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क्या सिर्फ ‘मोदी फैक्टर’ के सहारे ममता से बंगाल जीत सकती है BJP?  

शुरुआती सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ममता बनर्जी तीसरी बार भी बंगाल की मुख्यमंत्री बनेंगी.

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बंगाल में चुनाव का बिगुल बज चुका है और मुख्य दावेदारों पर गर्मागर्म बहस छिड़ी है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और बीजेपी, दोनों का भविष्य दांव पर लगा है. इस बीच ममता बनर्जी की टीएमसी 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के प्रदर्शन के बाद उसे हल्के में लेने की भूल नहीं कर रही.

टीएमसी ने नारा दिया है- खैला होबे (खेल शुरू हो चुका है) जोकि वायरल हो गया है और राज्य में युवाओं की नब्ज पकड़ रहा है.

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अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस पर एक कार्यक्रम के दौरान ममता बनर्जी ने कहा था, “हम सभी चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं. 2021 में एक खेल खेला जाएगा. मैं उसकी गोलकीपर हूं. देखते हैं कि कौन जीतता है.”

टीएमसी के ‘खैला होबे’ के नारे के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल की ब्रिगेड परेड रैली में कहा था कि टीएमसी के लिए ‘खेल खत्म हो चुका है.’ “... वे लोग कहते रहते हैं, कि इस बार खैला होबे. सचमुच, ये लोग अनुभव वाले हैं और खेल खेलना जानते हैं. आपने कौन सा खेल छोड़ा है? अब सुनिए कि सब तरफ क्या नारा गूंज रहा है, टीएमसी का खेल शेष. खेल खत्म!”

शुरुआती सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ममता बनर्जी तीसरी बार भी बंगाल की मुख्यमंत्री बनेंगी. हालांकि हमने देखा है कि शुरुआती सर्वेक्षण सरकार के पक्ष में होते हैं और वास्तविक गिनती कुछ और ही कहानी कहती है. मतलब सरकार के पक्ष में उतने वोट नहीं पड़ते. महाराष्ट्र, हरियाणा और बिहार में भाजपा को ऐसे ही अनुभव हुए हैं.

वैसे ममता मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार हैं. वोटर्स की पसंदीदा. वह दिलीप घोष, मुकुल रॉय और सुवेंदु अधिकारी, इन तीनों के कंबाइन से भी 20 परसेंट प्वाइंट आगे हैं.

सामान्य तौर पर जिस पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा दौड़ में अव्वल आता है, वही चुनाव जीतती है.

हालांकि जिन राज्यों में विपक्ष ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया, वहां इस गणित ने काम नहीं किया. शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह, दोनों अपने अपने राज्यों में बहुत लोकप्रिय थे, और कांग्रेस ने अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया था. दोनों जगहों पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा.

मोदी फैक्टर ने बीजेपी को एक से दूसरे राज्य में जीत दिलाई है.

2014 से 2019 के बीच हिंदू दक्षिणपंथी पार्टी ने नौ राज्यों को विपक्ष से छीना. लेकिन उसने सिर्फ दो राज्यों असम और हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा की थी. उत्तर प्रदेश में उसे जबरदस्त जीत हासिल हुई, पर वहां कोई मुख्यमंत्री चेहरा नहीं था, पर हिमाचल प्रदेश में तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार को ही चुनावी शिकस्त का सामना करना पड़ा.

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लेकिन, जब-जब मोदी का मुकाबला किसी मजबूत प्रतिद्वंद्वी/लोकप्रिय मुख्यमंत्री से हुआ है, तब-तब बीजेपी को चुनाव रण में मात खानी पड़ी है. चाहे बिहार (2015) हो, दिल्ली (2020) या फिर ओड़िशा (2019). इन सभी राज्यों में मुख्यमंत्री की लोकप्रियता प्रधानमंत्री से ज्यादा थी. बंगाल में ममता भी रेटिंग्स के लिहाज से मोदी से कुछ आगे हैं.

बंगाल में हिंदू जागरण

यूं दस साल में हवा किसी के भी खिलाफ हो सकती है. जनता समझदार और निष्ठुर हो चुकी है. 2014 से उसने 75 प्रतिशत राज्य सरकारों को उखाड़ फेंका है. अगर सही प्रदर्शन नहीं किया तो जनता बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करती. इस सच्चाई से टीएमसी और उसके समर्थकों को घबराना चाहिए.

अब हवा के इस बदलते रुख को कुछ थामने के लिए टीएमसी को नए चेहरों को आगे लाना चाहिए और मौजूदा विधायकों को टिकट देने से बचना चाहिए. टीएमसी इस बात से सबक ले भी रही है. उसने 64 मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं दिया है जोकि उसके कुल विधायकों का करीब करीब 30 प्रतिशत है.

बीजेपी ने इस पैंतरे के खिलाफ नई चाल चली है. उसने ‘डबल इंजन की सरकार’ का नारा दिया है. सच्चाई तो यह है कि पिछले 50 सालों से बंगाल की राज्य सरकार का केंद्र सरकार से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. इसी वजह से राज्य में वृद्धि दर निम्न है. विकास और औद्योगीकरण कम हुआ है और पिछड़ापन कायम है.

हिंदुओं को महसूस हो रहा है कि बंगाल में बीजेपी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभर रही है. 2019 के चुनावों में लेफ्ट फ्रंट का अस्तित्व ही खतरे में आ गया. येल की एक स्टडी से पता चला है कि ध्रुवीकरण से बीजेपी को फायदा पहुंचा है. उसने ‘अवैध प्रवासियों को उखाड़ फेंकने’ का वादा किया जिससे लोग उसकी तरफ खिंचते चले गए.

टीएमसी ने ‘बंगाली गौरव’ को जगाया और बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए ‘भीतरी बनाम बाहरी’ का अभियान चलाया.

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इस मुद्दे को लोगों ने हाथों हाथ लिया तो बीजेपी ज्यादा से ज्यादा लोकल होने की कोशिश कर रही है. उसने बंगाल के लोगों को याद दिलाया है कि बीजेपी, जिस जनसंघ से निकली है, उसकी स्थापना श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी और वह बंगाल के ही थे. इसलिए बंगाल से उसका रिश्ता टीएमसी से भी पहले से है. 
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पर ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी बीजेपी पर भारी पड़ सकती है

बिहार में एनडीए को महिला वोटर्स ने ही बचाया था. इस बार ममता बनर्जी की नैया की खेवैय्या भी वही हो सकती हैं. पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ममता की ज्यादा बड़ी हिमायती हैं. बंगाल के चुनावों में वे पुरुषों से ज्यादा बड़ी संख्या में वोट भी देती हैं.

राज्य की महिलाओं के बीच ‘कन्याश्री’, ‘रूपाश्री’ और ‘सबुज साथी’ जैसी योजनाएं काफी लोकप्रिय हैं. विधानसभा चुनावों में टीएमसी ने 50 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है. ‘बंगाल की अपनी बेटी’ कैंपेन ने बंगाल की महिलाओं को काफी हद तक छुआ भी है.

सी-वोटर सर्वेक्षण में बीजेपी आगे चल रही है और इससे राज्य के उन 12-15 प्रतिशत मतदाताओं के वोटिंग के फैसले पर असर हो सकता है, जिनका दिमाग डांवाडोल है. जिन्होंने तय नहीं किया है किसे वोट देना है. टीएमसी को इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए.

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बंगाल में कीमतों में बढ़ोतरी एक संवेदनशील विषय है और हाल ही में ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी बीजेपी पर भारी पड़ सकती है. टीएमसी इस प्रसंग पर ऐड़ी चोटी का जोर लगा रही है. ममता एलपीजी सिलेंडर की कीमत में बढ़ोतरी के खिलाफ ई-बाइक रैली निकाल चुकी हैं, जिसमें उनके साथ सिर्फ महिलाएं शामिल हुई थीं.

टीएमसी जहां ममता को गरीब गुरबा और दबे कुचले लोगों का मसीहा बता रही है, वहीं बीजेपी ने उन पर आरोप लगाया है कि वह राज्य के गरीबों को केंद्र सरकार की योजनाओं के लाभ से वंचित कर रही हैं. यह बात और है कि राज्य सरकार ने पीएम किसान निधि योजना को हाल ही लागू किया है.

बंगाल के चुनाव- बीजेपी को उम्मीद है कि अल्पसंख्यक वोट बंट जाएंगे

महाजोत में इंडियन सेक्यूलर फ्रंट (आईएसएफ) के आने से मुसलिम वोटों के लिए संघर्ष गहरा गया है. एआईएमआईएम भी कुछ सीटों पर लड़ रही है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे अल्पसंख्यक वोट बंट जाएंगे और उसे इसका फायदा होगा. दूसरी तरफ टीएमसी को लगता है कि लेफ्ट फ्रंट ने जो वोट शेयर गंवा दिया था, वह उसे कुछ हद तक वापस मिल जाएगा और इसका नुकसान भाजपा को होगा.

टीएमसी को यह भी उम्मीद है कि मटुआ लोगों का एक तबका, जो 40-50 सीटों को प्रभावित कर सकता है, बीजेपी से मुंह मोड़ लेगा, क्योंकि वह सीएए को लागू करने में बहुत समय बर्बाद कर रही है.

दूसरी तरफ बीजेपी-टीएमसी को भ्रष्ट बता रही है. उस पर वंशवादी राजनीति करने और अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करने का इल्जाम लगा रही है. ऐसे ही आरोपों के साथ उसने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को हाशिए पर धकेला है.
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टीएमसी को लगता है कि जब नंदीग्राम में ममता सुवेंदु को चुनौती देंगी तो वह राज्य के दूसरे इलाकों में प्रचार नहीं कर पाएंगे. इससे बीजेपी में उनके कूच करने से ज्यादा नुकसान नहीं होगा.

बंगाल के चुनावी चक्रव्यूह की संरचनाएं लगातार बदल रही हैं. इसीलिए यह आने वाला समय ही बताएगा कि टीएमसी के लिए क्या होगा- ‘खैला होबे’ या ‘खेला शेष’.

(लेखक एक स्वतंत्र राजनैतिक टिप्पणीकार हैं और @politicalbaaba पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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