इन दिनों उत्तराखंड का जोशीमठ क्षेत्र भूस्खलन और घर में पड़ रही दरारों को लेकर चर्चा में है.
जोशीमठ के बारे में 1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट ने इस क्षेत्र को आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील बताया था. रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ क्षेत्र ग्लेशियर के मलबे पर बसा है.
विकास के नाम पर उत्तराखंड के पहाड़ों को जिस तरह फाड़ा जा रहा है, उससे उत्तराखंड में आने वाली आपदाओं का ग्राफ पिछले कुछ सालों से बढ़ गया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में साल 2021 के दौरान भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में जान गंवाने वालों की संख्या 298 थी.
न्यू इंडियन एक्सप्रेस की अगस्त 2021 में आई एक रिपोर्ट दर्शाती है कि उत्तराखंड में साल 2015, 2016 और 2017 में भूस्खलनों की संख्या क्रमशः 33, 18 और 19 थी. वहीं साल 2018, 2019, 2020 और 2021 में भूस्खलन की यह घटनाएं बढ़कर क्रमशः 496, 291, 972 और 132 हो गई.
बरसात के दौरान प्रदेश में भूस्खलन की यह स्थिति बेहद ही खतरनाक हो जाती है. साल 2021 में प्रदेश भर में भूस्खलन के 84 डेंजर जोन सक्रिय थे.
बीमारी पुरानी पर इलाज नहीं ढूंढा गया
विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखंड में भूस्खलन ऑल वेदर रोड निर्माण के साथ बढ़ने लगे.
ऑल वेदर रोड यानी हर मौसम में खुली रहने वाले सड़कों के लिए बनाई गई चारधाम राजमार्ग विकास परियोजना है. इसका शुभारंभ दिसंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था.
जियोलॉजिस्ट डॉ नवीन जुयाल चारधाम परियोजना से जुड़ी सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उच्चाधिकार समिति के सदस्य थे. वह कहते हैं 'निश्चित तौर पर केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना ऑल वेदर रोड की वजह से भूस्खलन बढ़े हैं'. पहाड़ों की भूगर्भीय संरचना को नजरंदाज कर इन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है. तेजी से सड़क बनाने के चक्कर में पहाड़ में सड़क बनाने वाली तकनीक का सही इस्तेमाल नही किया गया है. सड़क निर्माण में जल निकासी आवश्यक होती है पर उसे नजरंदाज किया गया.
नवीन जुयाल ने अपनी बात को आगे बढ़ाते कहा कि हिमालय में जगह-जगह अलग-अलग प्रकार की चट्टानें होती हैं, उन पर अध्ययन किए बिना सब जगह सड़क बनाने के लिए एक ही तरीका इस्तेमाल किया जाता है.
टनकपुर-सुखीढांग इलाके में जमीन के नीचे होने वाली किसी भी हलचल का सबसे ज्यादा असर पड़ता है पर इसे भी खोद दिया गया है, वहां पर भारी भूस्खलन के रूप में इसका परिणाम हमारे सामने है.
उन्होंने यह भी कहा कि उच्चाधिकार समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चारधाम परियोजना के अवैज्ञानिक व अनियोजित क्रियान्वयन से हिमालय के इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचा है और भूस्खलन जैसी आपदाओं को बुलावा दिया जा रहा है.
पेड़ नही तो जमीन तो खिसकेगी ही
भूस्खलन का सबसे बड़ा कारण पेड़ों का अंधाधुंध कटान होना भी है, पिछले बीस सालों में उत्तराखंड के लगभग पचास हजार हेक्टेयर पेड़ काट दिए गए. इसमें से अधिकतर पेड़ खनन और सड़क के लिए काटे गए.
पर्यावरणविद सुरेश भाई के मुताबिक गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर 15 किलोमीटर कार्य अभी शेष है. यहां पर देवदार और सिल्वर ओक जैसे दुर्लभ प्रजाति के पेड़ हैं, जिनको काटा जाना है. सबसे अधिक पेड़ सुक्खी बैंड से और झाला नामक स्थान तक हैं. इस सड़क का मार्ग अगर रेखांकन के समय थोड़ा बदला जाता तो इन पेड़ों को बचाया जा सकता था.
वह कहते हैं कि गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग चौड़ीकरण (ऑलवेदर रोड़) के अन्तर्गत दुर्लभ वन प्रजाति देवदार के लाखों छोटे-बड़े पेड़ों को काटा जाना है. इसमें से छोटे-छोटे पौधे जो अधिकतम 30 फीट तक ऊंचे हैं, उन्हें दूसरी जगह रोपा जा सकता है. यह अनुभव हमें दिल्ली में निर्माणाधीन सेन्ट्रल विस्टा परियोजना से मिला है.
कारण यह भी है
साल 1998 में भूस्खलन पर वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जिओलॉजी देहरादून के पीयूष रौतेला ने एक शोधपत्र लिखा था, जिसके अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों में आजकल सीढ़ीनुमा खेती की पद्धति में कमी आई. इस तरह की खेती से मिट्टी का जमाव बना रहता है, जो कि लैंडस्लाइड जैसी घटनाओं को रोकती है.
नैनीताल में अंग्रेजी दौर के दौरान 1867, 1880,1898 और 1924 में भयंकर भूस्खलन हुआ था. साल 1880 में आए भूस्खलन से 151 लोगों जिंदा दफन हो गए थे और साथ ही नगर का नक्शा भी बदल गया था. साल 1867 और 1873 में अंग्रेजी शासकों ने नगर की सुरक्षा के लिए हिल साइड सेफ्टी कमेटी का गठन किया था.
इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर नगर में बेहद मजबूत नाला तंत्र विकसित किया गया, जिसे नगर की सुरक्षा का मजबूत आधार बताया गया. पिछले साल आई रिकॉर्डतोड़ बारिश के बाद भी नैनीताल में भूस्खलन न के बराबर हुआ. प्रदेश के अन्य पहाड़ी स्थानों को भी इस तरह के नालों की आवश्यकता है जो अंग्रेजों के जाने के बाद कभी बनाए ही नही गए. कंस्ट्रक्शन को हमेशा पहाड़ों का दुश्मन बताया जाता रहा है पर सही तरीके से हुए कंस्ट्रक्शन से नैनीताल आज भी जिंदा है.
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