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अच्छा हुआ ब्यूटी क्रीम बेचने वाली पतंजलि के मोह में पड़ गए रामदेव

दुनिया भर में ‘निजी सैन्य बलों’ या ‘आत्मरक्षा बलों’ को मंजूरी देना, काफी खराब अनुभव रहा है.

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करीब एक दशक पहले एक बाबा जी पुलिसिया कार्रवाई से बचने के लिए एक प्रदर्शन स्थल से महिलाओं का भेष धरकर निकल भागे थे और फिर इस बात की धमकी दी थी कि वह सरकार की कार्रवाई के खिलाफ अपनी सेना खड़ी कर लेंगे. उन्होंने एक नाटकीय बयान भी दिया था- “अगली बार रामलीला में रावणलीला होगी. आइए देखें, कौन पिटाई खाता है.” ये जैसे युद्ध की मुनादी थी. लेकिन इसके अलावा इस टिप्पणी में एक और बात परेशान करने वाली थी. वह यह थी कि बाबाजी एक सेना बनाने की बात कर रहे थे, “वे लोग समर्पित होने चाहिए जोकि अंतिम बलिदान दे सकें. उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा.”

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अंतिम बलिदान’ जैसे शब्दों पर किसी को हंसी आ सकती है, वह भी भेष बदलकर निकल भागने वाले किसी शख्स के मुंह से सुनकर. पर यह टिप्पणी उतनी भी मजेदार नहीं थी. क्योंकि उसमें हिंसा की चेतावनी दी जा रही थी. जिस लोकतंत्र में सबकी भागीदारी होती है, वहां राज्य के पास ही हिंसा के वैध इस्तेमाल का एकाधिकार होता है, अपने खुद के सुरक्षा बलों के जरिए. यह अधिकार अकेले उसके पास होता है, उसे साझा नहीं किया जा सकता.

सेना को अराजनैतिक क्यों होना चाहिए

दुनिया भर में ‘निजी सैन्य बलों’ या ‘आत्मरक्षा बलों’ को मंजूरी देना, काफी खराब अनुभव रहा है. इससे उल्टा नुकसान होने का खतरा रहता है, और यह असंवैधानिक भी है. जैसे सूडान के दरफूर में ‘जंजावीड’, रवांडा में ‘इंटराहमवे’ वगैरह. भारत में भी इन्होंने कोई अच्छे तजुर्बे नहीं दिए. कश्मीर में ‘इखवान’ और माओवादी इलाकों में ‘सलवा जुडूम’ इसके उदाहरण हैं. विधिवत सुरक्षा तंत्र की जगह ‘संरक्षण’ देने के नाम पर एक ख्याली व्यवस्था करना हमेशा खतरों को जन्म देता है.

यहां तक कि सरकार के हिमायती समूहों/स्वयंभू सेनाओं को सुरक्षा का जिम्मा सौंपना भी किसी राजनैतिक विचारधारा को कायम रखने की ही कोशिश है, या या एक किस्म की राजनीति की ओर बढ़ना है. लोकतंत्र एक अतिसंवेदनशील व्यवस्था है, और यह इसके लिए नुकसानदेह होता है.

इसलिए सेना को बेशक, अराजनैतिक होना चाहिए जोकि देश के संविधान की शपथ लेती हो- न कि किसी राजनैतिक विचारधारा, नेता या पार्टी की. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व फाइव स्टार जनरल ड्वाइट डी. आइजनहावर ने एक बार कहा था-

“जब आप यूनिफॉर्म पहनते हैं तो आप कुछ निषेधों को स्वीकार करते हैं”. उन्होंने बताया था कि प्रेज़िडेंशियल उम्मीदवार (रिपब्लिकन पार्टी) बनने के बाद उन्होंने ‘आर्मी में अपने कमीशन से इस्तीफा दे दिया था’ और आठ साल बाद राष्ट्रपति पद से हटने के बाद अपने ‘जनरल’ का रैंक बहाल किया था. लेकिन आज टीवी डिबेट्स या सार्वजनिक मंचों पर कई अनुभवी अधिकारी अपनी चमचमाती वर्दी में, तिरछी टोपी के साथ किसी विचारधारा की पताका फहराते नजर आ जाते हैं. यह ‘वर्दी’ का अपमान है, और उसके अराजनैतिक होने की अनिवार्यता का उल्लंघन भी. इसे किसी एक पक्ष से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए, और न उसे देखकर ऐसा महसूस होना चाहिए.

पिछले साल अमेरिका की आर्म्ड फोर्सेस के ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ जनरल मार्क मिले ने इस बात की माफी मांगी थी कि उन्होंने एक गैर सैन्य समारोह में राष्ट्रपति (कमांडर इन चीफ) के साथ मंच साझा किया. यह किसी सैन्य अधिकारी का आदर्श रूप है. उनके बार बार याद आने वाले शब्द थे- “उस वक्त और उस माहौल में मेरी मौजूदगी ने इस अवधारणा को जन्म दिया था कि सेना घरेलू राजनीति में भागीदार है.”

‘वर्दी’ का हर अंश, हर रंग, हर पेटी, हर तमगा, अलंकरण और बारीकी बहुत पवित्र होती है. ऐसे अनगिनत प्रतीकों से लैस होती है जोकि पीढ़ियों के बलिदानों और दिलेरी से सज्जित होते हैं. यह सशपथ पहचान, एकजुटता का भावना और अपने वजूद के लिए गौरव की बात होती है- उनके लिए जिन्हें इन सबको हासिल करने का अनमोल मौका मिला है. कई लोग सही अर्थों में इस भावना को बरकरार रखने के लिए बड़ी कीमत चुकाते हैं.

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रामदेव का स्वदेशी ‘वेंचर’

शुक्र था कि ‘बाबाजी’ उस ‘स्वदेशी’ वेंचर के मोह में पड़ गए जो ब्यूटी क्रीम्स, कॉर्नफ्लेक्स और ‘बेटा पैदा की गारंटी’ देने वाली दवा बनाया करता है. उन्होंने संतुलित तरीके से ‘जींस को फाड़ा’ ताकि दावा किया जा सके कि “हमने उसने इतना ही फाड़ा है कि हमारी भारतीयता और मूल्यों को नुकसान न पहुंचे.”

यह योग, धर्म, ‘राष्ट्रीयता’, आयुर्वेद, स्वदेशी और राजनीति का मिश्रण अनूठा था. इसके बाद ‘दावों’, गुणवत्ता या सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं शांत हो गईं. उन पर सवाल खड़े नहीं किए गए. उनकी कंपनी एक स्वाभिमानी भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी बताई गई. और इस बीच, पेशेवर कार्यकुशलता और आचार नियमों को ताक पर रख दिया गया. इन सबका उल्लंघन बेरोकटोक चलता रहा.

लेकिन कोविड-19 ने पोल पट्टी खोल दी

जैसे सेना/वर्दीधारी अधिकारी कोड्स, प्रोटोकॉल्स और नैतिकता का पालन किया करते हैं- वैसे ही मेडिकल बिरादरी के लोग भी एलोपैथी के कड़े मानदंडों, आचरण और ‘दावों’ पर टिके रहते हैं, अधिक औपचारिक रूप से और जिम्मेदारी के साथ. कोई दवा कितनी कारगर है, सार्वजनिक मंच पर इसका दावा करने से पहले लंबी-चौड़ी, मानकीकृत और पारदर्शी जांच प्रक्रिया अपनाई जाती है. इसका कड़ाई से पालन होता है, कोई शॉर्ट कट नहीं अपनाया जाता, न ही किसी तरह का समझौता किया जाता है.

पिछले कई सालों से बाबाजी के कई प्रॉडक्ट्स ने अलग-अलग किस्म के दावे किए हैं. ‘सभी बीमारियों का एक इलाज’ कहे जाने वाले प्रॉडक्ट्स ने बाजार पर राज किया है. तिस पर, बेशर्मी से अनुचित बयान दिए जाते रहे. जैसे ये प्रॉडक्ट्स ‘नुकसानदेह नहीं’ या ‘इसके कोई साइड इफेक्ट्स नहीं होते’, क्योंकि यह आयुर्वेद या ‘नेचुरल’ हैं. ऐसे में मतभेद खत्म हो जाते हैं. और विज्ञान- मेडिसिन मुंह ताकते रह जाते हैं.

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कोविड-19 जैसी महामारी ने आंखें खोलने का काम किया था. बाबाजी लोगों, नीम हकीमों और टेलीवेंजेलिस्ट यानी टीवी पर दवाखाना खोलकर बैठने वालों के पास मौका था कि अपने दावों को सही साबित करके दिखाते. लेकिन किसी ने ऐसा नहीं किया. कुछ लोगों ने ‘इम्युनिटी बढ़ाने’ की दवाएं बेचनी शुरू कर दीं, कुछेक भ्रम फैलाने का काम करने लगे. सरकार ने भी चुप्पी साधकर उन्हें बढ़ावा दिया.

फिर अदालत में जज ने यह फैसला सुनाया कि “कोरोनावायरस का इलाज बताकर आम लोगों के डर और घबराहट का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया जा रहा है”, और आयुष मंत्रालय और डब्ल्यूएचओ ने मजबूरन बयान दिया कि उन्होंने किसी किस्म के कोई सर्टिफिकेट जारी नहीं किए हैं. इन सबके बावजूद यह अभियान बड़े पैमाने पर चलता रहा. कुछ दोस्ताना खामोशी के साथ, तो कुछ बेशर्म रजामंदी के साथ. इरादतन या अनजाने में वैज्ञानिक चिकित्सा शास्त्र को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा जाता रहा, वह भी उस वक्त जब विज्ञान आधारित औचित्य और गंभीरता की सबसे ज्यादा जरूरत थी.

विज्ञान को नजरंदाज करना

इसके बाद इन प्रख्यात ‘बाबाजी’ में इतनी हिम्मत आ गई कि वह विज्ञान पर आधारित एलोपैथी का ही मजाक उड़ाने लगे. उन्हें भारत में कोविड की तबाही के लिए जिम्मेदार बताने लगे और ऑक्सीजन लेने वाले मरीजों की हंसी उड़ाने लगे. महामारी में सबसे अगड़ी कतार में खड़ा होने वाली चिकित्सक बिरादरी इन गैर जिम्मेदाराना और बेशर्म टिप्पणियों से परेशान और हताश हुए. वे और बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.

सरकार तो पहले ही कोविड की बदइंतजामी के बीच दो कदम पीछे हट चुकी है. उसे मजबूर होकर ‘बाबाजी’ को पुकारना पड़ा और बाबाजी ने बेमन से अपना बयान वापस लेने की पेशकश की. लेकिन इसके बाद भी उन्होंने विज्ञान और प्रमाण आधारित एलोपैथी की बेसिर पैर की आलोचना जारी रखी.

रामदेव का सिक्योरिटी वेंचर- पराक्रम सुरक्षा

इसी तरह बाबा रामदेव का सिक्योरिटी वेंचर पराक्रम सुरक्षा भी भय की आशंका जताता है. आम तौर पर व्यवसायों या घरों को सुरक्षा देने का काम कानूनन किया जाता है, और यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा करता है. लेकिन अगर इसका मकसद देश के हर नागरिक के भीतर ‘सैन्य प्रवृत्ति पैदा करना हो’ ताकि हर नागरिक में राष्ट्रीय सुरक्षा की भावना जगाई जा सके, तो किसी खतरनाक संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

प्राइवेट एजेंसी और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’- इनकी एक साथ परिकल्पना की जा रही हो तो उससे तुरंत खारिज कर दिया जाना चाहिए. वह भी ऐसे शख्स की एजेंसी जो खुद ही बता चुका है कि वह किस पक्ष के प्रति मोह रखता है.

अगर ‘राष्ट्रीयता’ की व्याख्या किसी व्यक्ति या पक्ष की तरफ से की जाएगी, तो वह देशप्रेम के प्रति सेना की संवेदना, मान-मर्यादा और समझ को खत्म कर सकती है. वैसे बाबाजी ने पहले कहा था- ‘पीटेंगे नहीं, पर पिटेंगे भी नहीं’, पर इस बयान पर कौन भरोसा करेगा- वह भी उस दौर में, जब किसी को भी एक पल में ‘देशद्रोही’ कह दिया जाता हो और विजलांटिज्म शुरू हो जाता हो.
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जब पेशा हथियार उठाना हो तो व्यक्ति को पक्षपात से दूर रहना चाहिए

सेना को अति भावुकता, जूनून और ‘देशप्रेम’ की चमक-दमक के साथ देखना, पुराने जमाने की बात है, और इसके गंभीर नतीजे भी हुए हैं. अब मेडिकल बिरादरी का भी अपने पेशे से मोह भंग हो गया है. उम्मीद है कि इसके दूसरे नुकसान नहीं होंगे. राष्ट्रीय हित प्रभावित नहीं होगा और संविधान का संरचना पर असर नहीं होगा.

जब पेशा हथियार उठाना हो, तो आपको पक्षपात रहित होना चाहिए. इसका कोई विकल्प नहीं है. जैसे चिकित्सा और स्वास्थ्य क्षेत्र में विज्ञान का कोई विकल्प नहीं. उसके साथ समझौता करेंगे तो नागरिकों और देश, दोनों को नुकसान होगा.

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने समझ लिया था कि राजनीति में ‘मतभेद’ और असहमतियां अनिश्चित होती हैं, और सामान्य भी. तभी उन्होंने कहा था कि सेना को किसी के हिसाब से बदलना नहीं चाहिए: “हम अमेरिकी किसी मुद्दे पर असहमत हो सकते हैं, बहस कर सकते हैं. यह लोकतंत्र का हिस्सा है. यह कई बार अप्रिय हो सकता है. हो सकता है कि कई बार इसका नतीजा यह हो कि वॉशिंगटन में हमारा काम करना मुश्किल हो जाए. लेकिन लिबरल या कंजरवेटिव, डेमोक्रेट या रिपब्लिकन, व्हाइट, ब्लैक, ब्राउन, अमीर, गरीब- हमारा धार्मिक झुकाव जो भी हो, हम किसी से भी प्रेम करें- जब सैन्य बलों की बात आती है, जब बात आपकी और आपके परिवार की आती है, अमेरिकन्स के तौर पर हम एक हो जाते हैं. हमें आप पर गर्व है. हम आपको पूरा सहयोग देते हैं. और हम आपका एहसान कभी नहीं चुका पाएंगे.”

यहां भी राष्ट्रीय सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी किसी व्यक्ति या राजनैतिक दल को नहीं दी जा सकती. सिर्फ अपनी अराजनैतिक ‘वर्दीधारी’ बिरादरी को छोड़कर.

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(रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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