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औरतों की आर्थिक आजादी आखिर किसके हाथ?  

आर्थिक आजादी के मामले में पलड़ा अभी भी बुरी तरह मर्दों की ओर झुका नजर आता है

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अमृता पिछले 30 सालों से सरकारी नौकरी में हैं. अपने परिवार में सरकारी नौकरी करने वाली वो पहली औरत थीं. और इस वजह से उन्हें परिवार में काफी मान-सम्मान भी मिलता आया. लेकिन जब बात आर्थिक आजादी की हो तो उनकी स्थिति साथ की दूसरी घरेलू महिलाओं से खास अलग नहीं.

वो हंसते हुए बताती हैं, “मेरी तनख्वाह पति के साथ वाली ज्वॉइंट अकाउंट में ट्रांसफर होती है जबकि उनकी तनख्वाह उनके अकेले के अकाउंट में जाती है. बाकी पैसे कैसे-कहां खर्चने हैं, वो सब इनकी मर्जी से होता है. दो लोगों की तनख्वाह से घर में पैसों की खींचतान तो नहीं, ऐसा भी नहीं कि मुझ पर कोई रोक है. लेकिन मैं अपने पैसे बिना इनको बताए खर्च नहीं कर सकती”

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औरतों की समझदारी पर उठते हैं सवाल

अजीब विरोधाभास है, हमारे देश में बड़ी कंपनियों के शीर्ष पर बैठी औरतों में ज्यादातर बैकिंग और फाइनेंस के क्षेत्र से हैं. फिर वो आईसीआईसीआई की चंदा कोचर हों, एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा, जेपी मॉर्गन की कल्पना मोरपरिया, कोटक महिन्द्रा बैंक की शांति एकाम्बरम, एलआईसी की उषा सांगवान और सुनीता शर्मा या हाल ही में स्टेट बैंक के सीएमडी पद से रियाटर हुई अरुंधति भट्टाचार्य. फिर भी बड़े आर्थिक फैसलों को लेकर महिलाओं की समझदारी और जागरुकता पर जब तब सवाल उठते रहते हैं.

मध्यवर्गीय घरों में अमूमन धारणा ये ही है कि पैसों का लेन-देन औरतों की समझ में कम आता है. इसलिए पैसों से उनका नाता घर के राशन और कपड़ों की शॉपिंग तक ही सीमित रहे तो बेहतर. वहीं खरीद और निवेश के बड़े फैसले लेना अभी भी पतियों का सहज अधिकार क्षेत्र माना जाता है.

विज्ञापन जगत में टारगेट ऑडिएंस

सामाजिक परिपाटी की ताल पर ता-ता थैय्या करने वाले विज्ञापन बाजार की चाल-ढाल भी इसी मानसिकता की तस्दीक करती नजर आती है. टीवी पर आने वाले विज्ञापनों पर एक सरसरी निगाह डाल लें, मंहगी खरीद और निवेश से जुड़े विज्ञापन न्यूज चैनलों पर या उन कार्यक्रमों के दौरान दिखाए जाएंगे, जिनके टारगेट ऑडिएंस मर्द हैं.

वहीं औरतों को ध्यान में रखकर बनाए गए कार्यक्रमों के दौरान घरेलू साजो-सामान और एफएमसीजी सामानों के विज्ञापन ज्यादा नजर आते हैं. सितम ये कि गहनों के विज्ञापन मर्दों को टारगेट करते हैं, क्योंकि विज्ञापन एजेंसियों का परसेप्शन है किअपनी पत्नियों के लिए गहनों की खरीद मर्द ही करते हैं.

सॉफ्टवेयर इंजीनियर भावना का कहना है कि ईएमआई और घर खर्च जैसे निश्चित खर्चे उनकी जिम्मेदारी है, जबकि बचत और निवेश का जिम्मा उनके मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव पति का है. भावना कहती हैं, “मेरे हिस्से के खर्चे सीमित हैं इसलिए मेरे एकाउंट में कितने पैसे हैं पति को पता है, उनके अकाउंट का हिसाब मुझे नहीं पता होता.”

श्वेता और उनके पति दोनों बैंकर हैं. श्वेता कहती हैं कि ईएमआई दोनों की तनख्वाह से बराबर जाता है जबकि निवेश का फैसला आपसी सहमति से होता है. हालांकि, उनका कहना है कि बाजार को लेकर उनका इन्सटिंक्ट बेहतर है, इसलिए आखिरी मुहर उनकी ही होती है. लेकिन हर बीवी बैंकर नहीं होती, होता हो हर पति भी नहीं है लेकिन गृहस्थी की सीमित परिधि में वो ही सर्वज्ञानी माना जाता है.

हाल के सालों में महिला कस्टमर्स को लुभाने के लिए एक ओर बैंक कम ब्याज दर पर लोन के ऑफर दे रहे हैं तो कुछ राज्य सरकारें महिलाओं के नाम पर खरीदी गई प्रॉपर्टी पर रजिस्ट्री माफ कर रही हैं. इससे महिला ग्राहकों की तादाद तो बढ़ी है लेकिन ज्यादातर मामलों में औरतों की भूमिका पति के सुझाए खानों में दस्तखत करने भर तक सीमित रहती है.

कई औरतों के लिए 'आम बात'

वैसे कई औरतें इसे इतना बड़ा मुद्दा मानती भी नहीं. और ना ही उनकी नजर में ये उनकी आजादी का अतिक्रमण है. उनका मानना है कि नौकरीपेशा हो या हाउसवाइफ, घर चलाने की रोजमर्रा की जिम्मेदारी औरतों के हिस्से ही आती है. लाख आधुनिक हो लें, घर के अनगिनत छोटे काम मर्द कर ही नहीं सकते. इसलिए कम से कम बिल और किश्तें चुकाने का काम ही कर लें और खरीद और निवेश के फैसले ही ले लें, ताकि बीवियों को कहीं तो चैन मिले.

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मर्दों की जिद रिश्तों में खटास लाती हैं

मामला जब तक आपसी समझ और रजामंदी से चलता रहे तब तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन मुश्किल तब होती है जब पैसों के मामले में मर्दों की ओर से पारदर्शिता की कमी रहती है और पत्नी के पैसों के पाई-पाई का हिसाब रखने को वो अपने अधिकार क्षेत्र में मानते हैं. मर्दों का कन्ट्रोल फ्रीक होना यहां खटास की वजह बनता है. जब परिवार में सामंजस्य हो और खर्च संबंधी फैसले आपसी सहभागिता से लिए जाते हों तो फर्क नहीं पड़ता कि पैसे किसके अकाउंट से जा रहे हैं. लेकिन यहां भी फैसले का अधिकार अपने हाथ में रखने की मर्दों की जिद और बेजरूरत कोशिश कई बार रिश्तों को थोड़ा असहज कर देती है.

समाज में मौजूद हैं कई 'सारिका' और 'साक्षी'

‘सारिका’ ने शादी के पहले ही अपनी सेविंग्स से छोटा सा घर खरीद रखा था. उनके माता-पिता का मत था कि बेटी की आर्थिक सुरक्षा के लिए ये एक जरूरी कदम होगा. लेकिन सारिका को उस वक्त झटका लगा जब शादी के बाद पति बार-बार उन्हें घर बेचने के लिए मजबूर करने लगे. पति की दलील ये थी कि उन पैसों का इस्तेमाल वो बड़ा घर खरीदने के लिए करेंगे जो दोनों के नाम पर हो. कलह से बचने के लिए सारिका ने तो पति की बात मान ली लेकिन ‘साक्षी’ के लिए ये दबाव शादी टूटने की वजह बन गई.

मर्चेंट नेवी में काम कर रही ‘साक्षी’ की तनख्वाह अपनी उम्र के औसत भारतीय मर्दों से काफी ज्यादा थी. उसे हमेशा यही लगा कि शादी का मतलब एक समझदार साथी का मिलना होगा क्योंकि आर्थिक आत्मनिर्भरता उसके लिए कोई मसला ही नहीं था. लेकिन शादी के बाद पति और ससुराल वालों की मांग हुई कि साक्षी अपने माता-पिता के नाम पर खरीदी गई प्रॉपर्टी वापस ले ले, क्योंकि अब उस पर उनके ससुराल वालों का हक होना चाहिए. साक्षी को ये फरमान उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण लगा और अपने स्वाभिमान पर आघात. कुछ महीनों की कड़वाहट के बाद उन्होंने अपने रास्ते अलग कर लिए.

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मामला जब औरतों से जुड़ा हो तो बहस का एक सिरा कहीं न कहीं से आकर पितृसत्तात्मक सोच से जुड़ ही जाता है.  बदलती सामाजिक परिपाटी ने कमाने वाली पत्नियों को तो स्टेटस सिंबल मान लिया है, लेकिन उसकी कमाई पति के घर की मिल्कियत ही मानी जाती है. ऐसे में वो पढ़ी-लिखी कमाऊ होने के बाद भी वैसे घोड़े की सवारी करती नजर आती है, जिसका चाबुक भले उसके हाथ में हो लेकिन लगाम कभी उसे सुपुर्द नहीं किया जाता.

वजह चाहे कोई भी हो, आर्थिक आजादी के मामले में पलड़ा अभी भी बुरी तरह मर्दों की ओर झुका नजर आता है.

(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोएनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्‍होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है.)

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