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वाकई प्रभाष जोशी के बाद ‘कागद कारे, कोरे ही रह गए | पॉडकास्ट

प्रभाष जोशी के जाने के बाद ‘कागद कारे’, कोरे ही रह गए

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पॉडकास्ट: नीरज गुप्ता, शादाब मोइज़ी

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वो बॉलर को गोलंदाज और क्रिकेट को जीवन कहता था. क्रिकेट की कहानियों में देसी शॉट खेलता था और राजनीति की रिपोर्टिंग में आग उगलती बाउंसर मारता था. सत्ता को सीधे ललकारता था, सीना तान कहता था -मैं हिंदू हूं, लेकिन अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने वालों को खुलेआम हिंदू धर्म का दुश्मन कहता था.

वो हिंदी पत्रकारिता का आखिरी संपादक था. कहा यही जाता है कि उसके बाद संपादक नाम की संस्था मर गई. यानी उनके बाद ऐसा कोई न हुआ जो संपादक के धर्म को शास्त्रीय अंदाज में निभा पाया. वो शख्स था प्रभाष जोशी. 15 जुलाई, 1936 को भोपाल में जन्मे प्रभाष जोशी ने हिंदी पत्रकारिता में वो मुकाम हासिल किया कि प्रभाष जोशी की बात हो तो लगता है पत्रकारिता की बात हो रही है, और हिंदी पत्रकारिता की चर्चा चलती है तो प्रभाष जोशी का जिक्र खुद-ब-खुद आ जाता है.

जरा सुनिए 1992 में अयोध्या कांड के बाद प्रभाष जोशी ने अपने एक लेख में क्या लिखा था-

‘अयोध्या में लंका कांड करने वालों को न तो राम का चरित मालूम है, न वे वहां राम मंदिर बनाने गए थे. राम की वानर सेना में भी उनसे ज्यादा विवेक था. गांधी को मार कर जो लोग शांत नहीं हुए, वे अयोध्या में बाबरी ढांचे को गिरा कर भी संतुष्ट नहीं होंगे.’

ऐसा लगता है जोशी जी ने अपने लेखों में अपने विचार नहीं रखे थे, बल्कि देश की सियासी दिशा की भविष्यवाणी की थी. सुनिए एक जनवरी, 1993 को उन्होंने क्या लिखा था.

‘’किसी भाजपा नेता ने कहा कि यह साल छद्म धर्मनिरपेक्षता और असली पंथ निरपेक्षता के संघर्ष का साल होगा. लेकिन अगर आप छह दिसंबर के सारे अर्थ समझ लें तो अगला साल ही नहीं आने वाले कई साल प्रतिक्रियावादी छद्म और संकीर्ण हिन्दुत्व और धर्म के संघर्ष के साल होंगे’’
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आज जिस तरह से संसद को 'धर्म संसद' का रूप दिया गया और जिस तरह से सड़कों पर धर्म के नाम पर मॉब लिंचिंग हो रही है, उससी तो यही लगता है कि प्रभाष जोशी को बहुत पहले से पता था, देश कहां जा रहा है. और वो इस भविष्य को लेकर बहुत परेशान थे. जरा सुनिए अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद सात दिसंबर, 1992 को प्रभाष जोशी के लेख 'राम की अग्नि परीक्षा' का एक अंश...

‘राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिख पोत दी.’

दरअसल उन दिनों प्रभाष जोशी बहुत व्यथित थे. उन्हें लगता था कि ये हमला सिर्फ धार्मिक ढांचे पर नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के हजारों साल पुराने ढांचे  पर हुआ है...

27 दिसंबर 1992 को उन्होंने मुक्ति और परतंत्रता  लेख में लिखा-

ढांचे को ढहाए जाने की त्रासदी सबूत है कि गांधी के हत्यारे अभी भी पिस्तौल छिपाए घूम रहे हैं. वे प्रार्थना सभाओं में इसलिए जाते हैं कि सही मौका मिल सके.
प्रभाष जोशी

इन लेखों का नतीजा ये हुआ कि उग्र हिंदुत्व के पैरोकार प्रभाष जोशी के दुश्मन हो गए. उन्हें धमकियां मिलने लगीं, गालियां दी जाने लगीं....लेकिन प्रभाष तो प्रभाष थे. जवाब में उन्होंने धमकी भरी चिट्ठियों को भी अपने अखबार जनसत्ता में छापना शुरू कर दिया. जब उनके हिंदू होने पर सवाल उठने लगे तो उन्होंने एक और लेख 'हिंदू होने का धर्म''  में लिखा-

मैं हिन्दू हूं और आत्मा के अमरत्व में विश्वास करता हूं. पुनर्जन्म और कर्मफल में भी मेरा विश्वास है. मेरा धर्म ही मुझे शक्ति देता है कि मैं अधर्म से निपट सकूं. प्रतिक्रिया और प्रतिशोध की कायर हिंसा के बल पर नहीं, अपनी आस्था, अपने विचार, अपनी अहिंसा और अपने धर्म की अक्षुण्ण शक्ति के बल पर.

क्या कमाल की बात है कि जिस धर्म के उग्र पैरोकारों का वो पूरी शिद्दत से विरोध कर रहे थे, उसी धर्म पर उन्हें गर्व भी था. इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा

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कोई स्वेच्छा से धर्म को छोड़ या अपना सकता होता तो भी मैं हिन्दू धर्म से निकाले जाने का विरोध करता और मनसा, वाचा, कर्मणा और स्वतंत्र बुद्धि-विवेक से हिन्दू बने रहने का स्वैच्छिक निर्णय लेता. इसलिए कि हिन्दू होना अपने और भगवान के बीच सीधा संबंध रखना है. मुझे किसी पोप, आर्कविषप या फादर के जरिए उस तक नहीं पहुंचना है. मुझे किसी मुल्ला या मौलवी का फतवा नहीं लेना है. मैं किसी महंत या शंकाराचार्य के अधीन नहीं हूं. मेरा धर्म मुझे पूरी स्वतंत्रता देता है कि मैं अपना अराघ्य, अपनी पूजा या साधना पद्धति और अपनी जीवन शैली अपनी आस्था के अनुसार चुन और तय कर सकूं. जरुरी नहीं कि चोटी रखूं. जनेऊ पहनूं. धोती-कुर्ता या अंगवस्त्र धारण करुं. रोज संध्या वंदन करुं. या सुबह शाम मंदिर जाऊं. पूजा करुं, आरती उतारूं या तीर्थों में जाकर पवित्र नदियों में स्नान करुं. यह धार्मिक स्वतंत्रता ही मुझे पंथ निरपेक्ष और लोकतांत्रिक होने का जन्मजात संस्कार देती है.’

प्रभाष जोशी ने न सिर्फ धर्म का मर्म बताया, संपादन से लेकर हिंदी पत्रकारिता के नए आयाम समझाए. धोती-कुर्ते में अपने पूरे अक्खड़पन लेकिन एक मीठी कोमलता के साथ जब वो टीवी शोज की राजनीतिक चर्चाओं में हिस्सा लेते थे, तो सुनने वाले किसी एक्शन थ्रीलर जैसे मोहपाश में बंध जाते थे. जिस जमाने में प्रभाष जोशी हर संडे को 'कागद कारे' नाम का अपना कॉलम जनसत्ता में लिखते थे, उस जमाने में पत्रकारिता और पढ़ने में रुचि रखने वाले लोगों के लिए हफ्ते के बाकी दिन सिर्फ रविवार की सुबह के इंतजार में बीतते थे.

पढ़िए प्रभाष जी के आखिरी 'कागद कारे' की कुछ पक्तियां.

अब आप भ्रष्टाचार, तानाशाही और गलत नीतियों के लिए किसके पीछे पड़ें? किसकी आलोचना करें? इंदिरा गांधी अपने स्वभाव और ढंग से देश को बनाने की कोशिश कर रही थीं. इसलिए उनसे बहस थी, विवाद था, झगड़ा था. अब तो लगता है कि हमने अपने आप को संसार की शक्तियों को सौंप दिया है. वे चाहे जैसा हमें बनाएं. कोई हम अपने को थोड़ी बना रहे हैं. किसका विरोध करे? भूमंडलीकरण का? अपनी अर्थ और राजनीतिक नीतियों के अमेरिकीकरण का? भारत के अपने मैकॉले पुत्रों का अपने ही देश को एक उपनिवेश बनाने का? भारत का आज अपना पराक्रम क्या है? हम वैसे ही बनते और बनाए जा रहे है जैसा कि अमेरिका और यूरोप है.

प्रभाष जी के व्यक्तित्व में जो विविधता थी, वो भी कमाल की थी. एक तरफ तो वो सांप्रदायिक और राजनीति मुद्दों पर खुलकर बोलते-लिखते थे, दूसरी तरफ उन्हें खेल, खासकर क्रिकेट और म्यूजिक से भी उतना ही लगाव था.

प्रभाष जी ने क्रिकेट की रिपोर्टिंग के लिए खेल पत्रकारों को नई पिच दी. क्रिकेट की शुरुआत भले ही इंग्लैंड में हुई लेकिन आज ये खेल अंग्रेजों से ज्यादा हमारा है, तो फिर इसकी रिपोर्टिंग अपनी भाषा में क्यों नहीं. लिहाजा प्रभाष जोशी ने सबसे पहले बॉलर को गोलंदाज और तेज मारने वाले बल्लेबाज को लप्पेबाज और चौके को चव्वा कहना शुरू किया.

सुनिए उनकी किताब 'खेल सिर्फ खेल नहीं' का एक अंश..आज आपको किसी क्रिकेट मैच पर ऐसी कमेंट्री कहीं नहीं मिलेगी.

बच तो घास भी जाती है लेकिन वह आंधी से जूझती नहीं. उसे अपने पर से गुजर जाने देती है. बाउंसर को झुककर ऊपर से निकल जाने देना भी तूफानी गेंदबाज को हराना है और थोड़ा बगल में हट कर गेंद को हुक कर देना भी आग को आग से बुझाना है. यही है कि डक करने वाला आउट नहीं होता और हुक मारने वाला कहीं न कहीं झिल सकता है. डक करने वाला भी तूफानी गेंदबाज का मनोबल गिराता है और हुक करके छक्का मारने वाला भी. आंधी को पराजित करने के यही दो तरीके हैं. बल्लेबाज अपने स्वभाव से खेलता है. विवियन रिचर्ड्स हुक मार देते थे. वे भी महान बल्लेबाज हुए और सुनील गावसकर डक करते थे, वे भी महान हुए. सुनील गावसकर ने रिचर्ड्स से ज्यादा रन, ज्यादा शतकें बनाई और ज्यादा और लम्बी पारियां भी खेली लेकिन विवियन रिचर्ड्स जैसा बोलबाला उनको कभी नहीं रहा. लेकिन गावसकर ने तूफानी गेंदबाजों का जितना सामना किया और उन्हें थका कर जितना पराजित किया, रिचर्ड्स ने नहीं किया. आग से आग थोड़ी देर दबती है लेकिन बुझती वह पानी से ही है. लेकिन डक करना या हुक करना आपकी बनत, स्वभाव और चरित्र में है. पारी शुरू करने के पहले आप जो गार्ड लेते हैं यानी खेलने की अपनी जगह तय करते हैं तभी तय हो जाता है कि आप क्या करने वाले हैं और क्या कर सकते हैं.

5 नवंबर, 2009 की रात प्रभाष जोशी भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हैदराबाद में वनडे मैच देख रहे थे, जिसमें सचिन तेंदुलकर की 175 रन की पारी के बाद भी टीम इंडिया तीन रन से मैच हार गई. मैच के दौरान ही प्रभाष जोशी ने सीने में दर्द की शिकायत की, जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया और उनकी मौत हो गई. परिजनों के मुताबिक जोशी ने दिल का दौरा पड़ने पर भी अपने बेटे से स्कोर पूछा और यह पता चलने पर कि सचिन आउट हो गए हैं उनकी तबियत बिगड़ने लगी.

उनके निधन पर वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार की लिखी कुछ पंक्तियां सुनिए-

जनसत्ता एक दस्तावेज है. प्रभाष जोशी उसके इतिहासकार हैं. जो लिखा दिल और दिमाग से लिखा. तमाम भावनात्मक उतार-चढ़ाव के बीच भी विवेक की रेखा साफ नजर आती थी.उनके आलोचक भी हैं. होने भी चाहिए. जिस व्यक्ति ने सब कुछ लिख दिया हो, उसके आलोचक नहीं होंगे तो किसके होंगे. वो अपने सही और गलत को हमारे बीच लिखित रूप में छोड़ गए हैं. जिसे जो उठाना है, उठा ले.

आज सांप्रदायिकता की खबरों पर जिस रह की रिपोर्टिंग हो रही है, एक विचारधारा के पक्ष में टीवी की खड़कियों में जिस तरह का शोर और देश की कुचली जाती आत्मा पर जिस तरह की चुप्पी है, क्रिकेट की रिपोर्टिंग जिस तरह से क्रिक इन्फो के आंकड़ों के जाल में उलझ गई है, उससे तो यही लगता है कि वाकई प्रभाष जोशी के जाने के बाद 'कागद कारे', कोरे ही रह गए.

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