महाराष्ट्र ने तो 24 अक्टूबर को खंडित जनादेश दिया नहीं, तो फिर उसे लोकप्रिय सरकार पाने के संवैधानिक हक से दूर रखने का गुनाहगार कौन है? बीजेपी या शिवसेना या फिर दोनों! लेकिन संविधान के संरक्षकों ने कसूरवार को सजा देने के बजाय बेकसूर जनता पर ही एक और सितम का रास्ता चुना! संविधान की दुहाई पर महाराष्ट्र अब केंद्र की मुट्ठी में है. सवाल ये है कि क्या राष्ट्रपति शासन के विकल्प को हड़बड़ी और खिसियाहट में चुना गया है. क्योंकि नये दावेदारों को थोड़ा और समय दे दिया जाता तो कौन सा आकाश टूट पड़ता? अब सवाल ये है कि बीजेपी का सब्र क्यों जबाब दे गया?
आप चाहें तो बीजेपी से हमदर्दी जता सकते हैं! हालांकि, शिवसेना ने जैसे अभी बीजेपी को गच्चा दिया है, बिल्कुल वैसा ही सलूक बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ किया था. जिस राह पर अभी शिवसेना चल रही है, उसी राह पर चलकर नीतीश कुमार ने बीजेपी से दोस्ती की थी. विधायकों की जिस खरीद-फरोख्त को अभी लोकतंत्र और संविधान के लिए बुरा आचरण बताया जा रहा है, उसे ही थोड़े समय पहले कर्नाटक और गोवा में अपने शबाब पर देखा गया था. लिहाजा, संवैधानिक सुचिता और जनादेश से धोखाधड़ी की दुहाई या तो महज घड़ियाली आंसू हैं या फिर दिखाने के दांत.
मौकापरस्ती का दूसरा नाम राजनीति!
राजनीति आज मौकापरस्ती का दूसरा नाम है. सबको पहले किसी भी कीमत पर टिकट, फिर वोट और आखिर में सत्ता चाहिए. अब ज्यादातर नेताओं, सांसदों या विधायकों का कोई वैचारिक आधार नहीं है. विचारधारा और मूल्य-सिद्धान्त की बातें सिर्फ तभी होती हैं, तब माजरा ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाला हो. वर्ना, सबको सत्ता चाहिए. अब यही राजनीति है. एक पार्टी में जिंदगी गुजार देने वाले जब दलबदल करते हैं और अगर उन्हें जनता का डर नहीं सताता तो 30 साल पुरानी दोस्ती को तोड़ लेने वालों को भला क्यों डर लगेगा!
50-50 फॉर्मूले को लेकर कौन सच्चा, कौन झूठा?
बीजेपी की दशा उस भूखे जैसी है, जिसके सामने से उसके 30 साल पुराने दोस्त शिवसेना ने ही थाली खींच ली. कोई नहीं जानता कि 50-50 फॉर्मूले को लेकर कौन सच्चा है और कौन झूठा? वोट मांगने से पहले महाराष्ट्र की जनता को तो किसी ने बताया नहीं कि भीतरखाने क्या खिचड़ी पकी थी? अब आलम ये है कि शिवसेना अपना घर बदलकर भी सत्ता में आ सकती है. एनसीपी और कांग्रेस की भी लॉटरी लग सकती है. जनादेश था कि विपक्ष में रहो, लेकिन वक्त ने ऐसी करवट ली कि आज सत्ता दरवाजे पर आ खड़ी हुई है. ये बिहार का उलट है. बिहार में बीजेपी को विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला था. लेकिन वक्त के करवट बदलने से वो सत्ता में है. किस्मत ने साथ दिया तो हरियाणा में विरोधी को पटाकर सत्ता बचा ली. महाराष्ट्र वाली कुंडली में अभी राजयोग लगता नहीं है.
बीजेपी की खीझ को समझना मुश्किल नहीं है. शिवसेना ने उसके सामने से सजी हुई थाली खींच ली. फडणवीस की कुर्सी बची नहीं. एनडीए से शिवसेना निकल गयी सो अलग. यानी, ‘चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ या ‘दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम’! तो प्रतिक्रिया स्वाभाविक है. ऐसी दशा में कोई और भला करेगा भी तो क्या? बेशक दांत पीसेगा. बदला भी लेगा. राष्ट्रपति शासन को इस नजर से भी देखा जा सकता है.
अब आगे क्या होगा?
अब कुछ दिनों तक सुप्रीम कोर्ट में जोर-आजमाइश हो सकती है. फिर मुमकिन है विधानसभा में ही शक्ति-परीक्षण का आदेश आए. इस दौरान शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस तीनों मिलकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम यानी कॉमन मिनिमन प्रोग्राम बना लें और तय कर लें कि कितने-कितने वक्त के लिए किसका-किसका नेता मुख्यमंत्री बनेगा, किसे कौन-कौन सा मंत्रालय मिलेगा और किसे विधानसभा अध्यक्ष का पद? तो राष्ट्रपति शासन हट कर सरकार बन भी सकती है. लेकिन थोड़े सब्र से काम लेते तो शायद राज्य को राष्ट्रपति शासन से बचाया जा सकता था.
क्या बीजेपी के पास कोई दांव बाकी है?
वैसे बीजेपी के पास अब भी एक दांव बचा हुआ है. वो चाहे तो शिवसेना को ऐसा लालच दे सकती है कि ‘अरे भाई उद्धव-आदित्य, छोड़ो गिले-शिकवे. रूठना छोड़ो और आओ तुम्हीं मुख्यमंत्री बन जाओ. हम हों या तुम, कोई फर्क नहीं पड़ता. हम दोस्त थे और रहेंगे. हमारे रिश्ते तो बाप-दादा के जमाने के हैं. अरे, जहां चार बर्तन होते हैं वहां आपस में टकराते भी हैं. अब नाराजगी छोड़ो और घर वापसी करो. आखिर, जनादेश भी तो हमारी दोस्ती को ही मिला है.’
ये बातें काल्पनिक भले लगें लेकिन असंभव नहीं हैं. राजनीति को यूं ही ‘संभावनाओं का खेल’ नहीं कहा गया. खेल का एक हथकंडा ये हो सकता है कि भले ही शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की तिकड़ी सरकार बना ले, लेकिन बीजेपी खामोश नहीं बैठे. पूरी ताकत से इन पार्टियों को तोड़ने और इनके विधायकों को खरीदने की वैसी ही मुहिम छेड़ दे, जैसा उसने कर्नाटक, गोवा और उत्तर पूर्वी राज्यों में किया. अन्य राज्यों में भी विरोधी पार्टियों से आये तमाम नेताओं से बीजेपी अटी पड़ी है. इसीलिए, महाराष्ट्र में भी गैर-बीजेपी सरकार उतने दिन ही चल पाएगी, जितने दिन बीजेपी उसे चलने देगी.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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