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भीष्म साहनी ने क्यों कहा था‘नफरत की राजनीति सत्ता का फॉर्मूला है’

घृणा के जहर से घबराना भीष्म साहनी ने नहीं सीखा था. उनके शब्द नफरत और हिंसा से मुकाबला करने का हौसला देते हैं

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"दिल्ली की सड़कों पर सारे वक्‍त घृणा का व्‍यापार चलता रहता है. घृणा एक धुंध की तरह सड़कों पर तैरती रहती है..पिछले जमाने की घृणा कितनी सरल हुआ करती थी, लगभग प्‍यार जैसी सरल. क्‍योंकि वह घृणा किसी व्‍यक्ति विशेष के प्रति हुआ करती थी. पर अनजान लोगों के प्रति यह अमूर्त घृणा, मस्तिष्‍क से निकल-निकलकर सारा वक्‍त वातावरण में अपना जहर घोलती रहती है."

नफरत के व्यापार की परतें खोलती ये लाइनें मशहूर साहित्यकार भीष्म साहनी ने बरसों पहले अपनी एक कहानी "त्रास" में लिखी थीं. संदर्भ था दिल्ली में होने वाले रोडरेज की घटनाओं का. लेकिन बरसों बाद आप चाहें तो इन लाइनों में दिल्ली की जगह दादरी या धुले भी पढ़ सकते हैं और राजस्थान, त्रिपुरा, असम, झारखंड, तेलंगाना या छत्तीसगढ़ भी...ये भी हो सकता है कि इन्हें पढ़ते समय आपके कानों में मॉब लिंचिंग के शिकार लोगों की दर्दनाक आवाजें गूंजने लगें. जगह कोई भी हो, फर्क सिर्फ नाम का होगा, नफरत वही होगी.

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और जहां नफरत होगी, वहां भीष्म साहनी भी होंगे, अपनी कलम के दम पर उससे लोहा लेते हुए. आज से 15 बरस पहले मौत ने भीष्म साहनी के शरीर को भले ही हमसे छीन लिया हो, लेकिन नफरत से लड़ते उनके शब्द आज भी जिंदा हैं. यकीन न हो तो देश के बंटवारे की पृष्ठभूमि में लिखे उपन्यास "तमस" के पन्ने पलटकर देख लीजिए, जहां उनके शब्द आज भी नफरत के अंधकार और व्यापार को उसी शिद्दत से बेपर्दा कर रहे हैं.

तमस के अंग्रेज अफसर रिचर्ड और उसकी बीवी लीजा के संवाद आपको बताएंगे कि सत्ता के लिए जनता को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंकने वाले हुक्मरानों की सोच कैसी होती है. बांटों और राज करो की ये राजनीति लीजा को समझाते हुए रिचर्ड कहता है,

"डार्लिंग, हुकूमत करने वाले यह नहीं देखते कि प्रजा में कौन-सी समानता पाई जाती है, उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वे किन-किन बातों में एक दूसरे से अलग हैं."

शहर में फैले दंगों से घबराई लीजा पूछती है,

"तुम्हें कोई खतरा तो नहीं है ना रिचर्ड?"

"नहीं लीजा, अगर प्रजा आपस में लड़े तो शासक को किस बात का खतरा.”

लीजा फिर पूछती है, “ये लोग आपस में लड़ें, क्या यह अच्छी बात है?"

रिचर्ड हंसते हुए कहता है, "क्या यह अच्छी बात होगी कि ये लोग मिलकर मेरे खिलाफ लड़ें?"

"लीजा सिर से पांव तक कांप उठी. वह रिचर्ड के पास आ गई और अंधेरे में उसके चेहरे की ओर देखती रह गई. उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का कोई महत्व नहीं होता, वास्तव में महत्व केवल शासकीय मूल्यों का होता है."

लीजा का ये एहसास आज भी उतना ही झकझोरने वाला है और तब तक रहेगा, जब तक सत्ता के लिए नफरत की राजनीति का फॉर्मूला कायम है.

तमस में ही एक जगह धर्म के नाम पर कत्लेआम करने वालों को फटकारते हुए वो लिखते हैं,

“लड़नेवालों के पांव बीसवीं सदी में थे, सिर मध्ययुग में.” यहां बीसवीं सदी को अगर इक्कीसवीं सदी कर दें, तो भी बात उतनी ही सही और सटीक रहेगी.

भीष्म साहनी के शब्द नफरत के अलग-अलग मुखौटों से मुकाबला करते हैं. तमस में वो धार्मिक नफरत के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो उनका प्रसिद्ध नाटक "कबिरा खड़ा बजार में" धार्मिक और जातीय घृणा, दोनों को आईना दिखाता है. नाटक के आखिरी हिस्से में बादशाह सिकंदर लोदी के साथ कबीर की लंबी बहस धर्म, जाति और वर्ग पर आधारित नफरत के बदनुमा चेहरे को न सिर्फ बड़ी बेबाकी से बेनकाब करती है, बल्कि हिम्मत और हौसले के साथ उसका मुकाबला करने का आह्वान भी करती है.

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अपने पहले नाटक "हानूश" में भीष्म साहनी नफरत के एक और पहलू पर चोट करते हैं. ये वो नफरत है जो निरंकुश सत्ता के अहंकार में चूर शासक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से करता है, कलाकार की आजादी से करता है. हानूश का तानाशाह अपने मुल्क की पहली घड़ी बनाने वाले कलाकार को पहले तो अपना दरबारी बनाता है और फिर उसकी आंखें निकलवा लेता है, क्योंकि कलाकार का अपनी मर्जी से लगातार सृजन करते जाना उसे बर्दाश्त नहीं.

हानूश के मंचन के बाद अमृता प्रीतम ने भीष्म साहनी को ये कहते हुए बधाई दी थी कि उनके इस नाटक ने इमरजेंसी पर करारी चोट की है. इस पर उन्होंने कहा था, "निरंकुश सत्ताधारियों के रहते हर युग में, हर समाज में हानूश जैसे फनकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएं भोगते रहते हैं."

नफरत का एक और रूप

भीष्म साहनी के आखिरी उपन्यास "नीलू, नीलिमा, नीलोफर" के केंद्र में है "ऑनर किलिंग" - यानी नफरत का एक और रूप. ये शायद हिंदी का पहला उपन्यास था, जिसमें एक बड़े लेखक ने "ऑनर किलिंग" के मुद्दे को उठाया था. आज वही नफरत कथित "लव जेहाद" के विरोध की शक्ल में और भी संगठित होकर सामने आ रही है.

अफवाहों, फेक न्यूज और उनके कारण बढ़ती हिंसा का मौजूदा दौर भीष्म साहनी ने नहीं देखा था. लेकिन नफरत की जड़ों और उसकी जहर-बेल को वो अच्छी तरह पहचानते थे. उनकी कहानी “अमृतसर आ गया है” बड़ी बारीकी से बताती है कि भीड़ की उन्मादी मानसिकता कैसे संचालित होती है.

घृणा के जहर से घबराना नहीं सीखा

घृणा के जहर से घबराना भीष्म साहनी ने नहीं सीखा था. उनके शब्द नफरत और हिंसा से मुकाबला करने का हौसला देते हैं. ये हौसला तमाम भटकावों के बावजूद आम लोगों की समझदारी पर उनके विश्वास का नतीजा था. अपने निधन से महज सात महीने पहले बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था,

“आम आदमी नहीं चाहता कि फसाद हों, हिंसा हो. आम आदमी चैन से जीना चाहता है. आराम से एक दूसरे के साथ रहना चाहता है. हमारे लोगों में आमतौर पर विश्वास भी है इस बात पर, पुराना इतिहास है हमारा.”

आपसी विश्वास के इस इतिहास को भीष्म साहनी की कलम और उनके हौसले ने नफरतों के मुश्किल दौर में भी जिलाए रखा. क्या हम उनके लिखे को पढ़कर और अपनी सोच में अपनाकर इस सिलसिले को और आगे बढ़ाने का हौसला दिखाएंगे ?

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