कल्पना कीजिए आप कौन बनेगा करोड़पति के करोड़ रुपये से सिर्फ एक जवाब भर दूर हों. रौबिला एंकर अपनी भारी और गूंजती आवाज में, रहस्यमयी ठहराव लेते हुए, ललचाती बातों से आपका तनाव बढ़ा रहा हो.
सवाल – भारत सरकार के सामने तीन नाकाम कंपनियों में से एक को बचाने का विकल्प है. इनमें से किस कंपनी को सरकार बचाएगी?
A: सरकारी कंपनी, या
B: निजी लेकिन नाजुक हालत में पहुंच चुकी कंपनी, या
C: महज निजी कंपनी, या
D: इनमें से कोई नहीं
आप अचानक राहत की सांस लेते हैं, आपकी आंखों में एक करोड़ रुपये चमकने लगते हैं. ये लो, एक करोड़ रुपये के लिए इतना आसान सवाल. आप आगे झुकते हैं, पूरे आत्मविश्वास से संभली हुई आवाज में जवाब देते हैं:
‘A, सरकारी या पब्लिक लिमिटेड कंपनी’.
एंकर (सिसकती आवाज में): “अफसोस, गलत जवाब! C, महज निजी कंपनी, सही जवाब है.’’
आप हैरानी निढाल हो जाते हैं. ये जरूर किसी की गलती रही होगी. फिर आप उछल कर खड़े होते हैं, पूरी दृढ़ता से एंकर को चुनौती देते हैं:
‘नहीं सर, आप गलत कह रहे हैं. हमारे पॉलिसीमेकर्स वाले कभी भी किसी सरकारी कंपनी को दिवालिया होने की इजाजत देकर एक ‘महज’ प्राइवेट कंपनी को बचाने का काम नहीं करेंगे. यह मुमिकन ही नहीं है. मैं आपको चुनौती देता हूं कि आप इन तीनों कंपनियों के नाम जाहिर करें.’
एंकर (मुस्कुराते हुए): “A. IL&FS; B यस बैंक; और C, सही जवाब है सत्यम कंप्यूटर्स, जिसे अब टेक महिंद्रा कहते हैं. अगर आपको अब भी मुझ पर यकीन नहीं, तो मैं आपको उनकी कहानियां बता सकता हूं?”
तो सुनिए (अब मुलायम, भारी आवाज सख्त हो जाती है)...
करीब दो साल पहले, 2018 के सितंबर में एक बदनसीब दिन, सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनांस कंपनी (IL&FS) से अपने हाथ खींच लिए, जो कि 90,000 करोड़ रुपये के कर्ज तले दब गई थी. नौकरशाहों की दलील थी कि यह एक निजी संस्था है; सरकार को इसकी भूल-चूक की भरपाई नहीं करनी चाहिए; दिवालिया व्यवस्था को अपना काम करने देना चाहिए.
यह सरासर मूर्खता थी. IL&FS को एक अर्ध-संप्रभु इकाई माना जाना था, जो कि पब्लिक सेक्टर के दिग्गजों के समूह - जिसमें कि भारतीय स्टेट बैंक (SBI) और भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) भी शामिल थे - के स्वामित्व और नियंत्रण में था. यह ध्वस्त होने से पहले भी पिछले हफ्तों में कई बार गड़बड़ी कर चुका था. इसे 31 मार्च 2019 तक 34,000 करोड़ रुपये की अपेक्षाकृत छोटी रकम चुकानी थी. इसका ऑपरेटिंग कैश फ्लो निगेटिव था, लेकिन इसे बचाया जाना जरूरी था – अन्यथा इसका असर विनाशकारी होने वाला था. और वही हुआ भी.
बाजार से निवेशकों के 10 लाख करोड़ ($ 150 बिलियन) से अधिक की संपत्ति का सफाया हो गया.
क्रेडिट इकनॉमी ठप्प हो गई. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सावधि ऋण में 40,000 करोड़ रुपये मुहैया कराना था. भविष्य निधि और पेंशन/बीमा फंडों से अतिरिक्त 30,000 रुपये हवा हो गए. एनबीएफसी, म्यूचुअल फंड और दूसरों को 20,000 करोड़ रुपये की बकाया राशि देन के लिए मजबूर किया गया.
(भारी आवाज फिर से नरम हुई) अफसोस, गलत फैसला.
$3 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था को कुछ अरब डॉलर की देनदारियों के लिए बंधक नहीं बनाया जाना चाहिए था.
और अब, दो साल बाद, हम यह भी जानते हैं कि 99,000 करोड़ रुपये के कर्ज में से 57,000 करोड़ रुपये की वसूली की जा रही है. सिर्फ सरकार ने हाथ खींचने के बजाए 34,000 करोड़ रुपये की मदद कर दी होती तो...
यस बैंक का ‘रचनात्मक विनाश’
खैर, अब मुझे सीधे यस बैंक पर आने दीजिए. एक समय ऐसा भी था जब यह भारत के निजी बैंकों का पोस्टर बॉय होता था - जब तक कि यह अपने सौम्य को-फाउंडर के कथित लालच और अपराधों से बेहाल नहीं हो गया. फोरेंसिक पड़ताल में लोन बुक में भयानक गड़बड़ी का खुलासा हुआ. बैंक डिपॉजिट में मौजूद 2 लाख करोड़ से ज्यादा रुपये ($ 30 बिलियन, या भारत के GDP का 1 प्रतिशत) पर खतरा मंडरा रहा था. सरकार के लिए यह एक दुविधा की घड़ी थी – अगर सरकार दखल देती, खासकर IL&FS जैसी अर्ध-संप्रभु इकाई को दिवालिया होने देने के बाद, तो इस पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने और और भाई-भतीजावाद का आरोप लगता; अगर वो चुपचाप सब देखती रहती, तो पहले से नाजुक वित्तीय प्रणाली के पूरी तरह तबाह होने का खतरा था.
गनीमत है, सरकार ने अपनी स्वामित्व वाली युद्ध-में-आजमाया-योद्धा, SBI - जो कि IL&FS की तबाही को दूर से देखता रहा, जबकि इस कंपनी में SBI प्रमुख शेयरधारक था – को यस बैंक को बचाने के लिए मैदान में भेज दिया. SBI ने इसमें एक अरब डॉलर झोंक दिया, ग्राहकों का शांत करने के लिए बैंक में न्यूनतम 26 प्रतिशत हिस्सेदारी बनाए रखने का भरोसा दिया. मुट्ठी भर और उत्सुक कंपनियों ने इसमें पैसे लगाए, और पब्लिक ऑफर से कुछ अरब डॉलर की उगाही हो गई.
पूंजीवाद के ‘रचनात्मक विनाश’ की गौरवशाली मिसाल के तौर पर पहले से मौजूद शेयर और बॉन्ड धारकों का बंटाधार हो गया.
और ये लो, इस सप्ताह यस बैंक ने एक छोटा लाभ भी दिखाया है, जाहिर है अब ये वेंटलिटेर से हट चुका है.
(अपनी भारी आवाज को नरम करते हुए एंकर ने कहा): “और इस तरह, B एक निजी और नाजुक दौर में पहुंची कंपनी को बचा लिया गया. हालांकि, अब मैं आपको, C – महज निजी कंपनी - की कहानी बताने के लिए, दस साल पीछे ले जाऊंगा, जिसे और भी आक्रामक तरीके से बचाया गया.”
बिलियन डॉलर का फर्जीवाड़ा था सत्यम
सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज लिमिटेड साठ-सत्तर देशों और छह महाद्वीपों में फैली एक मल्टी-बिलियन-डॉलर कंपनी थी (इसने 650 से ज्यादा ग्लोबल कंपनियों को अपनी सेवाएं दी, जिनमें से 185 कंपनियां Fortune 500 में शामिल थीं). 7 जनवरी 2009 को, इसके संस्थापक, रामलिंग राजू ने सभी स्टॉक एक्सचेंज को एक चौंकाने वाला कबूलनामा फैक्स किया:
“30 सितंबर, 2008 तक की बैलेंस शीट में 1 अरब डॉलर से ज्यादा के कैश और बैंक बैलेंस बढ़ा कर दिखाए गए हैं. बैलेंस शीट में ये अंतर पिछले कई सालों में बढ़ाकर दिखाए गए नफा की वजह से बना है. मैं अब खुद को देश के कानून को सौंपने और उसके नतीजों का सामना करने के लिए तैयार हूं.”
इसके बाद तो जैसे कहर टूट पड़ा.
सेंसेक्स से तेजी से हटाए जाने से पहले सत्यम के शेयर 78 प्रतिशत गिर गए और भारतीय बाजारों में 7 फीसदी की गिरावट आ गई. बाद में उस शाम (भारतीय समय के मुताबिक), न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज ने सत्यम की ट्रेडिंग पर रोक लगा दी. ब्रोकिंग फर्म CLSA ने इसे ‘भारत का एनरॉन’ बताया, कल्पना से बाहर की धोखाधड़ी और भारतीय कॉर्पोरेट प्रशासन के लिए एक शर्मनाक और चौंकाने वाला प्रकरण बताया.’
तीसरे दिन, भारत की कंपनी लॉ बोर्ड ने अपनी सभी शक्तियों का उपयोग कर सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज की पूरी बोर्ड को बर्खास्त कर दिया; लेकिन हमेशा से अलग, सरकार ने ना तो कंपनी का राष्ट्रीयकरण किया ना ही इसे अपने नियंत्रण में लिया. ‘मौजूदा बोर्ड वो करने में विफल रहा जो उसे करना चाहिए था. भारत के आईटी क्षेत्र की विश्वसनीयता को नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा,’ ऐसा कहते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने निजी क्षेत्र के कुछ ईमानदार और वैश्विक विश्वसनीयता वाले पेशेवरों की नियुक्ति कर दी.
दुर्भाग्य से सत्यम के शेयर 544 रुपये से 12 रुपये तक गिर गए थे, इसलिए औसतन छह महीने का भाव स्कैंडल के बाद कंपनी के गिरे भाव के लगभग पांच गुना के बराबर हो चुका था.
इसलिए SEBI के सख्त मूल्य निर्धारण नियमों के तहत सत्यम को बेचना असंभव था. हैरानी की बात ये है कि सेबी ने इस असामान्य हालात को संभालने के लिए पांच हफ्ते से कम समय में अधिसूचना निकाल कर नए नियम जारी कर दिए.
13 अप्रैल 2009 को, 7 जनवरी के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के तीन महीने के अंदर, सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज को ब्रिटिश टेलीकॉम और भारत के महिंद्रा समूह के साझा उपक्रम के हाथों 58 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से बेच दिया गया.
सत्यम के महिंद्रा सत्यम बनने के बाद इसके स्टॉक के दाम दोगुना से ज्यादा हो गए. इस हफ्ते, Tech Mahindra (सत्यम का नया नाम) ने बेहतरीन नफा दर्ज किया है.
आखिरी बात:
एक अच्छी सरकार को संस्थागत चेतना पर जोर देना चाहिए. क्योंकि प्रयोग के साथ, समझदारी भी बढ़ती है, सफलता और नाकामी से सीख मिलती है.
लेकिन हमारी सरकार अक्सर बेतरतीब ढंग से मनमर्जी से काम करती है.
2009 में सत्यम कंप्यूटर्स की हैरतअंगेज कामयाबी को और कैसे समझा जा सकता है, जिसे एक दशक बाद पूरी तरह से भुला दिया गया, और 2018 में IL&FS की दुखद नाकामी सामने आ गई.
और फिर, जादुई ढंग से, डेढ़ साल बाद, उसी सरकार ने चमकदार कवच की खोज कर यस बैंक को बचा लिया.
क्यों?
IL&FS जैसे अर्ध-संप्रभु और नाजुक हालात में पहुंच चुकी कंपनी को क्यों नहीं बचाया गया? कितनी पीड़ा और तबाही से बचा जा सकता था.
लेकिन फिर, रायसीना हिल के सत्ताधारियों के तरीके हमेशा से रहस्यमयी रहे हैं.
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