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सेक्स पर जां निसार अख्तर ने लिखा था ऐसा गाना, सेंसर बोर्ड बौखलाया

जां निसार ने अपने खत में लिखा है, आदमी जिस्म से नहीं दिलोदिमाग से बूढ़ा होता है. 

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पटकथा लेखन में मील का पत्थर लगाने वाले जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर का जन्म 18 फरवरी 1914 को ग्वालियर में हुआ था. फैज, कैफी, सरदार जाफरी के साथ जां निसार अख्तर का प्रगतिशील उर्दू शायरी के आंदोलन में नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है. जां निसार को नेहरु जी द्वारा पिछले तीन सौ सालों की सर्वश्रेष्ठ उर्दू शायरी को संगृहीत करने के लिए नियुक्त किया गया था, जिसका अनावरण इंदिरा गांधी द्वारा ‘हिन्दुस्तान हमारा’ नाम से दो भागों में किया गया.

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2006 में इसी किताब के रीप्रिंट का जावेद अख्तर ने फिर से विमोचन किया. निदा फाजली की एडिटिड 'जां निसार अख्तर-एक जवान मौत’ की भूमिका में निदा ने सातवें पेज पर लिखा है-

एक बार किसी दोस्त के साथ साहिर लुधियानवी के दरबार में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो कई दूसरे नामी-गिरामी लोगों के साथ सोफे के एक कोने में सिमटी-सिकुड़े अख्तर साहब भी दिखाई दिए. आंखों का दायरा सिर्फ हाथ और मेज पर रखे शराब के गिलास की दूरी तक सीमित. ये वो जमाना था जब उनके वक्त का ज्यादातर हिस्सा साहिर के यहां गुजरता. अपने घर तो सिर्फ कपड़े बदलने जाते थे. यूं भी तो रोजाना कपड़े बदलने और नहाने के वो शौकीन नहीं थे. कभी इत्तेफाक से बीवी-बच्चों में कुछ देर बैठ जाते तो गाड़ी का हॉर्न उन्हें फौरन आगाह कर देता. ये हॉर्न साहिर की गाड़ी का था.

जां निसार ने असफल फिल्म बहु-बेगम का निर्माण किया

बकौल निदा, 'गीतों के लिए सबसे ज्यादा बिकने वाला नाम साहिर का इस्तेमाल किया. फिल्मी दुनिया मे ऐसे खेल होते रहते हैं. मजाज लखनवी मायूस होकर वापस लौट जाते हैं और हसरत जयपुरी उन्हीं की शायरी को बेचकर गीतकार बन जाते हैं.'

पेज नंबर आठ पर निदा ने लिखा है,

साहिर का नाम उन दिनों सफलता की जमानत समझा जाता था. साहिर को एक पंक्ति सोचने में जितना समय लगता था, जां निसार उतने समय मे पच्चीस पंक्तियां जोड़ लेते थे. एक तरफ जरूरत थी दूसरी ओर दौलत. जां निसार ने शायद अपनी एक गजल में इस ओर इशारा किया है, ‘शायरी तुझको गंवाया है बहुत दिन हमने’

जां निसार की जल्द लिख सकने की आदत पर मशहूर संगीतकार खैयाम कहते हैं-

जां निसार ने करीब सौ अंतरे लिखे थे रजिया सुल्तान के गीत ‘ऐ दिल-ऐ-नादां आरजू क्या है’ को लिखते वक्त. इन सौ अंतरों में से दो अंतरे चुने. सौ अंतरे लिखने में जां निसार को दो घंटे लगे.

बकौल सलमान अख्तर, जो जानिसार के बेटे हैं और जावेद अख्तर के भाई हैं- एक बार उनसे कहा गया एक ऐसा गाना लिखिए ऐसी जवान लड़की के ऊपर जिसने कभी सेक्स नहीं किया. फिर एक रात उसने अचानक सेक्स कर लिया. फिर दूसरे दिन उससे उसकी एक दोस्त पूछती है कि कल रात को क्या हुआ?

तब उन्होंने लिखा-

रात पिया के संग जागी रे सखी

चैन पड़ा जो अंग लागी रे सखी

सैंया जी ने डाका डाला टूटी गले की माला

छूटा कानों से बाला भड़की बदन की ज्वाला

देह धनुष रंग लागी रे सखी

इस गाने को सेंसर किया गया. अश्लील माना गया और फिर इसे फिल्म से हटा लिया गया. गवर्नमेंट ने दो वकीलों को भेजा जिन्होंने म्यूजिक डायरेक्टर और जां निसार अख्तर से बात की.

वकील ने जां निसार साहब से पूछा, “आपको नहीं लगा ये अश्लील है?

जां निसार ने कहा, “देखिए मुझे सिचुएशन दी गई लिखने के लिए. मैंने सिचुएशन नहीं बनाई.

वकील ने कहा, “अख्तर साहब आप तो पढ़े लिखे आदमी हैं. पहली लाइन देखिए. रात पिया के संग...गंदी है ये. कितनी गंदी है. इसका इंडियन मोराल पर कितना खराब असर पड़ सकता है. इससे युवाओं पर कितना खराब असर होगा?

तो जां निसार अख्तर ने सिगरेट जलाई और सोचा. फिर कहने लगे, “थोड़ी सी तो गंदी है, लेकिन क्या है, मैं मौलिक रूप से लिखने वाला था- ‘रात पिया के संग सोई रे सखी’. वो ज्यादा गंदी हो जाती.

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बकौल सलमान अख्तर, जां निसार अख्तर की ‘तआकुब’ नाम की कविता उर्दू लिटरेचर में शायद इकलौती कविता है जो पुरुष की आवाज में शुरू होती है और महिला की आवाज में खत्म.

जां निसार की शायरी की झलक देखिए-

रुबाई

कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर

डरती है कहीं उनको न हो जाए खबर

थक कर अभी सोये हैं कहीं जाग न जाएं

धीरे से उढा रही है उनको चादर

गजल

जुल्फें सीना नाफ कमर

एक नदी में कितने भवर

लाख तरह से नाम तेरा

बैठा लिखूं कागज पर

कितना मुश्किल कितना कठिन

जीने से जीने का हुनर

जां निसार अख्तर के 151 फिल्मी गाने लिखे, जिनमें से कुछ इस तरह हैं-

  • आंखों ही आंखों में इशारा हो गया
  • धरती हंसती रे, छलके मस्ती रे
  • उनका आखिरी गाना था “ऐ दिल-ए-नादां आरजू क्या है”

'जां निसार अख्तर- एक जवान मौत’ के पेज नंबर 9 पर निदा लिखते हैं-

ये दोस्ती (साहिर और जां निसार की दोस्ती) जो कई बरसों के उतार चढ़ाव से गुजर चुकी थी, दिल्ली की इम्पीरियल होटल में अचानक टूट गई. हुआ यूं, साहिर अपने घरवालों के साथ जब बाहर से शॉपिंग करके लौटे तो उन्हें जां निसार हमेशा की तरह इंतजार करते नहीं मिले. तलाश शुरू हुई, काफी देर बाद पता लगा कि बरसों से ‘हां साहिर’ कहने वाला अब उनकी किसी भूतपूर्व प्रेमिका के यहां ‘हां जां निसार’ सुनने का आनंद ले रहा है.

'जां निसार अख्तर-एक जवान मौत’ के दसवें पन्ने पर निदा कहते हैं-

दोस्ती का ये ड्रामाई अंत जां निसार की शायराना और फिल्मी जिंदगी का खास मोड़ है. वो नई ताजगी के साथ शेरगोई में माइल हुए और देहांत तक (10-12 साल बाद तक) इतना लिखा जो अदबी वजन और गहराई में उनकी पहले की शायरी से ज्यादा अलग है.

भागदौड़ से थोड़ा सा काम मिलने लगा, एक दो रिकॉर्डिंग से ही लोगों का शक दूर हो गया. उन्हें बड़ी-बड़ी फिल्में मिलने लगीं. रजिया सुल्तान, त्रिशूल, चाणक्य वगैरह उनकी आखिरी दिनों की फिल्में हैं.

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‘जां निसार अख्तर-एक जवान मौत’ के 11वें पन्ने पर निदा लिखते हैं-

जां निसार ने अपने खत में लिखा है, आदमी जिस्म से नहीं दिलोदिमाग से बूढ़ा होता है. वो वास्तव में आखिरी दिनों तक जवान रहे.

एक रात एक-डेढ़ बजे दिल्ली में जामा मस्जिद के करीब जवाहर होटल में मिल गए. बुरी तरह पिए हुए थे. दिल्ली के टैक्सी वालों से मैं वाकिफ था. जानबूझ कर मैं उनके साथ हो लिया. टैक्सी मॉडल टाउन पहुंची. वो जहां ठहरे हुए थे वो बंगला लगातार आंख मिचौली खेलता रहा.

निदा आगे लिखते हैं-

जिस गली से कई बार गुजरे थे, उसी गली में वो घर था. मैंने जब जां निसार साहब से पूछा, तो बोतल के आखिरी कतरे गले में उड़ेलते हुए बोले- भाई पूरी हाफ थी. इसे खत्म करने के लिए भी तो वक्त चाहिए था. जिसके यहां ठहरा हूं, उनके यहां इस वक्त कैसे पीता? अपनी टैक्सी थी, शान से पी.

जां निसार टेक्सी से उतरकर चले गए और मुझसे कई साल छोटे लगे. जां निसार आखरी दम तक जवान रहे...

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