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आखिर जांबाज सैनिकों के लिए एक जरूरी जंग क्यों है सियाचिन?

मीडिया ने सियचिन घटना को कवरेज दी, श्रद्धांजलि भी दी, पर सियाचिन पर इससे अलग और भी आवाजें हैं.

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सियाचिन ग्लेशियर में बर्फ के नीचे दब जाने वाले बहादुर सैनिक लांस नायक हनुमंथापा की शहादत ने एक कृतज्ञ राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा है. विषम परिस्थियों में भी न हारने वाली उनकी जिजीविषा और अदम्य साहस को इसका श्रेय जाता है.

देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर आम नागरिक ने ग्लेशियर में बर्फ धंसने के कारण शहीद होने वाले 10 सैनिकों ने श्रद्धांजलि दी. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.

प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया ने सियाचिन में हुई दुखद घटना को न सिर्फ कवरेज दी, बल्कि इससे जुड़ी जन-भावनाओं पर बात की और शहीदों को श्रद्धांजलि भी दी. पर इन सब आवाजों के बाद भी कुछ ऐसी अलग आवाजें हैं, जो सैनिकों के उस क्षेत्र में होने पर सवाल उठाती हैं.

द हिंदू में 11 फरवरी, 2016 को प्रकाशित एक आलेख में लिखा गया, “रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को यह एक ऐसी घटना नजर नहीं आती, जो उन्हें सियाचिन से भारतीय सैनिकों को हटा लेने के बारे में सोचने के लिए बाध्य करे.’’

पर्रिकर ने एक बेहद सधे हुए बयान में कहा भी था,

सियाचिन पर निर्णय देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. मैं इस नुकसान पर दुखी हूं, पर इसके कारण कोई और निर्णय लेना (सेना को हटा लेना) सही नहीं होगा.
मीडिया ने सियचिन घटना को कवरेज दी, श्रद्धांजलि भी दी, पर सियाचिन पर इससे अलग और भी आवाजें हैं.
देश के अलग-अलग कोनों में लांस नायक हनुमंथापा के लिए प्रार्थना करते लोग. (फोटो: द क्विंट)

मानव जीवन को इतनी विषम परिस्थियों में क्यों इतनी लापवरवाही के साथ छोड़ दिया जा रहा है? माना जाता है कि सेना के कमांडर अपने लक्ष्य को लेकर इतने केंद्रित होते हैं कि अगर लक्ष्य पा लिया जाए, तो वे इस बात की परवाह नहीं करते कि कितनी जानें गईं.

सच से परे कुछ भी नहीं जा सकता. सियाचिन जैसी मुश्किल जगह में बनाई गईं यूनिट्स और सब यूनिट्स के बीच के रिश्ते को तभी समझा जा सकता है, जब कोई वहां जाकर कुछ वक्त बिताए.

जब 6 से 8 सैनिक और एक अधिकारी एक फाइबर ग्लास से बनी झोंपड़ी में रह रहे हों, अपना भोजन एक-दूसरे के साथ साझा कर रहे हों, सुबह, दोपहर, शाम एक-दूसरे का चेहरा देखते हों, एक साथ गश्त पर जाते हों, तो वे एक-दूसरे की परवाह करना, एक-दूसरे के लिए जीना और मरना सीख लेते हैं. 19 मद्रास बटालियन के लिए भी स्थितियां इससे अलग नहीं थीं.

बचाव दलों ने दिन-रात इस उम्मीद पर काम किया कि कुछ सदस्य शायद चमत्कारिक रूप से बच गए हों. कंमाडिंग अधिकारी की देखरेख में किया गया यह बचाव कार्य इस दृढ़ संकल्प का ही नतीजा था कि वे लांस नायक हनुमंथापा को जीवित निकाल पाए और अन्य 9 सैनिकों के शव बरामद कर सके.

इस पूरे ऑपरेशन का श्रेय मेडिकल ऑफिसर्स, भारतीय वायुसेना के पायलट्स, आर्मी और उनके मेंटिनेंस व सपोर्ट स्टाफ को जाता है.


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जरूरी जानकारी

मीडिया ने सियचिन घटना को कवरेज दी, श्रद्धांजलि भी दी, पर सियाचिन पर इससे अलग और भी आवाजें हैं.
सियाचिन ग्लेशिर में बचाव अभियान. (फोटो: पीटीआई)

सैनिकों की जान की कीमत लगातार कम हुई है, खासकर नवंबर 2003 के युद्धविराम के बाद से. द हिंदू में छपे आलेख के लेखक तो यहां तक कहते हैं कि भारत का पिछले सालों में सियाचिन में सैनिक और आर्थिक निवेश उसे भारतीय सैनिकों को वहां तैनात करने के पीछे का जरूरी सामरिक कारण नहीं दे देता, जबकि साल दर साल हम वहां अपने सैनिक खो रहे हैं.

तो फिर सियाचिन का रणनीतिक महत्व क्या है? उत्तरी सेना के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एम. एल. छिब्बर ने कहा था कि सियाचिन वो हिस्सा है, जो दो विरोधियों को अलग करता है.

अगर पाकिस्तानियों के दृष्टिकोण को देखा जाए कि NJ 9842 के उत्तर की रेखा काराकोरम दर्रे से मिलती है, तो सीधे-सीधे यह शक्सगाम घाटी में चीनी उपस्थिति के बराबर होगी, जो दक्षिण में नुब्रा घाटी की ओर बढ़ रही है.

दुश्मनों की बुरी नजर

जैसी कि खबरें हैं, चीन गिलगिट और बाल्टिस्तान में प्रॉजेक्ट्स पर काम कर रहा है, तो श्योक घाटी के ठीक नीचे का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाएगा और खुंजेराब और काराकोरम दर्रे से होकर चीन और पाकिस्तान का भारत पर चढ़ आना मुश्किल नहीं रहेगा.

सियाचिन और साल्तोरो पर कब्जा, लद्दाख के लिए एक सुरक्षा कवच देती है और सेना की भाषा में लद्दाख और कश्मीर की ओर रास्ता देने वाले दर्रों के लिए भी जरूरी सुरक्षा देता है.

कुछ का मानना है कि साल्तोरो रिजलाइन पर कब्जे का सिर्फ सामरिक महत्व है, जबकि इसका कोई रणनीतिक महत्व नहीं है. उन्हें निश्चित रूप से सियाचिन की स्थितियों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है. उन्हें नहीं पता कि 18,000 फीट पर रक्षा के लिए तैयार सेना का क्या फायदा हो सकता है.

कोई भी सैनिक संस्था किसी भी जगह को अजेय नहीं मानती. किसी भी सफल या असफल हमले में बच जाने वाले से पूछिए. साल्तोरो की चौकियों पर भारी नुकसान के बाद भी लगातार अधिकार की कोशिश करते पाकिस्तानी रणनीतिकार बेवकूफ नहीं हैं. अगर कहीं सामरिक स्थिति का फायदा, रणनीतिक फायदा दिला सकता है, तो वह यहां है.

सियाचिन से सेना हटाए जाने की संभावना

नागरिकों और विश्लेषकों, दोनों का ही मानना है कि दोनों देश सबसे विषम परिस्थितियों में एक निरर्थक लड़ाई में उलझे हुए हैं. कोई भी विवेकशील व्यक्ति सियाचिन से सेना हटाने से होने वाले फायदे को देख सकता है

इस क्षेत्र को किसी शांति पार्क या फिर वैज्ञानिक महत्व की प्रयोगशाला में तब्दील किया जा सकता है. यहां वातावरण की रक्षा की जा सकती है और पर्वतारोहण अभियान चलाए जा सकते हैं. सबसे बड़ी बात, सैनिकों की जानें बचाई जा सकती हैं और दोनों देशों के खजाने को थोड़ी राहत मिल सकती है.

पर यहां एक चेतावनी है. क्या होगा कि पाकिस्तान इस बारे में हुई किसी संधि को तोड़कर हमला कर दे? लोग सलाह देंगे कि संधिपत्र की शर्तों में ऐसी किसी घटना को रोकने के लिए सजा पर साफ लिखा जाना चाहिए.

पर हकीकत में सजा देने की कार्रवाई के बारे में बात करना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. सबसे मुश्किल है ऐसा करने के लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना.

परस्पर विश्वास की कमी

अगर सियाचिन समस्या के किसी एक समाधान पर बात करने को कहा जाए, तो वह दोनों देशों के परस्पर विश्वास पर आकर अटक जाएगी. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो विश्वास की कमी पर. भारत-पाकिस्तान और उससे भी आगे भारतीय और पाकिस्तानी सेना के बीच अविश्वास इतना गहरा है कि उसे दूर करने में कम से कम दो पीढ़ियां बीत जाएंगी.

1989 के छद्म-युद्ध से शुरू कर, 1989 का कारगिल की पहाड़ियों पर गैर-कानूनी अधिकार, ISI का भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना आदि पर एक सूची बनाई जाए, तो इसकी लंबाई खत्म होने का नाम न लेगी.

भारतीय संसद पर हमले और मुंबई का 26/11 हमले की अपनी कड़वी यादें हैं. जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध का षड्यंत्र, अपनी जमीन से आतंकवाद के खात्मे के लिए कोशिशें न करना, पाकिस्तान पर अविश्वास के मुख्य कारण हैं. यहां याद रखना जरूरी है कि सीमाएं सुरक्षित होने पर ही कोई राष्ट्र प्रगति कर सकता है, खुशहाल हो सकता है.

जैसा कि रक्षामंत्री स्वीकार करते हैं, सियाचिन जैसी जगहों पर तैनात सिपाही देश की सुरक्षा के लिए बेहद मुश्किल चुनौतियों से गुजरते हैं. देश को उनकी कोशिशों का सम्मान करना चाहिए.

आखिर में एक सैनिक की ख्वाहिश बयान करती इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करूंगा:

वह नहीं चाहता पुरस्कार,                                                                                                                                     भौतिक या कोई और                                                                                                                                           गर्व और सम्मान के साथ, करता है अपना कर्म                                                                                             पर आकांक्षाएं उसकी भी हैं, है तो मनुष्य ही                                                                                                   पाना चाहता है देश का प्यार                                                                                                                               हां, वह एक सैनिक है

(लेखक कश्मीर के पूर्व 15 कॉर्प्स कमांडर हैं. वे सियाचिन में भी तैनात रहे हैं.)

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