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संसद हमले की बरसी पर काशी कॉरिडोर का उद्घाटन, क्या सोच समझ कर तय की गई तारीख?

क्या काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर का उद्घाटन खरमास के बाद जनवरी में नहीं हो सकता था?

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका के सदस्यों सहित कई राज्य स्तंभों (स्टेट पिलर्स) की महत्वपूर्ण मदद से अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर एक राष्ट्रीय 'सहमति' हासिल की है.

लेकिन इस बड़ी उपलब्धि के बाद भी पीएम मोदी रुकने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में क्या अब वह एक राष्ट्रीय शोक दिवस (संसद हमले की बरसी) पर वाराणसी में अपनी प्रमुख योजना (काशी मंदिर को शहर के प्रसिद्ध गंगा घाटों से जोड़ने वाले 50 फुट चौड़े गलियारे) के उद्घाटन का समन्वय करके काशी विश्वनाथ मंदिर की हिंदुत्व प्रोजेक्ट के तौर पर एक समान 'सार्वभौमिक समझौता' करने का लक्ष्य बना रहे हैं?

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एक बड़ा नैतिक प्रश्न और राजनीतिक 'उपयुक्तता'

इस घोषणा के बाद कि पीएम मोदी 800 करोड़ रुपये की काशी विश्वनाथ धाम परियोजना का शुभारंभ करेंगे, जिसमें 13 दिसंबर को नदी के किनारे ललिता घाट को काशी विश्वनाथ मंदिर से जोड़ना शामिल है, यह सवाल उठाना जरूरी हो गया है.

यह दिन दिसंबर 2001 में संसद पर हुए आतंकवादी हमले की 20वीं वर्षगांठ का भी प्रतीक है, जिसमें कई सुरक्षाकर्मियों की जान चली गई थी. इस दिन को संसद भवन में एक शोक समारोह के रूप में चिह्नित किया जाता है, जिसके दौरान मृतकों को श्रद्धांजलि दी जाती है. कार्यक्रम में प्रधान मंत्री, दोनों सदनों के अध्यक्ष और सभी पार्टियों के प्रमुख नेता एकत्रित होते हैं और उन लोगों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने भारत के लोकतंत्र गढ़ की रक्षा करते हुए अपनी जान गंवा दी थी.

हालांकि, 13 दिसंबर को शासन जिस कार्यक्रम को एक बड़ी 'उपलब्धि' और 'हर्षपूर्ण मील का पत्थर' के रूप में प्रस्तुत कर रहा है उसमें प्रधान मंत्री द्वारा इस समारोह की अध्यक्षता में औपचारिक तौर पर कुछ अनुचित नहीं दिख रहा है. लेकिन उस दिन जब हम अपने शहीदों को याद करेंगे तब इस प्रोजेक्ट के उद्घाटन का समय निर्धारित करने को लेकर एक नैतिक आयाम और राजनीतिक उपयुक्तता है.

इसलिए इन दो घटनाओं को सिंक्रनाइज करने की आवश्यकता की जांच की जानी चाहिए. यदि 13 तारीख से कुछ दिन पहले समय-निर्धारण संबंधी जटिलताएं थीं या प्रधान मंत्री की पूर्व व्यस्तताओं के कारण या कॉरिडोर के लिए अंतिम-मिनट की फिनिशिंग टच के कारण, क्या समारोह को कुछ दिनों के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता था?

ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदू कैलेंडर 13 दिसंबर के कुछ दिनों बाद होने वाले उद्घाटन समारोह में बाधा था, क्योंकि 'अशुभ समय' या खरमास, अगले दिन यानी 14 दिसंबर से शुरू हो रहा है. यह चरण 14 जनवरी को संक्रांति तक चलता है और हिंदू इस दौरान कोई भी शुभ संस्कार या नई शुरुआत नहीं करते हैं.

2022 के विधानसभा चुनाव पर हैं नज़रें

तो क्या एक महीने के बाद जनवरी के दूसरे पखवाड़े में इस प्रोजेक्ट का उद्घाटन नहीं हो सकता था?

जाहिर है नहीं, इस परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने की घोषणा की जा रही है क्योंकि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव करीब हैं और भारतीय जनता पार्टी (BJP) किस्मत बदलने या उसे फिर से जीवित करने के लिए अपने इस हिंदुत्व कार्ड पर भरोसा कर रही है.

तीन कृषि कानूनों पर सरकार के पीछे हटने जैसे कई अनुकूल कदम, इस थ्योरी (चुनाव को ध्यान में रखने) का समर्थन करते हैं.

मंदिर-मस्जिद की कहानी को पुनर्जीवित करने की तात्कालिकता से बीजेपी खेमे में बेचैनी देखी जा सकती है. हाल के सप्ताहों में गौर करें तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके डिप्टी केशव प्रसाद मौर्य जैसे वरिष्ठ बीजेपी नेताओं ने कई भड़काऊ बयान दिए हैं. इन बयानों का उद्देश्य मतदाताओं को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करना था.

यदि खरमास की समय सीमा की बात नहीं होती, तो वाराणसी मंदिर कॉरिडोर का उद्घाटन विधानसभा चुनाव के बाद ही होता, क्योंकि आदर्श आचार संहिता जनवरी के पहले सप्ताह से लागू होने की उम्मीद है.

यहां पर यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि 2017 में पांच राज्यों - उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में चुनाव 4 जनवरी को हुए थे. उसी को ध्यान में रखते हुए इस बात की उम्मीद की जा रही है कि चुनाव आयोग इस साल भी उसी तारीख को या उसके आसपास चुनावों की घोषणा कर सकता है.

हालांकि प्रधान मंत्री ने स्पष्ट तौर पर इस अजीबो-गरीब समय-सीमा को अपने पक्ष में बदलने या लाभ के लिए मंदिर गलियारे के उद्घाटन को एक स्मारक कार्यक्रम जिस पर राष्ट्रीय सहमति है, के साथ सिंक्रनाइज करने के लिए चुना है.

इसमें अंतर्निहित संदेश यह दिया जा रहा है कि जिस तरह दिसंबर 2001 के आतंकवादी हमले में मारे गए सुरक्षा कर्मियों को याद करने के लिए इस घटना पर केवल वही लोग आपत्ति करेंगे जो "देशभक्त नहीं" हैं. वहीं दूसरी ओर केवल भारत के "सांस्कृतिक लोकाचार" का विरोध करने वाले ही सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक में तीर्थयात्रियों की "सुविधा" की आलोचना कर सकते हैं.

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इस 'अवसर' को हाथ से जाने नहीं देंगे मोदी

इस संभावित कार्यक्रम के बाद होने वाले सार्वजनिक भाषण में मोदी के पास अपने स्वयं की अनूठी स्टाइल में लोगों को संसद पर आतंकवादी हमले की याद दिलाने का अवसर होगा. यह न केवल उन्हें अपने अति-राष्ट्रवादी एजेंडे के लिए समर्थन जुटाने का एक और अवसर प्रदान करेगा बल्कि इसे हिंदुओं के लिए इस्लामी मंदिरों की 'वापसी' के हिंदुत्व अभियान के साथ जोड़ देगा.

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि वे इन दो अहम और असंबंधित घटनाओं को कैसे जोड़ेंगे लेकिन वे इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देंगे.

खास बात यह है कि मोदी इस तरह के महत्वपूर्ण आयोजनों पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में व्यक्तिगत तौर पर शामिल होते हैं और विधि-विधान में हिस्सा लेते हैं. अयोध्या भूमि पूजन और नए संसद भवन की नींव रखने का कार्यक्रम उन्हीं महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक है. हालांकि उद्घाटन का विवरण अभी तक अनिश्चित है लेकिन संभावना है कि वाराणसी में वह पूजा-अर्चना में हिस्सा ले सकते हैं.

मोदी रणनीतिक रूप से 'यजमान' (धार्मिक अनुष्ठान करने वाले) और स्मारक समारोहों के नेता, दोनों बनकर धर्म और राज्य के बीच की बाधा को दूर करते हैं.
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शाही ईदगाह का महत्व कम हो सकता है

जिस दिन हमारे लोकतंत्र पर सबसे निर्मम आतंकवादी हमला किया गया था उसी तारीख पर भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन किया जाएगा. यह न केवल मोदी के विशाल वास्तुशिल्प हस्ताक्षर (उदाहरण के लिए सरदार पटेल की मूर्ति, अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट और सेंट्रल विस्टा) के प्रति उनके झुकाव को दर्शाता है बल्कि व्यक्तिगत अधिकार को भी पेश करेगा और साथ ही साथ इस मामले में धर्म और अति-राष्ट्रवादी नैरेटिव के साथ तालमेल भी बिठाएगा.

जिस जल्दबाजी या तेजी के साथ इस प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया जा रहा है उसका कारण आगामी विधान सभा चुनाव है. वहीं इस अनुष्ठान से व्यक्ति के पंथ को भी आगे बढ़ाया जाएगा.

जर्मन धर्मशास्त्री डिट्रिच बोनहोफर द्वारा घातक जोखिम को प्रतिपादित करने वाले फ्यूहरर सिद्धांत के अनुरूप ही मंदिर गलियारे परियोजना का उद्घाटन एक बार फिर यह बताएगा कि केवल एक ही नेता है जो विशाल परियोजनाओं की अवधारणा करता है और उसे प्रदान भी करता है.

हालांकि भक्तों के लिए मंदिर के गलियारे के खुलने से BJP को अल्पावधि में चुनावी लाभ नहीं मिल सकता है, लेकिन यह लंबे समय की बहुस्तरीय राजनीति में समर्थकों के बीच मोदी की व्यक्तिगत 'आभा' को मजबूत करने का काम करेगा.

इस तथ्य के बावजूद कि ज्ञानवापी मस्जिद, जो कि काशी विश्वनाथ मंदिर के करीब है और संघ परिवार की उन धार्मिक स्थानों की 'सूची' में है, जिन्हें हिंदुओं के लिए 'फिर से स्थापित' करने की आवश्यकता है, वह तत्कालिक खतरे में नहीं है. लेकिन यह कॉरिडोर निसंदेह मुस्लिमों की मस्जिद तक पहुंच को प्रतिबंधित करेगा.

वाराणसी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह के साथ ही साथ विश्व हिंदू परिषद (VHP) यानी विहिप ने जिन असंख्य मंदिरों पर दावा किया है, वे धार्मिक स्थल अधिनियम, 1991 द्वारा संरक्षित हैं.

हालांकि काशी विश्वनाथ धाम विकास परियोजना और 13 दिसंबर को राजनीतिक रूप से होने वाला उद्घाटन कार्यक्रम इस कानून का अक्षरश: उल्लंघन नहीं कर रहा है लेकिन नि:संदेह यह इस कानून की आत्मा को कलंकित करता है.

(लेखक, NCR में रहने वाले ऑथर और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वे @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं.)

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