कभी-कभी कुछ नया न कर पाने की अक्षमता भी आपको ऊंचाई तक पहुंचा देती है. शायद ऐसी ही कोई परिस्थिति रही होगी, जब ‘एरिलीजियस’ जैसे शब्द का जन्म हुआ होगा. कुछ वक्त पहले तक इस शब्द का मेरे लिए कोई मतलब नहीं था.
पिछले महीने जब 26-27 नवंबर को संसद में सविधान पर चर्चा हुई, तो इस शब्द की जरूरत पड़ी. संविधान निर्माता डॉ. बीआर अम्बेडकर की 125वीं जयंती मनाई जा रही थी. उस अवसर पर बीजू जनता दल की ओर से बोलते हुए मैंने कुछ विचारों को रखने का प्रयास किया, जिनके बारे में मैं नहीं कहूंगा कि पूरी तरह वे मेरे ही विचार हैं.
कुछ लोग मानते हैं कि विचार पहले से ही आपके आस-पास होते हैं. किसी पेड़ के गिरते हुए फल को पकड़ लेने की तरह किसी विचार को उठाना उस पर और सोचना फिर आगे के प्रयोग के लिए लोगों के सामने रखना एख व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है.
तो ‘एरिलीजियस’ होने का विचार भी मेरे उस भाषण में कुछ उसी आसानी से शुरू हुआ जैसे बाकी मुश्किल चीजें शुरू होती हैं.
एक लोकतांत्रिक देश की तरह भारत ने भी लोकतंंत्र, सभी के लिए बराबरी और न्याय की शपथ ली है. पर ईमानदारी से कहूं, तो अभी हमारा लोकतंत्र इतना विकसित नहीं हुआ कि वह सामाजिक मसलों में नजर आ सके.
हम एक ऐसा देश हैं, जिसने अपनी कमियों और कमजोरियों से आगे बढ़ने से मना कर दिया है. हमारी पुरानी मान्यताओं, हमारे यहां होने वाले नागरिक अपराधों और अपनी कमियों पर गौर करें तो हम देख पाएंगे कि हमारी लोकतांत्रिकता कितने पानी में है.
हम उन मुश्किलों और असमानताओं की बात करते हैं, जो कभी हमारे पुरखों को झेलनी पड़ी थीं, जबकि आज भी कुछ उसी तरह की मुश्किलें और असमानताएं हमारा समाज झेल रहा है. हम क्यों भूल गए कि एक असली समाधान एक ऐसा सवाल हो सकता है जो एक अंतहीन बहस को जन्म दे डाले.
सिर्फ राजनीतिक बराबरी हमारे लोगों को एक अच्छा भविष्य नहीं दे सकती, न ही देगी. समाधान के तौर पर यह कहना आसान हो सकता है कि हमें अपने पुराने सामाजिक मूल्यों से बाहर निकल कर सकारात्मक होकर आगे बढ़ना होगा. भारत विविधताओं का देश है, और हमें अपनी विविधताओं में खुश रहना चाहिए. अलग जाति, धर्म, समुदाय और विचारों के लोगों को अपने मतभेदों के बावजूद, मिलकर लोगों को एक-दूसरे से जोड़कर रखने वाला माहौल बनाना होगा.
एक नजर
‘एरिलीजियस’ - एक विचार
सिर्फ राजनीतिक बराबरी हमारे लोगों को एक अच्छा भविष्य नहीं दे सकती.
अलग जाति, धर्म, समुदाय और विचारों के लोगों को अपनी विविधताओं के साथ खुश रहना सीखना होगा.
अशोक को छोड़कर भारत के किसी भी बड़े राजा ने धर्म-परिवर्तन के लिए ताकत का इस्तेमाल नहीं किया.
भारत को सभी धार्मिक संस्थाओं से दूरी बना लेनी होगी.
दुश्मनी पैदा करना
पर क्योंकि ये मूल्य पहले से हमारे नागरिकों में नहीं हैं तो ऐसे में हमारे सामाजिक-राजनीतिक नेताओं की जिम्मेदारी है कि अपनी अगली पीढ़ी को ये सिखाया जाए. भारत में हमें विभिन्नताओं के दम पर लोगों को बांटने में मजा आता है. हम छोटे-छोटे फायदों के लिए लोगों में दुश्मनी पैदा कर देते हैं. इससे सिर्फ मुश्किलें ही पैदा होती हैं. धर्मनिरपेक्षता की राह में राजनीतिक रोड़े हैं. सच कहा जाए तो इसे समझे बिना ही कई भारतीय इसका इस्तेमाल करते हैं.
हम तब तक खुद को सबको साथ लेकर चलने वाला समाज नहीम कह सकते जब तक सरकारी दफ्तरों पर उनकी बड़ी कुर्सियों पर बैठने वालों की जातिगत-धार्मिक पहचान हावी रहेगी.
बाकी धर्मनिरपेक्ष देश चर्च और सरकार को अलग-अलग रखते हैं तो हम क्यों जनता के बीच धर्म की राजनीति कर रहे हैं.
हम भारतीयों के लिए धर्म एक व्यक्तिगत मसला है, ईश्वर का होना हमारे लिए व्यक्तिगत फायदे की बात है, तब सार्वजनिक ढांचे में धर्म को लाने की क्या जरूरत है. खास तौर पर सरकारी ढांचे में, जहां से हमारी सार्वजनिक सेवाएं सुनिश्चित होती हैं.
पिछले सालों में हमने अच्छी तरह देखा है कि धर्म की ताकत लोगों की सोच बदल सकती है, यहां तक कि देशों की सरहदें भी बदल सकती है, पर यह भी देखा है कि इसने सबसे अधिक काम लोगों को बांटने का ही किया है.
जब टीपू सुल्तान पर बहस चल रही थी तब में सोच रहा था कि भारत में आए इन विदेशी शासकों ने कभी हमें अपने धर्मों को मानने पर मजबूर किया था क्या, चाहे वो अफगान हों (शेरशाह सूरी) या मुसलमान हों (टीपू सुल्तान या मुगल) या फिर ईसाई ब्रिटिश ही क्यों न हों.
राष्ट्रीय धर्म का कोई इतिहास नहीं
मजे की बात यह है कि उनमें से किसी ने सरकारी धर्म की बात नहीं की थी. उन्होंने हर धर्म को फलने-फूलने दिया फिर चाहे वो स्थानीय हो या बाहर से आया हो. इसी तरह इतिहास में कहीं ये भी जिक्र नहीं कि किसी सरकार ने किसी धर्म विशेष को आर्थिक सहायता दी हो.
यहां तक कि गोआ में पुर्तगालियों ने भी यही किया. उन्होंने मुगलों से कहीं लंबे समय तक शासन किया (1510-1961), पर स्थानीय लोगों से उनके धर्मपालन की आजादी नहीं छीनी.
धार्मिक कट्टरपंथी जो भी कहें पर भारत के ईसाई और मुसलमान शासक उतने ही स्वदेशी थे जितने हिंदू. उनके समय में जिन लोगों ने धर्म परिवर्तन किया उसके पीछे की वजहें निजी या स्थानीय ही रही होंगी.
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अशोक को छोड़कर भारत के किसी भी बड़े राजा ने धर्म परिवर्तन के लिए ताकत का इस्तेमाल नहीं किया, इससे कुछ और अनुमान भी लगाया जा सकता है.
एक नया विचार और ढांचा
वो कुछ और अनुमान यह है कि जरूरी नहीं कि धर्मांतरण न कराने वाले शासक धर्मनिरपेक्ष रहे हों, यह भी हो सकता है कि वे इसमें लगने वाली ताकत और पैसा न खर्च करना चाहते हों. यहां शासन करने वालों की सबसे बड़ी मंशा तो एक ही थी कि वे किसी भी तरह लोगों का शोषण कर ज्यादा से ज्यादा दौलत इकट्ठी कर लें.
ज्यादातर को लोगों की जिंदगियों से तब तक लेना-देना न था, जब तक कोई बड़ी समस्या नहीं आ जाती थी. पर अब हमें ऐसी सरकार की जरूरत है, जो न सिर्फ हिंदू धार्मिक संगठनों, वक्फ बोर्डों और मदरसों को पूरी तरह पैसा देना बंद कर दे, बल्कि उनके अस्तित्व के प्रति आंख ही मूंद ले. मेरी नजर में वही ‘एरिलीजियस’ है.
(लेखक तथागत सत्पति, बीजू जनता दल से लोकसभा सदस्य हैं)
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