संदेशखाली (Sandeshkhali protest) कभी पश्चिम बंगाल का एक शांत गांव हुआ करता था. अब वहां आग धधक रही है, लेकिन ममता बनर्जी के अपने सपने राख हो रहे हैं. जो महिलाएं कल तक उन पर सबसे ज्यादा भरोसा करती थीं, आज उन्हीं की विरोधी बन गई हैं. दीदी से उनका भरोसा उठ चुका है. इसकी वजह पार्टी के भीतर कथित अत्याचार है.
यह सिर्फ एक राजनीतिक नरक नहीं है; यह एक बड़ा व्यक्तिगत विश्वासघात है.
इन लपटों ने ममता की पहचान को ही खाक कर दिया है, वह पहचान जो उन्हें दलितों का मसीहा बनाती थी. जो महिलाएं दीदी की कट्टर समर्थक थीं, अब उनके विरोध में खड़ी हैं. उनकी आवाज नंदीग्राम की चीखों की मानिंद है, जो ममता को अतीत की याद दिला रही हैं. इन महिलाओं की पुकार हर तरफ महसूस की जा रही है. विपक्ष ने इसी को अपना हथियार बनाया है, जिससे ममता के आधार को चकनाचूर किया जा सके.
इस विरोध को शांत करने के लिए सिर्फ घोषणाओं से काम नहीं चलता.
इस आग को बुझाने के लिए पारदर्शिता, तेजी और सहानुभूति की जरूरत है. ममता सिर्फ इन्हीं का इस्तेमाल कर सकती हैं. पारदर्शी जांच, वह भी सचमुच की चिंता के साथ- अपने मतदाताओं के भरोसे को फिर से जीतने का एकमात्र तरीका है.
इन महिलाओं की चीख-पुकार को नजरअंदाज करना ममता के लिए राजनीतिक आत्महत्या होगी, लेकिन अगर उनकी सुध ली जाती है तो यह हिंदुओं को नागवार गुजर सकता है. हिंदू आबादी भी ममता की बड़ी समर्थक और एक मजबूत स्तंभ है. यह कोई कम बड़ा जोखिम नहीं. सो, डगर बहुत मुश्किल है, इसके लिए सियासी कौशल और सच्ची सहानुभति के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है.
क्या ममता इस चुनौती का सामना कर पाएंगी? क्या वह विश्वासघात की राख से भरोसा जुटाने का काम कर सकती हैं? या क्या उनका गढ़ ढह जाएगा, उस आग से भस्म हो जाएगा, जिसे उन्हें बुझाना ही होगा? इसका जवाब न सिर्फ टीएमसी की किस्मत, बल्कि पश्चिम बंगाल के भविष्य में छिपा हुआ है.
संदेशखाली एक चौराहा है, सच्चाई का एक क्षण है. क्या ममता उस अमरपक्षी की तरह, मजबूत और अधिक दृढ़ बनकर उभरेंगी? या क्या वह धुएं में विलीन हो जाएंगी, आग की लपटों का शिकार हो जाएंगी, जिसे बुझाने में वह नाकाम रहीं? यह तो सिर्फ समय बताएगा.
लेकिन एक बात निश्चित है: संदेशखाली के अंगारे भड़कते रहेंगे, जो विश्वास की कमी और विरोध की ताकत का एहसास कराते रहेंगे.
संदेशखाली का एक परिचय
पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले का एक गांव संदेशखाली राजनीतिक भूचाल का केंद्र बन गया है, जहां एक प्रमुख स्थानीय TMC नेता के खिलाफ यौन शोषण के आरोपों के कारण जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं.
यह उथल-पुथल तब शुरू हुई, जब 5 जनवरी को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने करोड़ों रुपए के राशन वितरण घोटाले में फंसे टीएमसी के कद्दावार नेता शेख शाहजहां के घर पर छापेमारी की.
शाहजहां के सहयोगियों ने कथित तौर पर ईडी के छापे में रुकावट पैदा की और सरकारी अधिकारियों पर हमला किया. इससे तनाव बढ़ गया, इसके बाद समुदाय की कई महिलाओं ने शाहजहां और उसके साथियों पर आरोप लगाया कि उसने झींगा पालन की जमीन पर जबरन कब्जा किया और सालों तक उनका यौन शोषण किया.
उन्होंने जो तकलीफदेह बयान दिए, उससे पता चला कि टीएमसी के दूसरे नेता, जैसे उत्तम सरदार और शिबाप्रसाद हाजरा भी इस गोरखधंधे में फंसे हैं.
इसके बाद महिलाएं बांस की लाठियां और झाड़ू लेकर सड़कों पर उतर आईं और आरोपियों की तत्काल गिरफ्तारी की मांग करने लगीं. हालात तब बेकाबू हो गए, जब प्रदर्शनकारियों ने कथित तौर पर हाजरा के पोल्ट्री फार्मों को जला दिया.
विपक्षी दलों ने इस मौके पर इंसाफ की मांग की और टीएमसी पर आरोप लगाया कि वह राजनीतिक लाभ के लिए अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रही है.
हालात संजीदा हैं, इस पर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने भी दखल दी. बढ़ते दबाव के बीच, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भरोसा जताया कि इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को परिणाम भुगतने होंगे क्योंकि पुलिस ने इस मामले से जुड़े लोगों को गिरफ्तार कर लिया है.
इसी के साथ, ममता ने आरोप लगाया कि ये विरोध प्रदर्शन बीजेपी और आरएसएस की साजिश हैं.
पुलिसिया कार्रवाई और महिला और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग के दौरे के बावजूद तनाव बरकरार है. कोलकाता हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए निषेधाज्ञा को रद्द कर दिया और आरोपों की गहन जांच की मांग की.
संदेशखाली देश के राजनैतिक परिदृश्य में इंसाफ और जवाबदेही के संघर्ष का गवाह हैं, जहां वंचित और हाशिए पर धकेले गए लोग अपनी इज्जत, अपनी गरिमा की मांग कर रहे हैं. साथ ही अपनी मुसीबतों का हल भी चाहते हैं.
ममता को चिंता क्यों करनी चाहिए?
पश्चिम बंगाल के अशांत राजनीतिक परिदृश्य में टीएमसी भय और अनिश्चितता की लहरों से जूझ रही है. जैसा कि सामान्य सोच है, इसका कारण यह नहीं कि वह विपक्ष के उभरने से आतंकित हैं बल्कि राज्य भर में महिलाओं में असंतोष पनप रहा है, और वह इससे ज्यादा परेशान हैं.
भले टीएमसी कह रही हो कि यह विरोध सुनियोजित है, लेकिन पार्टी खुद इन दावों की पुष्टि नहीं कर सकती. इससे ममता बैनर्जी का नेतृत्व अनिश्चित मोड़ पर है.
इंडिया गठबंधन से अलग होकर, बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने का ममता का फैसला, चुनावी खेल की जटिल प्रकृति की तरफ इशारा करता है. कांग्रेस, लेफ्ट और इंडिया सेक्यूलर फ्रंट के गठबंधन के साथ, मुस्लिम वोटों में बदलाव की पूरी उम्मीद है.
भ्रष्टाचार के व्यापक आरोपों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाली हिंसक घटनाओं ने टीएमसी से मोहभंग के बीज बोए हैं. इससे टीएमसी का परंपरागत आधार दरकने लगा है.
संदेशखाली में हो रहे विरोध प्रदर्शनों ने ममता की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. चुनावों में उनके दो मजबूत स्तंभ हैं, मुसलमान और महिला. ऐसा लगता है कि ये दोनों ही डांवाडोल हो सकते हैं.
अल्पसंख्यकों में असंतोष लंबे समय से उबाल रहा है, पर महिलाओं का बढ़ता मोहभंग ममता के लिए एक नई चुनौती है. महिलाएं पहले सुर्खियों से दूर रहा करती थीं, लेकिन अब उनमें चुनावी तराजू को झुकाने की बड़ी ताकत आ गई है.
टीएमसी की आशंका, जैसे बताती है कि ममता के लिए आगे का रास्ता काफी मुश्किल होने वाला है.
जैसे-जैसे असंतोष का साया मंडरा रहा है, ममता के लिए इम्तिहान की घड़ी नजदीक आ रही है. वह इम्तिहान जिसका सामना उन्होंने बंगाल में कभी नहीं किया.
बढ़ती चुनौतियों का सामना करते हुए ममता को अपनी रणनीति फिर से बनानी होगी. दोस्तों से रिश्ते मजबूत करने होंगे, शिकायतों को दूर करना होगा. ताकि उनका राजनैतिक किला जनता की नाराजगी से ढह न जाए.
महिलाएं पश्चिम बंगाल में इतनी अहम क्यों हैं?
दशकों तक पश्चिम बंगाल की महिलाएं लेफ्ट फ्रंट की बुनियाद थीं. फिर ममता बैनर्जी जैसी तेज तर्रार और मास अपील वाली महिला मंच पर उतरीं.
सिंगूर-नंदीग्राम विरोध प्रदर्शन के साथ वह महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण बनकर आईं. उनका करिश्माई व्यक्तित्व और महिलाओं के बीच लोकप्रियता ने 2011 में उन्हें सत्ता की बागडोर थमाई. बंगाल में लगभग 3.7 करोड़ महिला मतदाता और लगभग 3.8 करोड़ पुरुष मतदाता हैं.
ममता को पता था कि उनके हाथों पारस लग गया है. उसके असर को समझते हुए उन्होंने अमित मित्र जैसे अर्थशास्त्री के साथ मिलकर, एक ऐसा अनूठा आर्थिक मॉडल तैयार किया जिसके केंद्र में महिला कल्याण था.
"लक्ष्मी भंडार" जैसे प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण कार्यक्रम और लड़कियों की शिक्षा के लिए वित्तीय सहायता योजना "कन्याश्री" ने गहरी पैठ जमाई. ऐसे दूसरे कई कार्यक्रमों ने धर्म और जाति के परे जाकर लोगों को खुश किया. महिलाओं का वोट बैंक मजबूत हुआ लेकिन क्या ममता सिर्फ पिछली कामयाबी पर भरोसा कर सकती हैं?
संदेशखाली के हालिया विरोध ने बताया कि महिलाएं सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं से खुश होने वाली नहीं. उनके सच्चे सशक्तिकरण के लिए सुरक्षा और न्याय जैसे मामलों से भी निपटना होगा. चुनाव नजदीक हैं, ऐसे में क्या दीदी, अपनी "बंधुओं" का भरोसा बरकरार रख पाएंगी?
सिर्फ समय ही बताएगा कि इस तूफान के बीच उनका चुनावी मॉडल स्थिर खड़ा रहेगा, या उसमें कोई कतरब्यौंत की जरूरत है.
क्या संदेशखाली बन सकती है ममता की दुखती रग?
पश्चिम बंगाल में "सिंगूर" और "नंदीग्राम" की गूंज रही है और सवाल उठ रहे हैं: क्या संदेशखाली विरोध प्रदर्शन ममता बनर्जी सरकार के लिए निर्णायक मोड़ बन सकता है?
बेशक नंदीग्राम कोई एक हादसा नहीं था. संदेशखाली अकेला खड़ा है, जिसमें जमीनी आंदोलन बनने की ताकत नहीं है. हालांकि, शुरुआत में दोनों के बीच तुलना इसीलिए की गई क्योंकि टीएमसी ने इस स्थिति से सही तरीके से नहीं निपटा. ममता ने विपक्ष से दो-दो हाथ किए. सुधेंदु अधिकारी से लेकर फैक्ट चेकिंग टीम्स तक से. इससे लोगों में नाराजगी भड़की और विपक्ष के हाथों मौका लगा.
यह लाजमी था क्योंकि ममता ने आरोपी शेख शाहजहां का बचाव किया, और इससे महिलाएं उनसे छिटकने लगीं. वही उनकी बड़ी हिमायती हैं.
टीएमसी ने कहा कि विरोध प्रदर्शन बीजेपी और माकपा ने किया था. फिर विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं. इससे टीएमसी की इमेज खराब हुई और जनता में असंतोष बढ़ा.
इसके अलावा महिलाओं और मीडिया के खिलाफ आईटी सेल ने बदनामी भरे अभियान चलाए. आरोप लगाया गया कि यह विरोध "बाहरी लोग" कर रहे हैं. इससे भरोसा और टूटा. ऐसी रणनीतियां विफल हो रही हैं, और ऐसी बदइंतजामी की वजह से अब विपक्ष बंगाल में राष्ट्रपति शासन की मांग कर रहा है, और यहां तक कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग भी भारत के राष्ट्रपति से यह अनुरोध कर चुका है.
हालांकि, नंदीग्राम के साथ इन घटनाओं की तुलना करना जल्दबाजी होगी, संदेशखाली ममता के शासनकाल की कमजोरियों को उजागर करता है. असंतोष, साथ में गलत फैसले करना और जनता से अलगाव, विपक्ष के लिए उपजाऊ जमीन तैयार कर सकता है. क्या संदेशखाली एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होगा?
आने वाला वक्त इसका जवाब देगा लेकिन झटके तो लगेंगे. ममता की पहल ही साबित करेगी कि ये झटके जबरदस्त होंगे या हल्के-फुल्के. वैसे वक्त का तकाजा है कि ममता सहानुभूति दिखाएं. लोगों से संवाद करें और सहनशीलता बरतें. फिलहाल न तो वह ऐसा कर पा रही हैं, और न ही उनकी पार्टी.
[लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं और एक स्तंभकार हैं (वह @sayantan_gh पर ट्वीट करते हैं।) यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है।]
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