जब से ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का दामन छोड़ा है, सियासी गलियारों में ये चर्चा छिड़ गई है कि युवा नेता सचिन पायलट भी कांग्रेस से दूरी बना सकते हैं. सिंधिया के करीबी माने जाने वाले राजस्थान के उप-मुख्यमंत्री पायलट के बारे में कयास लगाए जा रहे हैं कि वो भी जल्द ग्वालियर के ‘महाराजा’ की तरह बागी तेवर अपना सकते हैं.
बड़ा सवाल ये है क्या पायलट भी सिंधिया की तरह पार्टी से विद्रोह कर बीजेपी में शामिल हो जाएंगे?
सिंधिया और पायलट की समानताएं और परिवेश
इसमें कोई शक नहीं है कि पायलट और सिंधिया में कई सारी समानताएं हैं. यूपीए के समय में ये दोनों राहुल गांधी की ‘यंग ब्रिगेड’ के सबसे जरूरी हिस्सा थे. दोनों ना सिर्फ तेज तर्रार और बेहतरीन वक्ता हैं, बल्कि कांग्रेस के दो लोकप्रिय और दिग्गज नेता – राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया के बेटे हैं. इनकी सियासी वंशावली की वजह से दोनों को मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में मंत्री बनाया गया था और 2018 में दोनों ने मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए जबरदस्त कैंपेनिंग की थी. माना जा रहा था कि दोनों राज्यों में अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो उसकी कमान सिंधिया और पायलट के हाथों में ही सौंपी जाएगी, लेकिन पार्टी हाईकमान ने दो पुराने कांग्रेसी नेताओं को दोनों सूबे का मुख्यमंत्री बना दिया.
जाहिर तौर पर दोनों युवा नेता जिस बात से कांग्रेस हाईकमान से नाराज हैं वो भी एक ही है.
अगर मध्य प्रदेश में सिंधिया कमलनाथ/दिग्विजय की जोड़ी से नाराज हैं, तो पायलट और अशोक गहलोत के बीच की दूरियां भी राजस्थान में किसी से छिपी नहीं है. असल में, मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के बीच की ये खींचतान पिछले 15 महीने से राजस्थान की कांग्रेस सरकार की अनचाही और अनवरत हिस्सा बन गई है. कई बार राज्य में कानून और व्यवस्था (गहलोत राज्य के
गृह मंत्री भी हैं) से नाराज पायलट ने सरेआम सीएम पर वार किए हैं – हाल की बात करें तो करीब दो महीने पहले ही कोटा के सरकारी अस्पताल में नवजात बच्चों की मौत पर उन्होंने गहलोत को आड़े हाथों लिया.
राजस्थान में गहलोत की सरकार गिराने के लिए सचिन पायलट को क्या करना होगा?
दोनों नेताओं में समानताओं के बावजूद कई ऐसी असमानताएं भी हैं जिसकी वजह से पायलट सिंधिया के रास्ते जाएं इसकी संभावना बहुत कम है. पहली बात ये कि पायलट मध्य प्रदेश में सिंधिया की तरह अलग-थलग और सत्ताहीन नहीं हैं. सचिन पायलट के पास उप-मुख्यमंत्री और राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष जैसे दो बड़े पद हैं, जिसके जरिए वो और उनके समर्थक सरकार और पार्टी दोनों में गहरी पैठ रखते हैं.
पंचायती राज और ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर पायलट ने मनरेगा के तहत सभी राज्यों में सबसे बेहतरीन काम कर दिखाया है.
राज्य के बड़े अधिकारी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पायलट के विभाग की फाइल मुख्यमंत्री के कार्यालय में नहीं जाती और गहलोत ने कभी भी पायलट के विभागों की समीक्षा नहीं की है, जबकि वो दूसरे सभी विभागों की बराबर समीक्षा करते रहते हैं. हो सकता है पायलट जितना चाहते हैं उतनी ताकत उनके पास ना हो, लेकिन सत्ता में पायलट की मौजूदगी ने राजस्थान में दो पावर सेंटर जरूर बना दिया है जबकि गहलोत तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं.
इसके अलावा राजस्थान विधानसभा का सियासी गणित भी पायलट को सिंधिया के नक्श-ए-कदम जाने से रोकता है.
200 सदस्यों की विधानसभा में, कांग्रेस के पास 107 विधायक हैं, इसके अलावा गहलोत सरकार को 12 निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन हासिल है. जबकि बीजेपी के पास सिर्फ 73 विधायक हैं. गहलोत सरकार को गिराने के लिए सचिन पायलट को कांग्रेस विधायकों के एक बड़े हिस्से को तोड़ना पड़ेगा. पार्टी के अंदरूनी जानकारों का मानना है कि अपने विधायकों पर गहलोत की पकड़ बहुत
मजबूत है, और पायलट अगर कोशिश भी करें तो पार्टी में बड़ी तादाद में विधायकों के बागी होने की कोई संभावना नहीं है.
‘अब्दुल्ला फैक्टर’ की वजह से सचिन कभी बीजेपी में शामिल नहीं होंगे
नंबर गेम से भी ऊपर है ‘अब्दुल्ला फैक्टर’. सचिन की पत्नी सारा जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की बेटी हैं. वो हाल ही में अपने पिता और भाई उमर अब्दुल्ला की रिहाई के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी हैं. दोनों मोदी सरकार के आदेश पर अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद सात महीने से नजरबंद रहे. अब जहां शुक्रवार को अचानक फारूक की रिहाई को दबी जुबान में सचिन को खुश करने की कवायद बताया जा रहा है, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कश्मीर में उनके ससुराल वालों के साथ दुर्व्यवहार के बाद सचिन का बीजेपी में शामिल होना नामुमकिन हो गया है.
बतौर नेता सचिन की पहचान भी सिंधिया से अलग है
2014 में राजस्थान जाकर पायलट ने वहां जमीनी स्तर पर काम शुरू कर दिया, जिससे राजनीति में उनकी जड़ें मजबूत हो गई हैं और वो खुद को जनता का नेता बनाने में कामयाब हो गए.
जहां सिंधिया संसद से एक साल बाहर रहते ही बेचैन हो उठे, पायलट 2014 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकलने के बाद लगातार पांच साल तक कड़ी मेहनत करते रहे. नतीजा ये हुआ पायलट अब दिल्ली में सियासत करने वाले युवा और आकर्षक नेता नहीं रहे, वो एक मंजे हुए राजनेता बन गए हैं जो मरुस्थली राज्य में अपना भविष्य तैयार कर रहा है.
सचिन पायलट की हैसियत अब जनता के नेता की हो गई है
हैरानी की बात नहीं है कि पायलट लगातार छह सालों से राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं और अपने पिता की तरह वो भी ऐसा नेता बनना चाहते हैं जिसकी ताकत जनता से होती है, पार्टी हाई-कमान से नहीं. इसके अलावा पायलट का जनाधार – गुर्जर जनजाति – भी ऐसे लोगों से है जो बीजेपी के बदले कांग्रेस के साथ ज्यादा सहज है.
जहां सिंधिया शाही फैक्टर का इस्तेमाल करते हैं, पायलट की सादगी और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि उन्हें आम जनता से जोड़ती है, अपने पिता के लोकप्रिय अंदाज में वो भी ‘राम-राम सा’ करते हुए लोगों से मिलते हैं. जहां सिंधिया दिल्ली-सर्किट में आराम फरमाते रहे, पायलट 2014 के बाद बने हालात में आम लोगों का नेता बनकर उभरे – और अपनी मेहनत से हासिल की गई हैसियत को वो किसी मामूली फायदे के लिए बर्बाद नहीं करेंगे.
आखिर में सबसे बड़ा सवाल – कांग्रेस से तमाम निराशा हासिल होने के बावजूद क्या पायलट बीजेपी में शामिल हो सकते हैं?
हमें ये याद रखना चाहिए कि सिंधिया की जड़ संघ परिवार से जुड़ी रही है – चाहे वो उनकी दादी विजया राजे हों या बुआ यशोधरा और वसुंधरा राजे हों – जबकि पायलट के परिवार में किसी का बीजेपी से कोई वास्ता नहीं रहा. पायलट पहले से राजस्थान के उप-मुख्यमंत्री हैं, इसलिए जब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पक्की ना हो, वो पार्टी बदलने की हड़बड़ी नहीं दिखाएंगे. बड़ी बात ये है कि वसुंधरा राजे, ओम माथुर और गजेन्द्र शेखावत जैसे राजस्थान के दिग्गज बीजेपी नेता कभी भी पायलट को मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे. जहां गहलोत सरकार को गिराने के लिए बीजेपी को पायलट की मदद चाहिए होगी, सचिन मुख्यमंत्री पद से नीचे किसी भी शर्त पर बीजेपी से कोई समझौते के लिए तैयार नहीं होंगे.
सचिन पायलट बीजेपी की जाल में नहीं फंसेंगे
जाहिर है किसी भी दूसरे माहिर राजनेता की तरह, पायलट भी आखिरी फैसला लेने से पहले हर विकल्प पर पूरी तरह सोच विचार करेंगे. पायलट जानते हैं कि गहलोत के बाद वो कांग्रेस की दूसरी पसंद हैं और राजस्थान में वो कांग्रेस के भविष्य के तौर पर देखे जाते हैं. पायलट सिंधिया से करीब आठ साल छोटे हैं, इसलिए अभी उनके पास मुख्यमंत्री का पद हासिल करने के लिए काफी वक्त भी है.
एक तरह से देखा जाए तो सिंधिया का ये विद्रोह पायलट के लिए वरदान बनकर आया है.
कांग्रेस का हाथ छोड़ने के बजाए, पायलट इस नए मौके को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, और पार्टी हाई-कमान पर देर-सवेर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का दबाव बना सकते हैं.
साफ है पायलट भारतीय राजनीति में अपने लिए आम जनता के नेता की खास पहचान बनाना चाहते हैं, ऐसे में वो नहीं चाहेंगे कि उनकी इमेज एक ऐसे राजनेता की बने जिसके लिए विचारधारा कोई खास मायने नहीं रखता हो और वो मौकापरस्ती की राजनीति करता हो. जहां बीजेपी के लिए पायलट बड़ी मछली साबित हो सकते हैं, वो इतनी जल्दी किसी जाल में नहीं फंसने वाले हैं.
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