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शहीद चंद्रशेखर आजाद : जन्मस्थान से शहादत तक का रहस्य

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?

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अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद से अंग्रेज थरथर कांपते थे. जैसे वो जीते जी मिस्ट्री रहे, उनकी शहादत के बाद भी उनसे जुड़ी कई चीजों को लेकर रहस्य बना रहा. आजाद भारत में भी ये सभी मिथ किस्से-कहानियों की तरह हमारे बीच हैं. जैसे उनका जन्म कहां हुआ? कब हुआ? उन्होंने खुद को गोली मारी थी या अंग्रेजों की गोली से शहीद हुए थे? अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?

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खुद को गोली मारी या अंग्रेजों की गोली से शहीद हुए?

आजाद की शहादत के बारे में कहा जाता है कि इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी, 1931 को जब उनका सामना अंग्रेजों से हुआ तो उन्होंने पहले पांच गोलियां अंग्रेजों पर चलाईं और फिर छठी गोली खुद को मार ली. क्योंकि अमर शहीद नहीं चाहते थे कि वो अंग्रेजों के हाथ लगें. भारतीय क्रांतिकारियों पर रिसर्च करने वाले शाह आलम के मुताबिक आजाद से मुठभेड़ के बाद पुलिस ने जो रिपोर्ट तैयार की थी उसमें कुछ और ही बात लिखी हुई थी.

पुलिस के मुताबिक आजाद के पास से 1903 मॉडल की एक कॉल्ट रिवॉल्वर, 16 जिंदा और 22 खाली कारतूस के साथ 448 रुपये मिले थे. आजाद ने खुद को गोली नहीं मारी, ये बात आजाद के साथी और क्रांतिकारी शचिंद्र नाथ बख्शी ने भी कही थी. शचिंद्र नाथ काकोरी एक्शन में शामिल थे.
अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
1976 में छपी एक रिपोर्ट जिसमें शचिंद्र नाथ के बयान के बारे में बताया गया था
(फोटो: शाह आलम/चंबल आर्काइव्स)
अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
1976 में छपी एक रिपोर्ट जिसमें शचिंद्र नाथ के बयान के बारे में बताया गया था
(फोटो: शाह आलम/चंबल आर्काइव्स)

शाह के मुताबिक आजाद का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों का कहना था कि उन्होंने खुद को गोली नहीं मारी. अगर खुद को गोली मारते तो उनके सिर की ज्यादातर चमड़ी और बाल जल गए होते. इसका मतलब ये है कि गोली दूर से ही मारी गई थी. आजाद का पोस्टमॉर्टम सिविल सर्जन लेफ्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड की निगरानी में हुआ था और उनके सहायक के तौर पर डॉ. गांडे और डॉ. राधेमोहन लाल थे. शाह क्रांतिकारियों पर चंबल फाउंडेशन चलाते हैं और उनके पास ऐतिहासिक दस्तावेजों से जुड़ा एक संग्रहालय भी है.

पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक आजाद के शरीर में 2 गोलियां दाहिने पैर के निचले हिस्से में लगीं, एक दाहिने जांघ में, एक गोली सिर में, एक गोली सीधा सीने में मारी गई थी. इसके अलावा एक गोली दाहिने कंधे को छेदते हुए फेफड़े में धंस गई थी.

इलाहाबाद संग्रहालय में रखी किताब अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के लेखक और आजाद के साथी विश्वनाथ वैशंपायन ने अपनी किताब में जॉन नॉट बावर(जिससे अल्फ्रेड पार्क में आजाद की मुठभेड़ हुई थी) का प्रेस को दिया बयान दर्ज किया है - ‘‘मैं कह नहीं सकता कि उस पर किसी ने गोली चलाई या वह पहले जख्मों से मर गया.’’

लेकिन सवाल ये भी है कि क्या अंग्रेज अफसर ने कहीं अपनी वाह वाही के लिए तथ्यों से परे जाकर बयान नहीं दिया?

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आजाद के जन्मदिन और जन्म स्थान पर विवाद

क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली और जन्मदिन को लेकर बहुत बड़ी बहस है. उनका जन्म स्थान मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में भाबरा गांव में माना जाता है. प्रचलित तारीख है 23 जुलाई, 1906. लेकिन 2006 में यूपी सरकार की एक कमेटी ने कुछ और ही दावा किया. दरअसल 2006 में एक सांसद ने यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को पत्र लिखकर कहा था कि आजाद भले ही झाबुआ में जन्मे लेकिन चूंकि उनकी शहादत यूपी में हुई इसलिए यूपी सरकार को उनकी जन्म शताब्दी मनानी चाहिए.

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
चंद्रशेखर आजाद की कुटिया जिसमें उनका जन्म हुआ
(फोटो: सतीश मिश्र)

इधर उन्नाव के बदरका गांव के लोग उनके जन्मदिन पर मेला लगाते आ रहे हैं. और सरकार के मंत्री तक उसमें आते रहे, इसलिए इस पत्र के बाद यूपी सरकार ने एक कमेटी बना दी, जिसका काम था कि वो इस बात के सबूत जुटाए कि आजाद का जन्म दरअसल उन्नाव में ही हुआ था.

कमेटी का निष्कर्ष ये था कि दरअसल आजाद का जन्म उन्नाव में हुआ था और 23 जुलाई नहीं, 7 जनवरी 1906 को हुआ था. कमेटी की रिपोर्ट के बारे में खबर हिंदुस्तान अखबार के लखनऊ अंक में 21 जून, 2006 को प्रकाशित भी हुई थी.

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
अखबार की क्लिप जिसमें यूपी सरकार की कमेटी के निष्कर्ष के बारे में छपा
(फोटो: शाह आलम/चंबल आर्काइव्स)

इसका काउंटर ये भी है कि उन्नाव के बदरका में आजाद के बड़े भाई का जन्म हुआ था. जिसके बाद आजाद का परिवार झाबुआ शिफ्ट कर गया. यहां आजाद के पिता बागवानी का काम करते थे और यहीं आजाद का जन्म हुआ. आजाद के दाहिने हाथ कहे जाने वाले, विश्वनाथ वैशम्पायन ने अपनी किताब में इस बात को दृढ़ता के साथ माना है कि आजाद का जन्म झाबुआ जिले के भाबरा गांव में ही हुआ था.

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
अमर शहीद आजाद की मां जगरानी देवी
(फोटो: सतीश मिश्र)
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वो फोटो जिसके के लिए अंग्रेजों ने मारे कई छापे

आजाद की मां चाहती थीं कि वो संस्कृत पढें और प्रकाण्ड विद्वान बनें. संस्कृत की पढ़ाई करने के लिए 12 साल की उम्र में आजाद बनारस गए. जहां पं. शिव विनायक मिश्र उनके लोकल गार्जियन की तरह थे. शिव विनायक मिश्र खुद उन्नाव से थे और आजाद के दूर के रिश्तेदार भी थे. पं. शिव विनायक मिश्र नगर कांग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी थे और बनारस के बड़े कांग्रेस नेताओं में से एक थे.

उन दिनों देश में गांधीजी का असहयोग आंदोलन जोरों पर था जिसमें आजाद ने भी हिस्सा लिया. गिरफ्तारी हुई और 14 बेंतो की सजा मिली. आजाद को जितनी बार बेंतें पड़ीं उतनी बार उनके मुंह से भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे नारे निकले. उस वक्त आजाद की उम्र 15 साल थी. बनारस में सेंट्रल जेल से निकलने के बाद आजाद का लोकल कांग्रेस लीडरशिप ने बनारस के ज्ञानवापी में हुए अभिनंदन समारोह में सम्मान किया. इस सम्मान समारोह में मिश्र ने आजाद की एक तस्वीर खिंचवाई.
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आजाद की इस तस्वीर को हासिल करने के लिए अंग्रेज पुलिस ने पं. शिव विनायक मिश्र के घर पर 5 बार छापा मारा
(फोटो: शाह आलम)

पं. शिव विनायक मिश्र के पोते सतीश मिश्र कहते हैं कि इस तस्वीर को हासिल करने के लिए अंग्रेज पुलिस ने उनके घर पर 5 बार छापा मारा लेकिन वो कामयाब नहीं हुई. क्योंकि पं शिव विनायक मिश्र ने आजाद की इस तस्वीर को घर के मंदिर में छिपा रखी थी, जिसे अंग्रेज ढूंढ नहीं पाए थे. ये तस्वीर आज भी उनके घर पर मौजूद है.

पं. शिव विनायक मिश्र और आजाद के रास्ते अलग हो गए क्योंकि  विनायक मिश्र गांधीवादी थे और नरमपंथी थे. वहीं आजाद के विचार क्रांतिकारी थे. बाद में आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खां जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम करने लगे.  

आजाद अपनी जवानी की फोटो क्यों नष्ट करवाना चाहते थे?

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?

झांसी में आजाद के एक क्रांतिकारी साथी थे मास्टर रूद्र नारायण. जवानी के दिनों की ये मूछों को ताव देते हुए ये तस्वीर मा. रूद्र नारायण ने खींची है. इसके साथ भी एक किस्सा जुड़ा है.

‘‘आजाद ने अपने साथी विश्वनाथ वैशम्पायन को मास्टर रूद्र नारायण के घर जाकर इस तस्वीर को नष्ट करने के लिए कहा. वैशम्पायन जब वहां पहुंचे तो रूद्र नारायण ने तस्वीर को नष्ट करने से मना कर दिया. उनका मानना था कि अगर कल को आजाद के साथ कुछ अनहोनी हो जाती है तो कुछ तो निशानी होनी चाहिए. तब तक ये फोटो डेवलप नहीं की गई थी. दोनों ने तय किया कि रील को दीवार में दबा देते हैं और आजाद से कह देंगे की तस्वीर नष्ट कर दी गई है.’’
शाह आलम, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के जानकार
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आजाद के दल में गद्दार

आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सेंट्रल कमेटी मेम्बर वीरभद्र तिवारी अंग्रेजो के मुखबिर बन गए थे और आजाद की मुखबिरी की थी. संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता ने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई थी. लेकिन गोली मिस होने से वीरभद्र तिवारी बच गए और गुप्ता की गिरफ्तारी हुई और फिर 10 साल की सजा. रमेश चंद्र गुप्ता के बेटे विजय अग्रवाल ने बताया कि रमेश चंद्र गुप्ता ने अपनी आत्मकथा ‘क्रांतिकथा’ में इसका पूरा विवरण दिया है.

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता की लिखी आत्मकथा ‘क्रांति कथा’ का कवर पेज
(फोटो: विजय अग्रवाल)

अंतिम संस्कार से जुड़ी कहानी

पं. शिव विनायक मिश्र के पोते सतीश मिश्र के मुताबिक आजाद के अंतिम संस्कार में कमला नेहरू आईं थीं और उनको पता था कि पं. शिव विनायक मिश्र आजाद के करीबी हैं इसलिए उनको भी बुलवाया गया. इलाहाबाद में रसूलाबाद घाट पर अंतिम संस्कार किया गया.

अंतिम संस्कार में क्रांतिकारियों के बड़े नेता शचिंद्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल भी पहुंचीं. उन्होंने जोरदार भाषण दिया और कहा - ‘‘जब खुदीराम बोस को फांसी पर लटकाया गया था तो हम बंगाल की माताएं बोस की राख लेकर गई थीं और अपने बच्चों को हमने उसका ताबीज बनाकर दिया ताकि वो भी क्रांतिकारी बनें.’’ ऐसा कहना था कि भीड़ टूट पड़ी और एक चुटकी राख के लिए भगदड़ मच गई. 

बाद में शिव विनायक मिश्र बची हुई अस्थियां लेकर बनारस आए. सरदार भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह 1974 में कांग्रेस के टिकट से सहारनपुर से एमएलए चुने गए थे. सूबे के सीएम नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें खाद्य रसद और पेंशन राज्यमंत्री बनाया. 1976 में कुलतार सिंह ने बनारस जाकर पं शिवविनायक मिश्रा के घर से आजाद के अस्थि कलश को हासिल किया. कई शहरों में प्रोग्राम हुए, फिर उन्हें लखनऊ संग्रहालय में रख दिया.

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
1976 में आजाद की अस्थियां लेते शहीद-ए-आजम भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह
(फोटो: सतीश मिश्र)
अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
सरदार भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह और बाकी के नेता आजाद की अस्थियों के साथ
(फोटो: शाह आलम)

आजाद की पिस्तौल

अंग्रेजों से लोहा लेते वक्त क्या वाकई उनके पास आखिर में एक ही गोली बची थी?
चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल
(फोटो: इलाहाबाद म्यूजियम)

आजाद को मारने वाले अंग्रेज अफसर जॉन नॉट-बावर को अंग्रेजी सरकार ने आजाद की पिस्तौल गिफ्ट के तौर पर दी थी और उन्होंने उसे अपने घर में सजा कर रखा था. कहा जाता है कि उनके मन में ये भाव था कि उन्होंने भारत का बहुत बड़ा शेर मारा है. साल 1972 में तत्कालीन केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के साझा प्रयासों से ये पिस्तौल बावर से मंगवाई गई. इस पिस्तौल के भारत आने के 6 महीने बाद बावर की मौत हो गई.

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