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आखिर, सीवर से निकलती मौतों का सिलसिला थमता क्यों नहीं? 

आंकड़े बताते हैं कि देश में हर पांचवें दिन एक सफाईकर्मी की मौत मैनुअल स्क्वेंजिंग की वजह से होती है

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ये कैसा दस्तूर बन गया है कि जो लोग पूरे समाज को जिन्दा रखने के लिए अपनी जिन्दगी दांव पर लगाते हैं, उन्हें ही हमारा बेदर्द सिस्टम मौत के मुंह में ढकेलता रहता है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं! मुम्बई और ठाणे से इसी हफ्ते ये दर्दनाक खबर आई कि वहां दो अलग-अलग हादसों में सीवर और सेप्टिक टैंक से निकलने वाली जहरीली गैसों ने तीन सफाई कर्मियों की बलि ले ली.

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आंकड़े बताते हैं कि देश में हर पांचवें दिन एक सफाईकर्मी को इसी तरह से अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है, बाकी समाज स्वस्थ और जिन्दा रह सके. इन मृतकों का सिर्फ इतना कसूर है कि वो गरीब होने के अलावा उस दलित समुदाय से आते हैं जिनकी जाति और पेशा उनसे ये अपेक्षा रखती है कि वो समाज की सेहत की खातिर उस सीवर की सफाई करते रहें, जिसमें साक्षात मौत बहती है.

फिर मंत्रालय क्यों बनाए गए....

कहने को देश में एक सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय है. इसके मातहत एक राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग भी है. Anti-Scavenging Law यानी सफाईकर्मियों के अधिकारों से जुड़े कानून भी हैं. नियम भी है कि सीवर की सफाई के लिए मशीनों का ही इस्तेमाल होना चाहिए. इंसान तभी इस काम को करें, जब मशीनें असमर्थ हों. इंसान भी जब सफाई करें तो उनके लिए मॉस्क, ऑक्सीजन सिलेंडर और अन्य सुरक्षा उपकरणों का इन्तजाम हो.

लेकिन हरेक हादसे में सिर्फ यही बात सामने आती है कि सारी बातें, सारा ज्ञान, सारी हिदायतें, सारे उपदेश और कायदे-कानून सिर्फ किताबों या फाइलों के लिए हैं. जमीनी हकीकत तो सिर्फ इतनी है कि इन सबके होने के बावजूद सफाईकर्मियों की हत्याएं जारी हैं. वो भी दिन-दहाड़े, बगैर किसी रोक-टोक के और पूरी बेरहमी से.

जी हां, ये हादसे नहीं, बल्कि हत्याएं हैं. हत्यारा हमारा वो पूरा सिस्टम और मानसिकता है, जिसका फर्ज है इसे रोकना, सीवर में बहती मौतों के सिलसिले को पूरी तरह से खत्म करना. यानी, कातिल कोई गैर नहीं, बल्कि हम खुद हैं. पूरा समाज हत्यारा है. हमारी संस्थाएं हत्यारी हैं. संस्थाओं के कर्ता-धर्ता हत्यारे हैं. अब सिर्फ इतना तय करना है कि हत्यारों को सजा कैसे दिलाई जाए? जबाबदेही कैसे तय हो कि उसके चंगुल से कोई बच ना सके?

बीते पांच साल में ‘स्वच्छ भारत’ का खूब ढोल पीटा गया, हाथों में चमचमाती झाड़ू को थामे कई नेताओं ने अपनी तस्वीरें मीडिया में प्रकाशित करवाईं, लेकिन किसी ने कभी ये नहीं बताया कि वो वास्तव में सफाईकर्मियों के बेमौत मारे जाने को लेकर आखिर, कर क्या रहा है?

हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये सफाईकर्मी हमारे समाज के सबसे बड़े रक्षक हैं. क्योंकि इंसान अगर अपने आसपास सफाई नहीं रखेगा तो वो इतनी गंभीर बीमारियों की चपेट में होगा कि उसका जिंदा बचना असंभव है. लेकिन जरा विडंबना तो देखिए कि हम उनकी मौत का मातम नहीं मनाते जो हमारी जिंदगियों के लिए अपनी जान दे देते हैं. समाज के लिए जान देने वाले ये सफाईकर्मी क्या किसी शहीद से कम हैं? इनके लिए शहीद का दर्जा कोई नहीं चाहता, लेकिन जान जाने पर शहीद सैनिक जैसा मुआवजा इनके परिजनों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? हालांकि, इन सबसे बढ़कर ऐसा सिस्टम बनाना बेहद जरूरी है, जो इन हत्याओं पर नकेल कस सके.

अब यक्ष-प्रश्न ये बचा कि आखिर हत्याओं की रोकथाम होगी कैसे? अरे, ये कोई रॉकेट साइंस तो है नहीं. दुनिया भर में सीवर तंत्र की मौजूदगी है और हर जगह उसे दुरुस्त रखने की चुनौती रहती है. एकाध देश से भी अगर हमने सीखने की कोशिश की होती तो न जाने कब के, हम इस कलंक से मुक्ति पा लेते. अरे, हमारे पास तो इस बात का पुख्ता रिकॉर्ड भी नहीं है कि कुल मिलाकर साल में या बीते दशक में कितने सफाईकर्मियों की बलि हमारा सीवर सिस्टम और नौकरशाही की भेंट चढ़ चुका है? सही आंकड़ों का संग्रह नहीं करना हमारी सबसे बड़ी गलती है. बगैर आंकड़ों के हम कैसे ये जान सकते हैं कि समस्या की भयावहता कितनी और कैसी है?

आखिर करें तो करें क्या?

  • सबसे पहले तो हमें सफाईकर्मियों की इस तरह होने वाली मौत को हत्या का दर्जा देना चाहिए. यहां हमें दहेज उत्पीड़न और बलात्कार से संबंधित कानूनों और इसकी प्रक्रिया से प्रेरणा लेनी चाहिए. सफाईकर्मियों की मौत को प्राकृतिक आपदा में होने वाले जानमाल के नुकसान या उस तरह के दैवीय हादसों से अलग करके देखना चाहिए.
  • नगर पालिकाओं को सीवर की सफाई के लिए वैसी ही इकलौती एजेंसी बनाना चाहिए जैसा हमने बिजली-पानी-सड़क वगैरह के मामले में अलग-अलग एजेंसियों के क्षेत्राधिकार बांट रखे हैं. यानी, जहां कहीं भी सीवर की वैसी सफाई की नौबत आए जिसमें जान का खतरा हो, उसे संभालने के लिए निश्चित एजेंसी का होना जरूरी हो.
  • ऐसी एजेंसी की जबाबदेही तय करने का विधान इतना सख्त होना चाहिए कि उसके मुखिया को कानून का डर नजर आए. निचले स्तर पर होने वाले कामकाज के लिए भी आला अफसरों को वैसे जबाबदेह बनाना चाहिए, जैसे अवमानना के मामलों में अदालतें सीधे-सीधे नौकरशाही के मुखिया के गले पर तलवार लटका देतीं हैं. ऐसा किये बगैर अफसर हमेशा कागजी लीपापोती करके अपनी खाल को बचाने में सफल होते रहेंगे और नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ वाला ही रहेगा.
  • अफसरों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या और काम के लापरवाही दिखाने की कार्रवाई होनी चाहिए.
  • तमाम एहतियात के बावजूद भी यदि हादसा हो ही जाए तो वैसी दशा में सफाईकर्मियों के परिजनों के लिए बीमा या मुआवजा की वैसी ही नीतियां बनने चाहिए, जैसा किसी ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी के मामले में होता है. सामाजिक न्याय की ये बुनियादी आवश्यकता है.

इतना सब कुछ करने के लिए वैसी ही तेजी दिखाई जानी चाहिए, जैसे निर्भया कांड के बाद जस्टिस जगदीश शरण वर्मा की कमेटी ने एक महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट दी थी और मनमोहन सिंह सरकार ने उसे फौरन स्वीकार किया था.

कुलमिलाकर, सफाईकर्मियों की ऐसी आकस्मिक मौत को आपात स्थिति की तरह से देखने और फौरन जरूरी उपाय करने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता. हमें हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का कोई अधिकार नहीं है. सरकार और नौकरशाही के भरोसे रहकर तो हमने देख लिया, अब तो सीधे न्यायलिका को इस चुनौती का स्वतः संज्ञान यानी Suo Moto Cognizance लेना चाहिए. इसके सिवाय तो और कोई रास्ता नजर नहीं आता.

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