुंधली होने लगी थी.
यह और भी झकझोर देने वाला था क्योंकि 10 दिसंबर 2020 को नए संसद भवन का जो भूमिपूजन कार्यक्रम था, उससे 4 महीने पहले अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन हुआ था. यह सब इसलिए बेचैन करने वाला था, क्योंकि 5 अगस्त 2020 (राम मंदिर भूमिपूजन) में लॉकडाउन के खराब दौर और कोविड महामारी के दौरान प्रबंधन की जो अक्षमता उजागर हुई थीं, उनकी यादें तब भी ताजी थीं.
मई 2014 में मोदी को मिले पहले जनादेश के अंत में बड़ा सवाल यह था कि क्या उन्होंने वाकई में खुद को पूरी तरह से बदल लिया है और हिंदुत्व के मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालते हुए विकास के मुद्दों को प्राथमिकता देंगे. आखिरकार, वे वादों को लेकर काफी उदार थे, लेकिन ध्रुवीकरण के प्रहारों के साथ कंजूस थे.
हालांकि, सरकार के गठन के महीनों के भीतर अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थानों, विशेष रूप से चर्चों पर मौखिक और शारीरिक हमलों ने 1998-99 में पिछले हमलों की यादें ताजा कर दीं, जिसमें ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी, ग्राहम स्टेंस की क्रूर हत्या शामिल थी. स्थिति इतनी विकट प्रतीत हुई थी कि, भारत की राजकीय यात्रा के दौरान, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रधान मंत्री मोदी को यह याद दिलाया था कि धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करना क्यों जरूरी है.
यह दूसरा ऐसा मौका था जब शासन करते समय उन्हें (मोदी को) मूल कर्तव्यों की याद दिलानी पड़ी, पहला मामला 2002 का है, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने मार्च 2002 में कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि मोदी राजधर्म का पालन करेंगे.
हिंदुत्व एजेंडे का बेरोकटोक तरीके से विस्तार
हालांकि अल्पसंख्यकों पर हमले आम हो गए हैं, लेकिन इस तथ्य के बावजूद भी मोदी लगातार यह कहते रहे हैं कि उनकी कल्याणकारी योजनाएं भेदभावपूर्ण नहीं हैं. इसके अलावा पहले कार्यकाल के अंत में, हिंदुत्व कैंपेन को बड़े पैमाने पर या नए क्षेत्रों और मुद्दों तक विस्तृत नहीं किया गया था, क्योंकि उस समय मोदी कुछ चुनावी बाधाओं पर काबू पाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे.
पार्टी की चुनावी कठिनाइयां या बधाएं दिसंबर 2017 में तब स्पष्ट हो गईं जब बीजेपी ने दशकों में पहली बार 100 से कम सीटें हासिल करते हुए गुजरात में मुश्किल से फिनिश लाइन को छुआ. 2018 के अंत और 2019 की शुरुआत में, यह स्पष्ट था कि मोदी एक विनिंग कैपेंन तैयार करने के लिए संघर्षरत थे. लेकिन उसके बाद, पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद की जवाबी कार्रवाई बालाकोट स्ट्राइक (जिसे भारत सरकार द्वारा अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था) ने चुनाव प्रचार की प्रकृति को बदल दिया और प्रधान मंत्री पहले की तुलना में ज्यादा सीटों पर कब्जा करते हुए अपने सदस्यों के साथ सदन में लौटे.
2019 में जीत के बाद से चार वर्षों में इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से लेकर कानून और संस्थानों के नियंत्रण तक हिंदुत्व के एजेंडे का बेरोकटोक विस्तार हुआ है. चाहे वह प्रत्यक्ष माध्यमों से हो - जैसे कि विधायिका के क्षेत्र में कार्यपालिका की घुसपैठ और यहां तक कि बेरोकटोक विजिलेंट कार्रवाई के संबंध में, या अप्रत्यक्ष माध्यमों से हो- जैसे कि न्यायपालिका के वर्गों (चाहे वह कोई खास जज हो या निचले स्तर पर जहां संस्थानों को अधिक आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है) को प्रभावित करना.
कानून का भी इस तरह से इस्तेमाल किया गया है कि आरोपी जिस प्रक्रिया से गुजर रहा है, असल में वह प्रक्रिया ही सजा बन रही है. एक्टिविस्टों से लेकर शिक्षाविदों और पत्रकारों तक किसी को भी बख्शा नहीं गया है. ऐसे माहौल में जहां असहमति को देशद्रोह के रूप में देखा जाता है, वहां जांच एजेंसियों का उपयोग आलोचकों को परेशान करने के लिए किया जाता है.
मोदी के फिर से चुने जाने के लगभग तुरंत बाद, हिंदुत्व की राजनीति के अनुकूल नीतियों का अनुसरण शुरु हुआ. यूएपीए अधिनियम (UAPA Act) जो कि पहले से ही काफी कठोर था, उसमें एक संशोधन करके और ज्यादा सख्त बना दिया गया. इसके बाद तेजी से तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे कानून पारित किए गए. भले ही महामारी की शुरुआत को गलत तरीके से संभाला गया था, लेकिन इसके बाद अभी और भी बहुत कुछ आना बाकी था.
नफरत और अविश्वास का अंत नहीं है
मोदी 2.0 का फोकस केवल अल्पसंख्यक विरोधी गतिविधियों पर नहीं रहा है बल्कि देश के गणतंत्रात्मक स्वभाव और संघीय चरित्र के साथ-साथ लोकतांत्रिक भावना को व्यवस्थित रूप से खोखला कर दिया गया है. यहां पर 'एक की शक्ति' का नारा बुलंद है और यह नारा खुद को कई तरीकों से प्रकट करता है, यहां तक कि पार्टी कार्यकर्ताओं को भी नहीं बख्शा गया है. और विदेश दौरे से लौट रहे मोदी की अगवानी के लिए हवाईअड्डे पर एक अप्रत्याशित समय पर इकट्ठा होना पड़ा.
महामारी के मद्देनजर मुफ्त राशन वितरण की तरफ सरकार की कल्याणकारी नीतियों में कुछ एडिशन्स किए गए है. लेकिन ऐसी नीतियों के अभाव में जो लोगों के जीवन और राजकोषीय संकट को बदल सकती हैं, इस पर कमी करनी पड़ी. वहीं इसके दूसरी ओर, नफरत और अविश्वास की राजनीति भरपूर मात्रा में उपलब्ध है, इसका अंत नहीं दिख रहा है और 2024 में इसका और फायदा होने की संभावना है. इसको लेकर मोदी द्वारा पहले ही एक शुरुआत की जा चुकी है, उन्होंने बजरंग दल की तुलना भगवान हनुमान या बजरंग बली से की है.
दिसंबर 2021 में काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उद्घाटन से 2022 में उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान जो चुनावी लाभ मिला था उसी फायदे (यूपी चुनाव में अन्य कारकों के अलावा, काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के मुद्दे ने बीजेपी की जीत में काफी योगदान निभाया था) को ध्यान में रखते हुए 2024 चुनाव अभियान से पहले राम मंदिर के उद्घाटन समाराेह का प्लान किया गया है.
बीजेपी को लेकर यह बात स्पष्ट है कि अगर हिंदुत्व कार्ड चलता है, तो यह पार्टी चुनावी लाभ हासिल करने के लिए इसका इस्तेमाल करने की कोशिश करती रहेगी. हिंदुत्व और विशाल प्रचार तंत्र खड़ा करने के अलावा, मोदी के दूसरे कार्यकाल में अन्य सभी मुद्दे गौण हो गए हैं.
(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उनकी लेटेस्ट किताब का नाम 'द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया' है. उन्होंने ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)