देहरादून में अपने स्कूल के दिनों से लेकर, बॉम्बे के कॉलेज और डेलावेयर-मिशिगन में यूनिवर्सिटी तक 'विज्ञान' के लिए अपनी प्रतिबद्धता को लेकर दिनेश मोहन बेजोड़ थे. इंश्योरेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाइवे सेफ्टी, वॉशिंगटन डीसी में विलियम हेडन के साथ काम करते वक्त दिनेश मोहन ने बतौर मैकेनिकल इंजीनियर की अपनी शुरुआती ट्रेनिंग को बायोमेडिकल इंजीनियर के तौर पर बदला. साथ ही ये भी समझा कि साइंटिफिक अप्रोच के जरिए कैसे गाड़ियों के क्रैश कोऔर मानवीय नुकसान को कम किया जा सकता है.
आईआईटी दिल्ली में नौकरी के लिए जैसे ही वो 1979 में भारत वापस लौटे, वैसे ही तुरंत पीएन हक्सर, राजा रमन्ना और पीएम भार्गव जैसे दिग्गजों के नेतृत्व में चल रहे विज्ञान पर बहस में शामिल हो गए. इसके परिणामस्वरूप साल 1981 में वो क्लासिक स्टेटमेंट 'A Statement on Scientific Temper' सामने आया. वो इस स्टेटमेंट पर हस्ताक्षर करने वाले संभवत: सबसे कम उम्र के वैज्ञानिक थे.
वो बयान आज भी साक्षी है कि कैसे विज्ञान को समाज में अंतर्निहित देखा गया "जब सामाजिक ढांचा और स्तरीकरण तार्किक और वैज्ञानिक तरीकों से साबित समाधानों को लागू करने से रोकते हैं तो वैज्ञानिक स्वभाव की भूमिका ऐसे सामाजिक बंधनों को सबके सामने लाने की होनी चाहिए."
ऐसे ‘टेंपर’ के साथ हुई उनकी ट्रेनिंग अगले चार दशकों तक चलती रही. उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में जांच-पड़ताल की.जैसे-हरियाणा में खेती-किसानी के दौरान आतीं चोटों, क्रैश हेल्मेट के डिजाइन, ऑटो रिक्शॉ की भूमिका, रेपिड बस बस ट्रांसपोर्ट, हाईवे सेफ्टी.
भारतीय विश्वविद्यालयों में कम मूलभूत शोध हो रहे हैं,इस पर बार-बार प्रकाश डाला. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज की.
इन सबके बीच वो अलग-अलग सरकारों में विभिन्न समितियों में नियुक्त किए गए. ट्रैफिक सेफ्टी, हाईवे डिजाइन, मेगा प्रोजेक्ट्स की पर्यावरण मंजूरी जैसे समितियों में उन्हें नियुक्त किया जाता रहा. हर बार ऐसी समितियों के प्रमुखों के साथ तीखी बहस होती रही, उन्हें ये बताते रहे कि उनका काम अमीरों की विलासिता वाली जरूरतों को पूरा करना नहीं है, उनका काम है मेहनतकश किसानों, श्रमिकों और पैदल चलने वालों की जरूरतों को पूरा करना. सत्ता में कौन है, इस आधार पर वो कुछ नीतियों में बदलाव करते रहे.
ठीक इसी लगन के साथ उन्होंने मानव अधिकार के क्षेत्र में वैकल्पिक रास्ते को चुना, ये साइंटिफिक टेंपर का पर्याय ही था. उन्होंने अमेरिका में हुए वॉटरगेट स्कैंडल को बहुत करीब से देखा था कि सत्ता क्या कर सकती है. वो उसी बिल्डिंग में काम करते थे.
इसके बाद भारत में आपातकाल लगाया गया और उनका घर कई सारे भारतीयों के लिए शरणार्थी स्थल जैसा बन गया. तो जब वो वापस भारत आए तो ये होना ही था कि वो नागरिक अधिकार से जुड़े मुद्दों जैसे- दिल्ली में सिखों की हत्या, भोपाल में यूनियन कार्बाइट फैक्टरी में हादसा, बाबरी मस्जिद विध्वंस, गोधरा हादसा, कश्मीर का मानवीय संकट, भारत-पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता से जुड़े रहे,.
वो दोस्ती-यारी में बेजोड़ (fierce) थे. जो उन्होंने दशकों से संजोई थी, कई सारी पीढ़ियां और देशों के लोगों को मिलाकर. वो हमेशा तर्क का जवाब देने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन उनका रवैया हमेशा विनोदी और उदार किस्म का रहता था. कोई भी हो वो हमेशा सबके लिए अच्छे मेहमाननवाज थे.
(II मुंबई के एल्युमनी और Hazards Centre, दिल्ली के डायरेक्टर दुनु रॉय, प्रोफेसर दिनेश मोहन के क्लासमेट रहे हैं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)