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अशोक लवासा का ADB में जाना लोकतंत्र पर काला साया होगा  

लवासा की तब बहुत तारीफ हुई, जब उन्होंने कहा कि ईमानदारी कोई ऐसा बुत नहीं जिसकी पूजा की जाए.

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यह काफी गैरमामूली बात है कि संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति को सरकार की तरफ से कोई लाभ वाला पद पेश किया जाए. कायदे से उसे सरकार से स्वतंत्र रहकर काम करना होता है. इसीलिए इस बात पर सवाल उठना लाजमी है कि चुनाव आयुक्त अशोक लवासा को सरकार ने एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) के वाइस प्रेसिडेंट के तौर पर नॉमिनेट किया और लवासा ने उस पेशकश को मंजूर भी कर लिया. यूं लवासा के अपने पद से रिटायर होने में दो साल बाकी हैं.

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सबसे पहले तो, सरकार की तरफ से पद की सिफारिश और लवासा का उसे मंजूर करना- दोनों भारतीय लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले हैं. अब लवासा मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर नहीं पहुंच पाएंगे, जोकि अप्रैल 2021 में खाली हो जाएगी.

लवासा ने एक बार ‘ईमानदारी की कीमत चुकाने’ की बात कही थी

2019 के आम चुनावों में चुनाव आयोग ने आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को क्लीन चिट दी थी. वह लवासा ही थे, जिन्होंने इसका विरोध किया था. ऐसा उन्होंने एक बार नहीं, पांच बार किया था और जब उनके विरोध को दर्ज नहीं किया गया तो उन्होंने चुनाव आयोग की बैठकों में आने से इनकार कर दिया. जाहिर सी बात है, इससे उन्हें ताकतवर राजनैतिक हस्तियों की नाराजगी का शिकार होना पड़ा जिन्हें बड़ा जनादेश मिला था.

फिर जब वे लोग सत्ता में आए तो लवासा के परिवार को उनके ‘हठ’ के लिए स्पष्ट रूप से ‘सजा दी गई’. उनकी बीवी को इनकम टैक्स के नोटिस मिले. प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने उस कंपनी को निशाना बनाया, जिसमें उनका बेटा डायरेक्टर है. यह कहा गया कि कंपनी ने विदेशी मुद्रा कानूनों का उल्लंघन किया है. उनकी बहन पर स्टाम्प ड्यूटी की चोरी का आरोप लगाया गया.

दिसंबर 2019 में इंडियन एक्सप्रेस के एक आर्टिकल में लवासा ने दुख जताया था कि कैसे उन्हें अलग थलग कर दिया गया है. उन्होंने लिखा था- यह उम्मीद करना भोलापन है कि अगर ईमानदार शख्स किसी ताकतवर शख्स का विरोध करता है तो वह नम्रता से इस विरोध को स्वीकार कर लेगा. वह पलटकर वार करेगा और ईमानदार को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. उसे पीड़ित किया जाएगा, उसे जाहिर तौर पर अलग-थलग कर दिया जाएगा.

उन्होंने कहा था कि ईमानदारी को ईमानदारी की कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए- चाहे उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित किया जाए या सामूहिक रूप से. लवासा के मामले में सबसे परेशान करने वाला सवाल यह है कि क्या ईमानदारी ‘आउट ऑफ मार्केट’ हो गई है.

संवैधानिक पदों को बार बार कमजोर किया गया है

चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा इसी बात से है कि वह स्वतंत्र होकर काम करता है लेकिन सच्चाई इससे कोसों दूर है. लवासा को एडीबी में पहुंचाने से पहले भी संवैधानिक पद पर बैठे अधिकारियों को फुसलाने की तमाम कोशिशें की गई हैं.

1973 में कांग्रेस की सरकार ने ए एन रॉय को भारत का चीफ जस्टिस बनाने के लिए तीन जजों के वरिष्ठता क्रम को दरकिनार करके सुप्रीम कोर्ट को प्रभावित करने की कोशिश की थी. तब ऐसे दूरंदेशी यानी ‘फॉरवर्ड लुकिंग’ जजों की जरूरत पर जोर दिया गया था, जो देश में परिवर्तन की हवा को महसूस कर सकें. पूर्व चीफ जस्टिस मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था कि जो किया गया है, उससे फॉरवर्ड लुकिंग जज तैयार नहीं होंगे, बल्कि ऐसे जज तैयार होंगे जो उच्च पदों के लाभ के लिए लुक फॉरवर्ड करेंगे.

फिर चीफ जस्टिस पी सथासिवम ने जब अपने रिटायरमेंट के पांच महीने के अंदर गवर्नर का पद मंजूर कर लिया तो कांग्रेस ने सोचा कि उन्हें उनके किन फैसलों के लिए पुरस्कृत किया गया है.

सरकारें इस बात के लिए काफी बदनाम रही हैं कि वे रिटायरमेंट के बाद सुप्रीम कोर्ट के जजों की पैरवी करती हैं. जब 1967 में चीफ जस्टिस के सुब्बाराव को संयुक्त विपक्ष की तरफ से भारत के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया, तब भारत के चीफ जस्टिस के तौर पर विपक्ष से उनकी चर्चाओं ने औचित्य के सवाल खड़े किए थे. एक मामला जस्टिस बहारुल इस्लाम का भी है, जिन्होंने असम हाई कोर्ट में जज बनने के लिए कांग्रेस की राज्यसभा सीट छोड़ी, और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. वहां से इस्तीफा देकर दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए और राज्यसभा के लिए एक बार फिर से चुने गए.

ज्यूडीशियरी का सबसे बुरा पल वह था, जब 1980 में चीफ जस्टिस पी एन भगवती ने इंदिरा गांधी के दोबारा प्रधानमंत्री चुने जाने पर पत्र लिखकर उनकी तारीफ की थी. उन्होंने लिखा था- ‘आप (इंदिरा गांधी) भारत के लाखों गरीबों, भूखे लोगों के लिए उम्मीद और अभिलाषाओं का प्रतीक हैं’. ऐसे कई मौके आए हैं जब सिटिंग जजों ने राजनैतिक नेताओं की तारीफों के पुल बांधें हैं.
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लवासा का नया रूप चौंकाता क्यों है

संवैधानिक और वैधानिक निकायों को दबाने के अनगिनत उदाहरण हैं. लवासा का मामला इससे अलग इसलिए है क्योंकि वह स्वतंत्रता का आग्रह करते हैं. साथ ही सार्वजनिक तौर पर इस बात ऐलान भी करते हैं कि ईमानदारी का रास्ता धर्म की तरह सीधा तो है, पर सरल नहीं. अक्सर यह घुमावदार हो जाता है, अधिक शक्ति की मांग करता है, कई बार सड़क के ऊबड़ खाबड़ होने के कारण वाहन को नुकसान भी पहुंचता है. लेकिन ईमानदार शख्स किसी बात की परवाह नहीं करता, उसकी भीतरी ताकत उसे इस मार्ग पर चलने लायक बनाती है और बाकी सभी चीजों को किनारे धकेल देती है.

लवासा की तब बहुत तारीफ हुई, जब उन्होंने कहा कि ईमानदारी कोई ऐसा बुत नहीं जिसकी पूजा की जाए. उसका तो अभ्यास किया जाना चाहिए. यानी आप ईमानदारी की तारीफ करने की बजाय उसे अपनाएं. अगर वह सचमुच में ऐसा सोचते हैं तो इस बात को स्वीकार करना मुश्किल है कि वे अपने संवैधानिक कर्तव्यों को त्यागने को तैयार हैं.

लवासा की दुविधा को मार्लन ब्रांडो के उस मशहूर डायलॉग से समझा जा सकता है जो उन्होंने 'ऑन द वॉटरफ्रंट' नाम की फिल्म में बोला था. फिल्म में मार्लन के कैरेक्टर को इस बात पर पछतावा है कि उसने उभरते हुए बॉक्सर के तौर पर फाइट को थ्रो किया. इसके लिए उसे अपनी अंतरात्मा और गुंडों दोनों से अपने अपने स्तरों पर भिड़ना पड़ा. वह कहते हैं- आई कुड हैव हैड क्लास. आई कुड हैव बीन ए कंटेंडर. आई कुड हैव बीन समबडी (मेरी कोई क्लास हो सकती थी, मैं कंटेंडर हो सकता था, मैं कुछ और हो सकता था). क्या लवासा भी इसी द्वंद्व से गुजर रहे हैं.

(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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