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नहीं रहे दास्तानगो अंकित चड्ढा, ‘...सो गए दास्तां कहते कहते’

जिंदगी को उर्दू कहानी के जरिए बांटने वाले 30 साल के दास्तानगो अंकित चड्ढा की 9 मई की शाम को हादसे में मौत हो गई

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दास्तानगोई को एक अलग तस्वीर और मुकाम देने वाले अंकित चड्ढा खुद एक दास्तान हो गए हैं. जिंदगी को उर्दू कहानी के जरिए बांटने वाले 30 साल के दास्तानगो अंकित चड्ढा की 9 मई की शाम को हादसे में मौत हो गई.
शुक्रवार को दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार किया गया. तेहरवीं सदी की उर्दू कहानी कहने की कला 'दास्तानगोई' को नई जिंदगी देने में 2011 से जुटे अंकित चड्ढा की मौत पुणे के पास उकसान झील में डूबने से हुई. उनके करीबियों के मुताबिक, वो पुणे अपनी एक प्रस्तुति के सिलसिले में गए थे, जहां पास में ही एक झील में घूमने के दौरान उनका पैर फिसल गया और झील में डूबने से उनकी मौत हो गई. डूबने के कई घंटों बाद उनका शव बाहर निकाला जा सका.

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आखिरी कार्यक्रम-‘दास्तां ढाई आखर की'

अंकित चड्ढा साल 2013 के दास्तानगोई कर रहे हैं. उनका आखिरी कार्यक्रम ‘दास्तां ढाई आखर की' 12 मई को पुणे के ज्ञान अदब केंद्र पर होना था. अंकित ने अपने पुराने साक्षात्कारों में बताया था कि कबीर की वाणी पर तैयार इस दास्तान को तैयार करने में उनकी जिंदगी के 7 बरस गुजरे थे.

क्या खास था उनके कार्यक्रम में

अंकित ने इस खास दास्तान में मौजूदा समय के मोबाइल, यूट्यूब, डिजिटल दुनिया के साथ-साथ कबीर के प्रेम संवाद की कहानी को आपस में जोड़ने का काम किया था. दोहे और आम जिंदगी के बहुत से किस्से पिरोकर ये दास्तान बुनी गई थी.

उन्होंने अपने करियर के बारे में भी इस वीडियो में खास बातें बताई हैं....

डिजिटल दुनिया से अमीर खुसरो, दाराशिकोह का सफर

एक पंजाबी परिवार में जन्मे चड्ढा की दास्तानगोई में कबीर के अलावा दाराशिकोह, अमीर खुसरो और रहीम का जिक्र तो था ही लेकिन महात्मा गांधी के जीवन को लेकर उनकी बुनी कहानी को देश-विदेश में पसंद किया गया. चड्ढा ने अपनी पहली प्रस्तुति 2011 में दी थी और 2012-13 के दौरान उन्होंने अकेले प्रस्तुति देना शुरु कर दिया था. पुणे की प्रस्तुति से पहले वो हाल ही में कबीर और गांधी की दास्तान पर सिएटल और कैलिफोर्निया में अपनी प्रस्तुति देकर लौटे थे.

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कौन हैं अंकित चड्ढा के गुरु?

अंकित चड्ढा के गुरु महमूद फारुकी इस हादसे के गम में हैं. लेखक और निर्देशक फारुकी ने कहा, ‘‘वो एक चमकता सितारा था और दास्तानगोई का वो अपना ही एक तरीका विकसित कर रहा था. उसने वास्तव में इस विधा में कई नए प्रयोग जोड़े थे. वो अपने सामने बैठे लोगों को अपने से जोड़ लेता था और ये काम कोई साफ दिल इंसान ही कर सकता है.'' उन्होंने कहा, ‘‘वो फारसी और उर्दू सीख रहा था और अपने काम को लगातार बेहतर कर रहा था.''


नौकरी में नहीं रह सके ज्यादा दिन


चड्ढा ने आम लोगों की तरह ही स्नातक के बाद नौकरी शुरु की लेकिन फिर उर्दू की इस विधा की तरफ उसका रूझान हुआ और उसके बाद उसने नौकरी छोड़ इस राह को पकड़ लिया। ‘जश्न-ए-रेख्ता' और ‘महिंद्रा कबीर उत्सव' जैसे कार्यक्रमों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके चड्ढा ने हार्वर्ड, येल और टोरंटो जैसे विश्वविद्यालयों में भी अपनी प्रस्तुतियां दी थीं.

इनपुट: एजेंसी

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