सबसे पहले तो मैं अपने उन अनुमानों का जिक्र कर दूं, जिनके आधार पर मैं मानता हूं कि मॉनिटरी पॉलिसी के आगे बढ़ने का सर्वश्रेष्ठ रास्ता यही है. पहला अनुमान तो ये है कि आगे के कुछ महीनों में महंगाई दर ऊपर चढ़ेगी, लेकिन इस वक्त मॉनिटरी पॉलिसी तय करने में गिरती विकास दर को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
दूसरा महंगाई का लक्ष्य निश्चित करने की व्यवस्था का संबंध महंगाई दर में तेज गिरावट से हो सकता है, लेकिन हमें ये बात मान लेनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत हमें मॉनिटरी मैनेजमेंट में सख्ती दिखाने की इजाजत नहीं देती. इसलिए, ये जरूरी है कि रिजर्व बैंक इसके ढांचे में मिल रही आजादी का पूरा फायदा उठाए.
ये तर्क भी दिया जा सकता है कि पॉलिसी रेट में चौथाई फीसदी की कमी से ग्रोथ की रफ्तार में तेज बढ़ोतरी नहीं होगी. ऊपरी तौर पर ये बात सच हो सकती है लेकिन मौजूदा हालातों में (जहां चालू वित्त वर्ष की सालाना ग्रोथ 6.5% से भी नीचे रह सकती है), अर्थव्यवस्था को हर छोटी से छोटी मदद की दरकार है. लेकिन इससे मदद कैसे होगी?
हम इस चीज को अक्सर भूल जाते हैं कि ब्याज दरों में कटौती जैसे कदम से कंज्यूमर और उद्योग-धंधों दोनों के सेंटिमेंट सुधरते हैं, और खर्च करने की उनकी आदत में फर्क दिखने लगता है. ग्रोथ के लिए यही चीज महत्वपूर्ण होती है.
जरूरी नहीं है कि ब्याज दर में कटौती का मकसद पूंजी की लागत और उससे मिलने वाले रिटर्न के बीच संबंध बनाना हो. अगर हम 2008 के आर्थिक संकट के बाद अमेरिका के तजुर्बे पर नजर डालें, तो इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि काफी कम ब्याज दरों का वातावरण लोगों और कंपनियों को अपनी बैलेंस शीट सुधारने में मदद करता है. इसलिए अगर हम मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था ‘बैलेंस शीट में मंदी’ का दर्द झेल रही है, तो कम ब्याज दरें इसके लिए रामबाण इलाज हैं.
यहां पर मैं अपनी एक और बात कहना चाहूंगा जिस पर कई अर्थशास्त्री और आरबीआई के भी विचार थोड़े अलग हैं. सरकार और आरबीआई की भूमिकाओं को लेकर पिछले करीब पांच सालों से एक अजीब सी धारणा बन गई है- कि ग्रोथ की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों की है, जबकि आरबीआई का काम महंगाई पर नियंत्रण रखना है. इसे दूर करने की जरूरत है.
आरबीआई विकास दर को प्रभावित करने की क्षमता रखता है और उसे इस पर गर्व करना चाहिए.
सच पूछा जाए तो, अगर ये विकास दर पर असर डालने की क्षमता नहीं रखता तो फिर, इसका असर महंगाई पर भी ना के बराबर ही होगा.
संक्षेप में, हमें अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए ऐसे राजकोषीय और मौद्रिक उपायों की जरूरत है जिनमें पूरा तालमेल हो. फिर से याद दिलाना चाहूंगा कि अमेरिका ने आर्थिक संकट की मंदी से निकलने के लिए क्या किया था.
जब सरकार की तरफ से कोई स्टिमुलस आए तो आरबीआई को महंगाई रोकने के लिए कड़े मॉनिटरी कदम उठाने होंगे, ये मानना एक जिद के अलावा कुछ नहीं है.
तो आरबीआई को क्या करना चाहिए?
साफ तौर पर आने वाले दिनों में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स की महंगाई दर बढ़ती हुई ही दिख रही है. लेकिन, इसका एक बड़ा हिस्सा बेस इफेक्ट की वजह से होगा, क्योंकि पिछले साल इस समय महंगाई दर नीचे आनी शुरू हो गई थी. अगर, आरबीआई आंकड़ों के इस प्रभाव को नजरअंदाज कर दे तो उसे थोड़ी छूट मिल सकती है. इसका मतलब होगा कि आरबीआई के लिए सुविधाजनक 4 फीसदी का स्तर टूटेगा, लेकिन आरबीआई के पास गुंजाइश है कि वो महंगाई दर को 6 फीसदी तक बढ़ने दे. और उसे इस गुंजाइश का पूरा फायदा उठाना चाहिए.
क्या ऐसा होने की संभावना है?
मुझे कम से कम अक्टूबर पॉलिसी में ऐसा होता नहीं दिखता. इसी बात की संभावना ज्यादा है कि आरबीआई ‘इंतजार करो और देखो’ की नीति पर चलेगा और महंगाई दर को 4 फीसदी पर रोकने का अपना राग दोहराएगा. इससे विकास दर की गेंद सरकार के पाले में चली जाएगी और आरबीआई राजकोषीय उपायों के खतरों से आगाह भी करेगा. मैं बस यही उम्मीद कर सकता हूं कि बाकी बचे साल में कभी ना कभी आरबीआई विकास दर पर थोड़ा नरम नजरिया रखने का समय निकाल सकेगा.
(अभीक बरुआ एचडीएफसी बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट और सीनियर वाइस प्रेसिडेंट हैं. इस लेख में छपे विचार उनके हैं और क्विंट ना तो उनका समर्थन करता है और ना ही जिम्मेदारी लेता है)
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