छह साल पहले, फ्रांस (France) के उत्तर में जर्मन सीमा के पास स्थित एक शांत शहर फॉरबैक में, मुझे भारतीय पहलवानों की टीम का इंटरव्यू करने का मौका मिला. इसमें विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया शामिल थे. वे पेरिस में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप के लिए तैयारी में लगे थे. बृजभूषण शरण सिंह (Brij Bhushansharan Singh) उस समय भी रेसलिंग फाउंडेशन ऑफ इंडिया (WFI) के अध्यक्ष थे. मैंने देखा कि कैसे भारतीय टीम अपने यूरोपीय प्रतिद्वदियों के मुकाबले एक असाधारण और कड़ी ट्रेनिंग का सामना कर रही थी. यह एक तानाशाही प्रवृति वाला टॉक्सिक वर्क कल्चर का संकेत देने वाला था.
मुझे साफ तौर पर महिला पहलवानों की बेचैनी याद आती है जब मैंने यह पूछने की कोशिश की कि क्या उन्हें किसी खास परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.
जनवरी में जब बृजभूषण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप सामने आए, तो मैं सोच रही थी कि कहीं उस समय महिला पहलवानों को बदसलूकी का सामना तो नहीं करना पड़ रहा था.
प्रमुख प्रदर्शनकारियों में से एक ओलंपियन विनेश फोगाट ने हाल ही में लिखा था कि वों टोक्यो ओलंपिक 2020 में मेडल जीतने में नाकामी के बाद बृजभूषण सिंह से मानसिक यातना और उत्पीड़न के कारण आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगी थीं.
हमने सब देखा है, इसलिए हमारी राय अहमियत रखती है
रविवार, 28 मई को पहलवानों के विरोध प्रदर्शन को खत्म करने के लिए दमनकारी चाल चलते हुए दिल्ली पुलिस ने फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया को हिरासत में ले लिया. जिस जगह पर इन मेडल हासिल करने वाले पहलवानों को गिरफ्तार किया गया था, वहीं से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बृजभूषण शरण सिंह नए संसद भवन के उद्घाटन में शामिल हो रहे थे.
30 पहलवानों ने बृजभूषण सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई लेकिन इसके बाद भी अभी तक कोई कार्रवाई बृजभूषण के खिलाफ नहीं की गई है. #MeToo आंदोलन की संस्थापक तराना बुर्के का कहना है कि यौन उत्पीड़न मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक रूप है. उन्होंने कहा है कि "यह सर्वाइवर को नीचा दिखाने और अपमानित करने, उन्हें शक्तिहीन और शर्मिंदा महसूस कराने के लिए है."
पहलवानों के विरोध के संदर्भ में मौजूदा सार्वजनिक बहस को बदला जाना चाहिए क्योंकि तथ्य यह है कि जो लोग लड़ाई लड़ते हैं उनके खिलाफ ही मनोवैज्ञानिक युद्ध तेज हो जाता है.
हमारी प्रतिक्रिया अहमियत रखती है
हम सभी सिर्फ देखने वाले हैं – जो सर्वाइवर हैं उन्होंने हमें अपनी कहानियां बताई हैं, और अब हम उनके साथ क्या करते हैं, यह मायने रखता है .
हम "बलात्कार संस्कृति" या "मिसॉजनी" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच नहीं सकते क्योंकि पहलवानों की कहानी के केंद्र में यौन उत्पीड़न है. इस तरह की भाषा को दरकिनार करना दरअसल अपराधी को भागने देना या जवाबदेही से बचने जैसा है.
सही मौकों पर सही शब्दों या सही रजिस्टर का इस्तेमाल नहीं करना- खासकर जो किसी खास सामाजिक संदर्भ से जुड़ी शब्दावली होती है - अराजकता पैदा करती है. यह चालाकी भरा व्यवहार या रणनीति है जो जानबूझकर भ्रम, संदेह और भावनात्मक संकट पैदा करती है.
जब व्यक्ति, मीडिया कवरेज, और यहां तक कि अदालतें भी यौन हिंसा के लिए सही भाषा का उपयोग करने में विफल रहती हैं, तो वे बलात्कार की संस्कृति में सहभागी हो जाते हैं. मायने खत्म हो जाते हैं, समाधान नहीं मिल सकता है. जिन व्यक्तियों ने उत्पीड़न का सामना किया है, उनको बस सनसनी के तौर पर दिखाया और बताया जाता है. फिर एक दिन वो बासी समाचार की तरह हो जाते हैं.
इंसाफ के लिए ही सर्वाइवर सामने आईं हैं
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विनाशकारी प्रभाव के बारे में पुरुषों पर जागरूकता की कमी को देखना आश्चर्यजनक है. अधिकांश अभी भी इसे "हानिरहित" प्रेमालाप या छेड़खानी के साथ कंफ्यूज करते हैं. वो इस बात से बेखबर हैं कि ऐसा होना अमानवीय है और चिंता, अवसाद और का कारण बनता है. किसी के हेल्थ को भी नुकसान पहुंचाता है. कई मामलों में, पुरानी और दूसरी बीमारियों की शुरुआत भी इससे हो जाती है.
यौन उत्पीड़न व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता को नष्ट कर देता है. चुप रहने से पीड़ा और बढ़ जाती है. अपराधी सजा से बच जाते हैं.
दूसरी ओर, उत्पीड़न के खिलाफ बोलना किसी की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा सकता है. वित्तीय स्थिरता को खतरे में डाल सकता है. प्रदर्शनकारियों को अक्सर खतरनाक और बदनाम करार दिया जाता है, जिससे उनके डोमेन में उनके लिए वैकल्पिक रोजगार खोजना मुश्किल हो जाता है.
बहुत से लोग बोलते हैं क्योंकि वे वास्तव में विश्वास करते हैं कि उन्हें शीघ्र न्याय मिलेगा. आखिरकार, उन्हें लगता है कि वो इंसाफ के हकदार हैं.
उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर भरोसा रहता है और यह भी यकीन रहता है कि जो गलत काम किया गया है उसको दुरुस्त किया जाएगा . विनेश फोगट ने हाल ही में इस बारे में लिखा कि उन्हें न्याय में हो रही देरी ने उन्हें चौकाया है. उन्होंने लिखा, "हमें विश्वास था कि न्याय मिलने में दो से तीन दिन से ज्यादा नहीं लगेंगे."
वह नाराज थी कि शिकायतकर्ताओं को ही सबूत देने का बोझ डाला जा रहा था. अफसोस की बात है कि विनेश फोगट ने, उनसे पहले के कई दूसरे लोगों की तरह, यह पाया है कि यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वालों की ही बेइज्जती की जाती है.
वो सर्वाइवर हैं इसलिए समर्थन करिए ना कि इसलिए क्योंकि वो मेडल विजेता हैं
वास्तव में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम उन्हें अक्सर हतोत्साहित करती है क्योंकि वो रेप कल्चर वाली संस्कृति में काम करती हैं. शिकायतकर्ताओं के खिलाफ ही जनमत भी होता है . आखिरकार, यौन उत्पीड़न पितृसत्तात्मक ताकत का मामला है और इसे तोड़ने की कोशिश करना खतरा मोल लेने जैसा ही है.
दिल्ली की सड़कों पर हर दूसरे दिन विरोध करने वाले पहलवानों को नीचा दिखाना बेहद दुखद है. यह उन लोगों के लिए और भी कड़वी सच की तरह है जिनको कम समर्थन हासिल है. साथ ही समाज भी उनके पक्ष में खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है. इतनी सामाजिक इज्जत नहीं है कि वो सुर्खियां बनें. कहीं-कहीं तो उन्हें जातीय उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है.
राष्ट्रीय गौरव या प्रतिष्ठित पदकों पर विशेष जोर देना इन पहलवानों के साथ खड़े होने की एकमात्र प्रेरणा नहीं होनी चाहिए.
मुख्यधारा का मीडिया बुनियादी तथ्यों को कबूल करने में भी घटिया काम कर रहा है, यौन उत्पीड़न बड़े पैमाने पर हो रहा है और ताकतवार मर्द अक्सर कार्यस्थल पर ऐसे व्यवहार करते हैं, जैसे कि उन्हें सजा कभी मिल ही नहीं सकती है.
कामकाज में बड़े पदों पर विराजमान लोग अक्सर अपने पावर का इस्तेमाल करते हैं और यौन उत्पीड़न के मामले में दबाव या मनोवैज्ञानिक यातना का इस्तेमाल करना काफी आसान हो जाता है.
ये ऐसे तथ्य भी हैं जिन्हें आंकड़ों और स्टेटमेन्ट्स के साथ स्पष्ट रूप से बताने की आवश्यकता है. हमें इस बारे में अधिक कहानियों की आवश्यकता है कि एक उदासीन मिथ्यावादी व्यवस्था के सामने न्याय के लिए लड़ाई कैसे होती है, उसे समझा जा सके.
पत्रकारों को अब "दावों और प्रतिदावों" के संदर्भ पर चर्चा नहीं करना चाहिए. जैसे कि इस मामले में बृजभूषण सिंह ने घोषणा की कि वह लाई डिटेक्टर टेस्ट के लिए तैयार हैं लेकिन पहलवानों को भी ये टेस्ट कराना होगा.. ऐसे किसी दावे और प्रतिदावों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए.
ये सनसनीखेज समाचार चक्र सभी एक ही पागलपन का हिस्सा हैं और संपादकों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.
साफ और कड़ा संदेश जाना चाहिए
जनवरी से अब तक पहलवानों ने सितंबर 2023 में होने वाले एशियाई खेलों और 2024 के पेरिस ओलंपिक के लिए प्रशिक्षण के अपने बहुमूल्य समय गंवा दिए हैं.
बलात्कार की संस्कृति से लड़ना कोई मामूली काम नहीं है. यह यौन हिंसा का विरोध करने वाले व्यक्तियों को इनकार और डराने-धमकाने के एक जटिल जाल में फंसाती है. इसे रणनीतिक रूप से सर्वाइवर को शारीरिक और भावनात्मक रूप से थका देने के लिए बनाया गया है.
हर तरह की क्रूरता की जाती है. कुछ भी नहीं छोड़ा जाता. चाहे वह आजीविका के नुकसान का खतरा हो या कैद.
फिर भी, विरोध करने वाले पहलवानों की छवियां वास्तव में हमारे लिए काफी प्रेरणाप्रद हैं. वो बड़ी संख्या में अपनी ताकत को दिखा रहे हैं. लेकिन इसके उलट उनके खिलाफ पुलिस की बर्बरता की तस्वीरें नहीं दिखाई जा रही हैं.
वे इस बारे में एक जोरदार संदेश देते हैं कि देश अपने पहलवानों के साथ-साथ उन यौन शोषण की सर्वाइवर के साथ कैसा व्यवहार करता है, जो बोलने की हिम्मत करती हैं.
(नूपुर तिवारी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और नारीवादी मंच "स्मैशबोर्ड" की संस्थापक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @NoopurTiwari है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. द क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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