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जयशंकर प्रसाद, जिनकी कहानियों में विद्रोही होती थीं स्त्रियां

प्रसाद अपने लेखन में धर्म के ढकोसलों का पुरजोर विरोध करते रहे

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भारतेंदु के बाद हिंदी को अगले मुकाम पर ले जाने वाले जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1890 को वाराणसी में हुआ और बेहद कम उम्र में 15 नवंबर, 1937 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी.

तंबाकू का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे प्रसाद को महाराजा बनारस के बाद सबसे अमीर माना जाता था. 16 की उम्र में पिता की मौत के बाद मात्र छठी तक बनारस के क्‍वींस स्कूल में पढ़ाई करने वाले प्रसाद ने पुश्तैनी व्यापार को नई ऊंचाई दी.

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साहित्य और व्यापार में साथ-साथ ऊंचाई प्राप्त करने वाले वो चुनिंदा शख्‍स हैं. प्रेमचंद जब (तब की बम्बई से) फिल्म इंडस्ट्री से निराश और कंगाल लौटे थे, तब प्रसाद ने ही उनकी मदद की थी. प्रसाद ने उनके रहने का बंदोबस्त भारतेंदु परिवार के बगीचे में किया था. प्रसाद ने स्वाध्याय से हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, बांग्‍ला, पाली और प्राकृत सीखी. प्रसाद छायावादी कविता के चार प्रमुख कवियों में शामिल हैं.

पंद्रह की उम्र में कविताएं लिखना शुरू कीं. 1936 में आई किताब ‘कामायनी’ दुनिया के श्रेष्ठ महाकाव्यों में है. उन्हें हिंदी साहित्य में कालिदास के बराबर माना गया है.

प्रसाद हिंदी के पहले मौलिक कथाकार माने गए. उन्होंने पांच कहानी संग्रहों में लगभग 70 कहानियां लिखीं. हिंदी साहित्य सम्मेलन ने जयशंकर प्रसाद को उस समय के सबसे बड़े 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' से सम्मानित किया.

प्रसाद की कविताओं पर बेहद लिखा जा चुका है. इस लेख में प्रसाद की कहानियों और नाटकों पर बात होगी.

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विद्रोही होती थीं उनकी कहानियों में महिलाएं

प्रसाद की कहानियों में मूल तत्व दुःख है. उनमें दुःख का अंडर करंट बहता रहता है. मैंने उनकी लगभग 43 कहानियों में देखा कि उनके किरदार या तो बिछड़ रहे हैं या उनकी मौत हो रही है. कहानी को आधुनिक बनाने में प्रसाद ने बहुत योगदान किया. उनकी कहानियों में स्त्री (फीमेल कैरेक्टर) विद्रोही और प्रगतिशील होती थी, जो 1937 से पहले के भारत के लिए बेहद बड़ी बात थी.

प्रसाद धार्मिक व्यक्ति थे, पर धर्म के ढकोसलों का भरपूर विरोध अपने लेखन में करते रहे.

उनकी कहानी 'देवरथ' में उनका रचा किरदार सुजाता कहती है:

(ये पढ़ते हुए जेल में बंद बाबा राम रहीम और आसाराम याद आ जाते हैं)

स्थविर! तुम्हारा धर्मशासन घरों को चूर-चूर कर के विहारों की सृष्टि करता है- कुचक्र में जीवन को फंसाता है. पवित्र गृहस्थ बंधनों को तोड़कर तुम लोग भी अपनी वासना तृप्ति के अनुकूल ही तो एक नया घर बनाते हो, जिसका नाम बदल देते हो. तुम्हारी तृष्णा तो साधारण सरल गृहस्थी से भी तीव्र है, क्षुद्र और निम्न कोटि की है.

आगे सुजाता कहती है:

तुम्हारा ये काल्पनिक आडम्बरपूर्ण धर्म भी मरेगा. मनुष्य का नाश करके कोई धर्म खड़ा नहीं रह सकता.

कुछ देर बाद सुजाता कहती है कहानी में:

देवता ये उत्सव क्यों? क्या जीव की यंत्रणाओं से तुम्हारी पूजा का उपकरण संग्रह किया जाता है?

कहानी विजया में उनके द्वारा रचित किरदार सुंदरी अपने बर्बाद हो चुके प्रेमी को कहती है:

समाज से डरो मत. अत्याचारी समाज पाप कहकर कानों पे हाथ रख कर चिल्लाता है, पर पाप का शब्द दूसरों को सुनाई पड़ता है. वो स्वयं नहीं सुनता.

प्रसाद बाजारवाद के खिलाफ थे. कहानी बंजारा में उनकी किरदार मोनी कहती है, "अब मैं नहीं बटोरती, नंदू. बेचने के लिए नहीं इकट्ठा करती."

नंदू ने पूछा, “क्यों अब क्या हो गया?

जंगल में वही सब तो हम लोगों के भोजन के लिए है, उसे बेच दूंगी तो खाऊंगी क्या?

और पहले क्या था?"

वो लोभ था, व्यापार करने की, धन बटोरने की इच्छा थी.

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प्रसाद अपने लेखन में धर्म के ढकोसलों का पुरजोर विरोध करते रहे
प्रसाद मानते थे कि नाटक के लिए रंगमंच हो, न कि रंगमंच के लिए नाटक
(फोटो: क्विंट हिंदी)

हम आज जंगलों को अंधाधुंध काट रहे हैं. जमीन को अपनी छोटी ख्वाहिशों के लिए खोखला कर रहे हैं. प्रसाद ने हमारे आज के समय में मौजूद लालच का 1937 से पहले ही विरोध करना शुरू कर दिया था. ये उनकी दूरदृष्टि‍ थी.

प्रसाद की कहानियों और नाटकों में बदलाव की बात ज्यादातर फीमेल करैक्टर ही करती है. ऐसा प्रसाद ने जान के किया या अनजाने में हुआ उनसे? इस प्रश्न का उत्तर उन्हीं के साथ 1937 में चला गया!

अब बात प्रसाद के नाटकों की.

प्रसाद मानते थे- नाटक के लिए रंगमंच हो, न कि रंगमंच के लिए नाटक. हालांकि उनकी कविताओं का आधुनिक हिंदी नाटकों में बेहद उपयोग किया गया है.

प्रसाद की कविताएं नाटकों के शिखर-पुरुष कारंत जी ने कई बार कंपोज की.

उनमें से एक कविता की कुछ पंक्तियां:

बीती विभावरी जाग री!

अंबर पनघट में डुबो रही

ताराघट उषा नागरी

भारतेंदु ने नाटक के पांच उद्देश्य बताए थे :

  1. श्रृंगार
  2. हास्य
  3. कौतुक
  4. समाज संस्कार
  5. देश वत्सलता

प्रसाद ने इन उद्देश्यों में तीन तत्व और जोड़े :

  • राष्ट्रीयता
  • स्वाधीनता संग्राम
  • पुनर्जागरण के सपने

नाटक 'ध्रुवस्वामिनी' का उदाहरण देखिए. 1933 में 'ध्रुवस्वामिनी' आया. इसी वक्त प्रसाद महाकाव्य 'कामायनी' रचने वाले थे. वे अपने पीक पर थे. प्रसाद ने अपनी कविताओं, कहानियों और नाटकों में विषय पौराणिक युग से लेकर मॉडर्न इंडिया तक रखे. ये आसान नहीं है.

अतीत में खोए नहीं थे प्रसाद

प्रसाद को अपनी परंपरा का ज्ञान था, साथ ही बौद्धिकता और नैतिकता को दूर तक देखने-समझने वाली नजर. जो प्रसाद को पुराणपंथी और अतीत में खोया समझते हैं, वे गलत हैं.

प्रसाद इस नाटक में कह रहे हैं, पुरोहित, शास्त्र और कर्मकांड स्त्री स्वतंत्रता में बाधा हैं. प्रसाद के नाटक न सुखांत की श्रेणी में आते हैं, न दुखांत की, इसलिए इनको प्रसादान्त कहा गया है.

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पहले अंक में नाटक में राजा (मेल करैक्टर) अपनी पत्नी को अपने राज्य और जान की हिफाजत के लिए चतुर मंत्री के साथ के मिल के शत्रु को सौंपने को राजी है. तब देखिए राजा की पत्नी ध्रुवस्वामिनी (फीमेल करैक्टर) क्या कहती है:

ध्रुवस्वामिनी: यह तो हुई राजा की व्यवस्था. अब सुनूं मंत्री महोदय क्या कहते हैं?

मंत्री शिखरस्वामी: मैं कहूंगा अवसर देखकर राज्य की रक्षा करने वाली उचित सम्मति देना ही तो मेरा कर्तव्य है. राजनीति के सिद्धांत में राज्य की सुरक्षा सब उपायों से करने का आदेश है. उसके लिए राजा-रानी, कुमार और अमात्य सबका विसर्जन किया जा सकता है. किन्तु राज विसर्जन अंतिम उपाय है.

आगे ध्रुवस्वामिनी कहती है:

मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु संपत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता. यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते.
ध्रुवस्वामिनी

महिलाओं के उदारीकरण की बात प्रसाद 'भारत' में 1933 में कर रहे थे. पर स्त्री आज 2019 में स्वतंत्र है क्या?

प्रसाद राजनीति को समाज के लिए जरूरी मानते थे, लेकिन मनुष्यता की शर्त पर नहीं. उनका रचा किरदार इसी नाटक के दूसरे अंक में कहता है:

"राजनीति? राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है. राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व-मानव के साथ व्यापक सम्बन्ध है. राजनीति की साधारण छलनाओं से सफलता प्राप्त करके क्षणभर के लिए तुम अपने को चतुर समझ लेने की भूल कर सकते हो. परंतु इस भीषण संसार में प्रेम करने वाले ह्रदय को खो देना सबसे बड़ी हानि है.''

प्रसाद ने पूरे रचनाकर्म में तीन बाधाएं दिखाई हैं :

  1. साम्प्रदायिकता
  2. स्त्री स्वतंत्रता का हनन
  3. क्षेत्रीयता का दबाव

आज भी भारत में यही बाधाएं हैं.

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नाटक के तीसरे अंक में ध्रुवस्वामिनी एक पंडित को कहती है:

ध्रुवस्वामिनी: स्वयं आप ही मिथ्या हैं

पुरोहित (हंसकर): क्या आप वेदांत की बात कहती हैं? तब तो संसार मिथ्या है ही.

ध्रुवस्वामिनी (क्रोध से): संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती, परंतु आप, आपका कर्मकांड और आपके शास्त्र क्या सत्य हैं? जो सदैव रक्षणीया स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है?

(भोपाल के मानस भारद्वाज कवि और थियेटर आर्टिस्‍ट हैं. फिलहाल मुंबई में रहकर कला-संस्‍कृति के क्षेत्र में काम कर रहे हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है )

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