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पीएम मोदी को क्यों चाणक्य नीति से सीखने की जरूरत है 

नरेंद्र मोदी भले ही कमाल के लीडर हों, लेकिन लगता है कि वह खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं

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हर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान ऐसा समय भी आता है, जब वो खुद को घिरा हुआ महसूस करते हैं. अक्सर ऐसा कार्यकाल आधा पूरा होने के बाद होता है. तब उन्हें लगता है, ‘मैं इतनी कुर्बानियां दे रहा हूं और किसी को उसकी परवाह नहीं है. सब मेरी आलोचना कर रहे हैं. कोई यह नहीं समझ रहा कि मैं क्या करने की कोशिश कर रहा हूं.’

नरेंद्र मोदी भले ही कमाल के लीडर हों, लेकिन लगता है कि वह भी इस मर्ज का शिकार हो गए हैं.

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ऐसा करीब-करीब दुनिया के ज्यादातर लीडर्स के साथ हुआ है, जिसमें पहले नंबर पर रिचर्ड निक्सन हैं. वो ‘हाय मैं बेचारा’ सिंड्रोम का शिकार हुए. जब लीडर्स ऐसी सिचुएशन में फंसते हैं, तब सांत्वना की तलाश में वो सिर्फ उन लोगों की बातें सुनने लगते हैं, जो उनके मन की कहते हैं. नेगेटिव न्यूज और आलोचकों की बातें धीरे-धीरे उन तक पहुंचनी बंद हो जाती हैं. जवाहरलाल नेहरू भी इस मर्ज का शिकार हुए थे, जिसके चलते चीन से 1962 में युद्ध हुआ.

इंदिरा गांधी के साथ ऐसा 1974 और 1975 में हुआ, जब जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में नवनिर्माण आंदोलन अपने चरम पर था. इंदिरा ने तब उन लोगों की बातें नहीं सुनीं, जो उन्हें आगाह कर रहे थे. आखिर में इस वजह से उन्होंने इमरजेंसी लगाई. इसका नतीजा यह हुआ कि 1977 में न सिर्फ कांग्रेस की हार हुई, बल्कि इंदिरा और उनके बेटे संजय गांधी भी चुनाव हार गए.

गलत लोगों की सलाह मानने का यह सिलसिला 1987 के बाद राजीव गांधी के साथ भी चलता रहा और 1989 में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा.

1994 तक हर्षद मेहता स्कैम के बाद पीवी नरसिम्हा राव ने भी खुद को अलग-थलग कर लिया था. उस वक्त वह सिर्फ योगियों और मतलबी अधिकारियों की बातें सुनते थे. 1996 में उनके नेतृत्व में भी पार्टी हारी. अटल बिहारी वाजपेयी इस मामले में अपवाद थे, लेकिन उनके भी अपने फेवरेट थे. इसलिए 2004 में बीजेपी की हार हुई. मनमोहन सिंह को सच्चे अर्थों में प्रधानमंत्री नहीं माना जा सकता, लेकिन उन्होंने भी 10 साल तक देश की कमान संभाली थी.

मोदी की बारी

अब नरेंद्र मोदी की बारी है. गुजरात विधानसभा और राजस्थान उपचुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि वह भी विरोधियों की आवाज नहीं सुन रहे हैं. वह गलत लोगों की सुन रहे हैं. ये वो लोग हैं, जो उनसे कह रहे हैं कि इस तरह की खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है और यह कांग्रेस का प्रोपगैंडा है.

यह बात भले ही कुछ समय पहले तक सही थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. मोदी एक साथ किसानों, मध्य वर्ग, अमीरों, मुसलमानों, दलितों और यहां तक कि अपनी सहयोगियों यानी सबको नाराज कर रहे हैं. लोगों की मोदी से नाराजगी की दो वजहें हैं. पहली, सिर्फ किसान ही नहीं, हर वर्ग के हाथ में कम पैसा आ रहा है. कम महंगाई दर से इसकी भरपाई नहीं हो पा रही है. दूसरी बात यह है कि मोदी ने सत्ता भीड़ और ब्यूरोक्रेट्स के हवाले कर दी है. इसलिए हर कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है.

किसी को नहीं पता कि कब उसके साथ क्या हो जाएगा. पता नहीं कब आप पीटे जाएं, कौन आपको टैक्स नोटिस भेज दे और कब पुलिस वाले आपको प्रताड़ित करने लगें.

मोदी जानते हैं कि लोअर ब्यूरोक्रेसी कितनी दमनकारी हो सकती है. 2013 और 2014 में लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान वह इसका कई बार जिक्र कर चुके हैं. वहीं, 2002 गुजरात दंगों की वजह से उन्हें यह भी पता है कि बेकाबू भीड़ क्या कर सकती है. इस मामले में उनके सामने 1984 के सिख दंगों की भी मिसाल है.

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चाणक्य का मंत्र

देवदत्त पटनायक के मुताबिक, चाणक्य ने एक बार चंद्रगुप्त मौर्य से कहा था:

राजा के हाथ में तलवार होती है. जो लोग उनके आसपास खड़े होते हैं, उनके मन में उस तलवार का भय होता है. ऐसे लोग खुद को बचाने के लिए झूठ बोलने लगते हैं और राजा की चमचागिरी करने लगते हैं. राजा के मूड और उनकी राय से दरबार का आचरण तय होता है.

इसलिए मोदी को अब दूसरों की बातें सुननी चाहिए. उन्हें ब्यूरोक्रेसी और भीड़ को काबू में करना होगा. आधार के मिसयूज के मामले में ब्यूरोक्रेसी को गलती सुधारने के लिए कहकर वह इसकी शुरुआत कर सकते हैं. अगर वह ऐसा नहीं करते, तो 2019 चुनाव के नतीजों से उन्हें हैरानी नहीं होनी चाहिए.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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