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‘पूजा स्थल कानून’ के खिलाफ याचिका भारतीय लोकतंत्र से वादाखिलाफी  

पूजा स्थल कानून’ में प्रावधान है कि 15 अगस्त, 1947 तक जहां जिस धर्म के पूजा स्थल हैं, वही रहेंगे

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मैं आपको बताता हूं कि भारत के लोगों की समस्याएं क्या हैं, अमेरिकी बिजनेसमैन ने कहा, आपके पास बहुत ज्यादा इतिहास है. इतना ज्यादा कि आप लोग उसे सिर्फ शांतिपूर्ण तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सकते. इसलिए आप लोग इतिहास को युद्ध के मैदान की तलवार की तरफ इस्तेमाल कर रहे हैं, वह भी एक दूसरे के खिलाफ.

वैसे ऐसा कोई बिजनेसमैन सच में नहीं है. यह 2001 के मेरे उपन्यास- रायट- का एक पात्र है. उपन्यास राम जन्मभूमि आंदोलन के शुरुआती दौर के हिंदू मुसलिम दंगों पर केंद्रित है. लेकिन इस काल्पनिक पात्र के विचार हर दिन प्रासंगिक लगते हैं. खासकर हाल की उस खबर के चलते, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी के प्रवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर विचार करने का फैसला किया है. उपाध्याय ने 1991 के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. अब सुप्रीम कोर्ट उपाध्याय के तर्कों की सुनवाई के लिए राजी हो गया है.

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पूजा स्थल, यानीप्लेस ऑफ वरशिपयाचिका किस बारे में है

मामला यह है कि जिन जगहों पर मस्जिद या इस्लामिक स्मारक बने हुए हैं, उन जगहों पर प्राचीन मंदिरों को फिर से बनाने की मांग करने वाले तीन मुकदमे और एक रिट याचिका दायर किए गए हैं. ठीक, उसी तरह जैसे अयोध्या में बाबरी मसजिद के अवशेष की जगह राम मंदिर बनाने का मांग की गई थी.

नई मांग यह है कि मथुरा में श्री कृष्ण मंदिर परिसर के साथ लगी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाया जाए, जिसे बहुत से लोग भगवान कृष्ण की जन्मस्थली बताते हैं. वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद की जगह पर प्राचीन मंदिर बनाया जाए. मथुरा और वाराणसी में मस्जिदें औरंगजेब के जमाने की हैं. एक मामले में कुतुब मीनार परिसर में पूजा करने का अधिकार मांगा जा रहा है. आरोप लगाया जा रहा है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर यह परिसर बनाया था.

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पूजा स्थल कानून का मकसद क्या था

रायट के बाद मैंने अपने पाठकों को आगाह किया था कि हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने वाले हत्याओं और भीड़ की हिंसा का दुष्चक्र शुरू कर सकते हैं. इसका उदाहरण हमें चंद महीनों बाद ही 2002 में गुजरात में देखने को मिला था. लेकिन मुझे अपनी दूरदर्शिता बिल्कुल अच्छी नहीं लगी. भारत की त्रासदी यह है कि जो लोग इतिहास से वाकिफ हैं, वे भी उसे दोहराने से बाज नहीं आते.

1991 में संसद की यही राय थी. उसी समय पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून बनाया गया था. इसके सेक्शन 4 में कहा गया है कि किसी पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र, जो 15 अगस्त 1947 को था, वही आगे रहेगा. यह कानून अदालतों को पूजा के ऐसे स्थलों के चरित्र को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई से रोकता है. इस कानून का मकसद सामाजिक शांति सुनिश्चित करना था, जिसे बाबरी मस्जिद मामले में गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया गया था.

विडंबना है कि आज हम डगमगाए कदमों से 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक में कदम रख रहे हैं. तकनीकी प्रगति की उम्मीद भरी नजरों से भविष्य की तरफ देख तो रहे हैं लेकिन, अतीत की हठधर्मिता उन नजरों में धूल भर रही है. कानून को चुनौती देने वाली याचिका पूजा स्थलों को लेकर है, सॉफ्टवेयर लैब्स को लेकर नहीं. यह धर्म के लिए समर्पित है, विकास के लिए नहीं.

भारत में इतिहास, मिथ और किंवदंतियां एक दूसरे से गुत्थम गुत्था होते रहते हैं

हम इस फिल्म को पहले भी देख चुके हैं. 1992 में हिंदू अतिवादियों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को तोड़ा था. उन्होंने वादा किया था कि इस जगह राम मंदिर बनाया जाएगा. वह इतिहास को बदलना चाहते थे. उनका कहना था कि वे पांच सौ साल पहले के अत्याचार का मुंह तोड़ जवाब देना चाहते हैं. अगर इस कानून को मिली चुनौती को सही ठहराया जाता है तो मथुरा, वाराणसी और दिल्ली में भी वही दोहराया जाएगा.

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भारत ऐसी भूमि है जहां इतिहास, मिथ और किंवदंतियां एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हैं. कई बार आप उनमें फर्क नहीं कर सकते. किसी मस्जिद को तोड़ने और उसकी जगह पर मंदिर बनाने से गलत को सही नहीं किया जा सकता, बल्कि यह एक और बड़ी गलती है. बाबरी मस्जिद के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट ने शांत कर दिया है, लेकिन घाव भरे नहीं हैं. मौजूदा मामले से वे जख्म हरे हो सकते हैं.

बाबरी विवाद ज्यादातर मुसलमानों के लिए क्या मायने रखता है

भारत में ज्यादातर मुसलमानों के लिए बाबरी विवाद का मायने कोई एक मस्जिद नहीं है. यह उनके लिए भारतीय समाज में उनके अस्तित्व का सवाल है. आजादी के दशकों बाद तक भारतीय सरकारों ने एक सेक्यूलर देश में उनकी सुरक्षा की गारंटी ली थी. देश के सिविल कोड से अलग मुसलिम पर्सनल लॉ को बहाल रखने को मंजूरी दी गई थी. सरकारें मक्का जाने वाले हज यात्रियों को आर्थिक मदद भी देती थीं. भारत के नौ में से तीन राष्ट्रपति मुसलमान थे. कितने ही कैबिनेट मंत्री, राजदूत, जनरल, क्रिकेट कप्तान, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के जज भी मुसलमान रहे हैं.

1990 के मध्य तक भारत में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान से ज्यादा थी. लेकिन बाबरी मस्जिद टूटने के साथ उस अखंड भारत को चोट पहुंची, जिसके बहुलतावादी लोकतंत्र में मुस्लिम समुदाय का अहम हिस्सा था. उस करार के साथ धोखा किया गया, जिसमें मुस्लिम समुदाय को देश का अभिन्न अंग बताया गया था. अगर देश की दूसरी मस्जिदों और इस्लामिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया जाएगा तो वह चोट गहरी होगी- और बड़ा धोखा होगा.

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इसीलिए संसद ने 15 अगस्त 1947 में एक रेखा खींची थी. वह राजाज्ञा काफी थी. अब इतिहास के जख्मों को कुरेदना नहीं चाहिए. भविष्य की तरफ बढ़ना चाहिए.   

हिंदूवादियों की जड़ें कहां हैं?

मस्जिद पर हमला करने वाले हिंदुत्ववादियों को भारतीय लोकतंत्र में बिल्कुल आस्था नहीं थी. वे मानते थे कि सरकार मुसलमानों को खुश करने की कोशिश करती है और उसका सेक्युलरिज्म का आइडिया विदेशी और भ्रामक है. उनके लिए आजाद भारत का मतलब था, करीब एक हजार साल पुराने गैर हिंदू शासन (पहले मुसलमान और फिर ब्रिटिश) का खात्मा और विभाजन में बहुत से मुसलमानों से पीछा छूटना. वह ऐसे हिंदू की पहचान हासिल करना चाहते थे, जोकि विजयी और स्वदेशी है. मौजूदा याचिका इसी भाव को दर्शाती है.

हिंदुत्ववादी अपनी हिंदुत्व की जड़ों को दार्शनिकता या आध्यात्मिकता में नहीं तलाशते. जैसा कि उनके इस्लामी दोस्त करते हैं. न ही उनकी आस्था किसी धर्मशास्त्र से प्रेरित है. उनके हिंदुत्व का स्रोत उनकी पहचान है. वे एक सिद्धांत के रूप में हिंदू धर्म को नहीं अपनाते, बल्कि हिंदू धर्म से जुड़ाव के नाम पर प्रतिशोध लेने पर उतारू हैं.

लेकिन ऐसा करके वे उसी धर्म से विश्वासघात कर रहे हैं, जिस पर विश्वास करने का दावा करते हैं. यह वही धर्म है जो कि विविधता और उदारता को अभिव्यक्त करने की आजादी देता है. अकेला सबसे बड़ा धर्म है. जोकि यह दावा नहीं करता कि वही अकेला सच्चा धर्म है.

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हिंदू धर्म उपासना की हर पद्धति को मान्यता देता है और कहता है कि धर्म एक बेहद निजी मामला है जोकि ईश्वर की आत्मानुभति- आप कैसे ईश्वर को महसूस करते हैं, से जुड़ा हुआ है. यह ऐसी धार्मिक निष्ठा है जो श्रद्धा पूरित ह्दय और मानस में तारतम्य रखती है, ईंटों और पत्थरों की मोहताज नहीं है. सच्चा हिंदू इतिहास की वजह से प्रतिशोध नहीं लेता, बल्कि जानता है कि इतिहास स्वयं ही प्रतिशोध ले लेता है. 

यादों को किनारे रखिए, भविष्य को देखिए

पूजा स्थल कानून के खिलाफ याचिका भारतीय लोकतंत्र से भी वादाखिलाफी करती है. भारतीय लोकतंत्र ऐसा समाज तैयार करने की कोशिश करता है, जहां कल के भारत में लोग सुख समृद्धि से रह सकें, न कि अतीत की काल्पनिक विकृतियों की लकीर को पीटते रहें. अगर अदालतें इस मामले के हल पर सोच विचार करेंगी तो हिंसा फिर से शुरू हो सकती है. इतिहास को फिर नए सिरे से बंधक बनाया जा सकता है, भविष्य की पीढ़ियों को न्याय के लिए अन्याय करना सिखाया जा सकता है.

ओक्टावियो पाज ने एक बार कहा था, ‘हम विस्मरण और स्मृतियों के बीच जीते हैं.’ स्मृतियां और विस्मरण: एक दूसरे की तरफ जाता है, और दूसरा फिर पहले की ओर.

समय आ गया है कि यादों को किनारे रख जाए और भविष्य की ओर देखा जाए. सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की गई है, उन्हें विस्मृतियों के उसी अंधेरे में छोड़ देना चाहिए, जिसमें वह दफन थी. हमारे तबाह होते देश के लिए यही उचित है.

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