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गुलज़ार...आधी सदी से जो ताज़ादम है

वो कहानियां जिन्होंने संपूरन सिंह कालरा को गुलज़ार बनाया...

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साल था 1963. एक फिल्म आई- बंदिनी. एक गाना आया- मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे... और बॉलीवुड की सतरंगी दुनिया के कई सितारे इस श्वेत-श्याम जादू के आगे फीके पड़ गए. 30 बरस से एक बरस कम थे वो जब एक ऐसे सपनीले, सुनहरे सफर की शुरुआत हुई जो आधी सदी गुजर जाने के बाद भी ताजादम है.

ये गुलज़ार हैं.

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वही गुलज़ार जिनकी कलम का जादू कभी गोरे रंग के बदले श्याम रंग के बार्टर सिस्टम की परतें उधेड़ता है तो कभी बताता है कि नायिका का कुछ सामान नायक के पास किन हालात में पड़ा रह गया. ये कैसा गीतकार है जो कमर के बल पर नदी मोड़ देता है और गीले बदन पर उंगली से नाम अदा लिख कर बेतरह दीवाना कर जाता है.

वो जब कहता है कि चुन्नी लेके सोने पर वो कमाल लगती है तो दिल को इस बात का यकीं होता है. हंसने पर दिन कैसे होता है और गले लगाने पर शाम कैसे ढलती है, उसे सुनकर पता लगता है. दिल को बच्चा और आरजुओं को कमीना वही कह सकता है.

गुलज़ार को सुनकर न जाने कितने जवान जोड़ों ने पेड़ की छांह में गिलहरी के जूठे मटर ढूंढ़ने की कोशिश की होगी. गुलज़ार कितनी आसानी से एक दुनिया से दूसरी में दाखिल हो जाते हैं. एक शायर जो ‘तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं’ लिखता है, वो ‘नमक इस्क का भी लिखता है, जो ‘जय हो’ लिखता है, वो उसी फिल्म के लिए ‘रिंग रिंग रिंगा’ भी लिखता है.

बंटवारे का जख्म

साल था 1934. तब के अविभाजित हिंदुस्तान और आज के पाकिस्तान में एक जगह है झेलम. इसी झेलम के दीना कस्बे में पिता माखन सिंह कालरा और मां सुजान कालरा के घर 18 अगस्त 1934 को जन्मे संपूरन. अगले कुछ बरस गुलज़ार को इसी संपूरन सिंह कालरा के नाम से जीना था.

बचपन में ही मां को खो दिया. जैसे इतना दर्द काफी न हो. फिर वो पल भी आया, जिसने जेहन की दीवारों को कभी न भूलने वाले जख्मों से पाट दिया. 1947 के उसी अगस्त महीने में जब गुलज़ार का जन्मदिन होता है, बंटवारे का खंजर दिल में गहरा उतर गया.

अपने कई इंटरव्यू में गुलज़ार ने खुद कहा है कि जिस एक घटना का उनकी जिंदगी में सबसे ज्यादा असर रहा तो वो बंटवारा था. पार्टिशन के बाद कुछ वक्त अमृतसर और दिल्ली में गुजरा. जिसके बाद पड़ाव डाला मुंबई में. भाइयों से कुछ अच्छी बनी नहीं और इस लंबे चौड़े शहर में पेट तो पालना ही था. रोजगार की गरज खींच लाई एक मोटर गराज में. जहां काम मिला टूटी-फूटी गाड़ियों पर रंग करने का. पर जिसे अपनी शायरी, गीतों, नज्मों, अफसानों और फिल्मों से हिंदुस्तान के आसमां पर सतरंगी चादर लहरानी हो, वो भला कब तक रुक पाता उस गराज में?

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कैसे मिला पहला गाना?

गराज में काम करने के दौरान ही गुलज़ार की दोस्ती उस समय तेजी से उभर रहे प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन यानी PWA से जुड़े लेखकों से होने लगी थी. इनमें उस वक्त के सारे बड़े नाम शामिल थे. फिर चाहे वो कृश्नचंदर हों, राजिन्दर सिंह बेदी हों या शैलेन्द्र. शैलेन्द्र का शुमार उस जमाने के बड़े गीतकारों में होता था. गुलज़ार अदब की इन महफिलों में शामिल होते रहे.

लिखने-लिखाने के तौर-तरीकों को मांझते रहे. नाम भी संपूरन सिंह कालरा से बदल कर पहले गुलज़ार दीनवी और फिर सिर्फ गुलज़ार रख लिया. फिर एक दिन अचानक शैलेंद्र ने गुलज़ार को मशहूर निर्देशक बिमल रॉय से मिलने को कहा.

माजरा दरअसल ये था कि शैलेन्द्र और संगीतकार एसडी बर्मन के बीच किसी बात पर झगड़ा हो गया था. शैलेंद्र चाहते थे कि बिमल रॉय की इस फिल्म के गाने गुलज़ार लिख दें. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि पहले पहले गुलज़ार ने इसके लिए मना किया. वो फिल्मों में लिखने के बहुत इच्छुक नहीं थे. लेकिन शैलेंन्द्र के ‘धक्का’ देने पर वो बिमल रॉय के पास पहुंचे.

जिंदगी ऐसी ही होती है न. कभी-कभी एक धक्का ही तो चाहिए होता है. बिमल रॉय ने सिचुएशन समझाई और इस तरह सामने आया, फिल्म ‘बंदिनी’ का ‘मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे...’ पूरी फिल्म में सारे गाने शैलेंद्र के थे, सिवाय इस गाने के. लेकिन इसी एक गाने के साथ गुलज़ार हिंदुस्तानी सिनेमा के दरवाजे से पूरी धमक के साथ अंदर दाखिल हो चुके थे.

29 बरस के नौजवान की कलम से निकले इस गीत ने बिमल रॉय को गुलज़ार का मुरीद बना दिया. बिमल रॉय ने उन्हें गराज का काम छोड़कर उनका सहायक बनने का आदेश दे दिया... बस जैसे गुलज़ार को इसी एक पल का इंतजार हो. वो फफक-फफक कर रो पड़े. जैसे कई दिनों से ये रुलाई अटकी पड़ी हो. जैसे सिर पर एक हाथ का इंतजार था जो पूरा हो गया. पहले बिमल दा और फिर ऋषिकेश मुखर्जी के साथ गुलज़ार ने फिल्ममेकिंग के सबक सीखे. एक बाद एक मशहूर निर्माता-निर्देशकों की फिल्मोंं में अपने गीतों के रंग भरे.

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एक आदमी इतना सब कैसे हो सकता है!

गुलज़ार को बॉलीवुड के लिए गाने लिखते आधी सदी से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है, लेकिन ये अद्भुत शख्स सिर्फ यही तो नहीं करता. गुलज़ार कहानियां लिखते हैं. एक दौर में उन्होंने हिंदी फिल्मों के व्याकरण को बतौर निर्देशक नए सिरे से गढ़ा. अपनी पहली ही फिल्म ‘मेरे अपने’ हो या ‘इजाजत’, ‘परिचय हो या ‘कोशिश’, ‘आंधी’ हो या ‘माचिस’ या फिर ‘हुतुतू’. वो आपको शायद ही कभी निराश करते हैं. इन फिल्मों के जरिए गुलज़ार ने वो कहानियां कहीं, जो शायद वो न कहते तो कोई नहीं कहता. डायलॉग राइटर के तौर पर गुलज़ार की ‘आनंद’ को कोई भुलाए भी तो कैसे.

वो बच्चों के लिए कमाल का साहित्य रच रहे हैं. आने वाली पीढ़ी का ध्यान रखते हुए ही कई दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं से साहित्य के अनुवाद में लगे हैं. उनकी आवाज की खनक को सुनेंगे तो कई-कई बार सुनेंगे. कभी ढूंढ कर सुनिएगा- कई बरस पहले आया एक एलबम- सनसेट प्वाइंट. जिसमें गुलजार की आवाज में कहानी भी मिलेगी और उस कहानी में गुंथे गीत भी.

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रिश्तों का पेचोखम

गुलज़ार ने रिश्तों को ढोया नहीं. 1973 में अभिनेत्री राखी से शादी की, लेकिन कुछ वक्त बाद बेटी मेघना के जन्म के बाद दोनों अलग हो गए. हालांकि, दोनों ने कभी तलाक नहीं लिया. गुलज़ार, बेटी मेघना या कहें बोस्की के लिए 13 साल की उम्र तक हर साल एक किताब लिखते रहे. उन्होंने अपने बंगले तक का नाम ‘बोस्कियाना’ रखा. बड़े होने पर मेघना ने गुलज़ार की बायोग्राफी लिखी. आरडी बर्मन और गुलज़ार जिगरी दोस्त रहे. इतने कि आज भी इंटरव्यू में गुलज़ार साब आरडी को शिद्दत से याद करते हैं. गुलज़ार ने अगर बिमल रॉय को पिता का दर्जा दिया, तो वो संगीतकार और निर्देशक विशाल भारद्वाज को बेटा मानते हैं. वो कई बार कहते हैं कि विशाल ने उनकी नज्मों को जवान रखने में मदद की है.

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आधी सदी से जो ताज़ादम है

गुलज़ार से एक इंटरव्यू में गीतकार-अभिनेता स्वानंद किरकिरे ने पूछा कि वो इस उम्र में भी दिल से इतने जवान कैसे हैं, कैसे वो आज की जुबान में आज के युवाओं के लिए लिख लेते हैं? गुलज़ार का जवाब था- “मैं बालों में खिजाब नहीं लगाता, लेकिन स्याही काली इस्तेमाल करता हूं.”

गुलज़ार की रेंज, उनका दायरा समंदर जितना है, जिसके सीपी कभी खत्म नहीं होते. जितना गहरा गोता, उतना बेशकीमती मोती.

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