मीना कुमारी की कहानी की शुरुआत करते हैं उनकी अम्मी इकबाल बानो से, जिनका असल नाम प्रभावती था. मीना का ताल्लुक रविंद्र नाथ टैगोर के खानदान से था. रविंद्रनाथ टैगोर के छोटे भाई सुकुमार टैगोर की बेटी हेमसुन्दरी कच्ची उम्र में ही बेवा हो गयीं थी. उसी दौरान उनकी मुलाकात प्यारेलाल शाकिर से हुई जो उर्दू शायरी के अच्छे जानकार और खबरनवीस हुआ करते थे. जाहिर सी बात है दोनों में मोहब्बत हुई तो दोनों ने किसी की परवाह न करते हुए शादी कर ली. ये वही प्यारेलाल शाकिर हैं, जिन्होंने प्रेमचंद के बाद रिसाला (मैगजीन) 'अदीब' का संपादन किया था. इस शादी से हेमसुन्दरी और प्यारेलाल को दो बच्चे हुए, उनमें से एक लड़की प्रभावती थीं.
शादी के कुछ सालों बाद प्यारेलाल शाकिर और हेमसुंदरी की नहीं बनी और वो दोनों अलग हो गए. हेमसुंदरी अपने वतन कलकत्ता वापस आ गयीं और यहां की थिएटर कंपनी में काम करने लगीं. अपनी मां के नक्शे कदम पर चलते हुए प्रभावती ने भी अदाकारी की राह पकड़ी. उनके सपने बड़े थे, तो उसे पूरा करने के लिए वह मुंबई आ गयीं. यहां उन्होंने 'कामिनी' के नाम से कुछ फिल्मों में डांसर के तौर पर काम किया. इसी काम के सिलसिले में उनकी मुलाकात हुई मास्टर अली बक्श से, जो प्रभावती की तरह ही अपनी एक अलग पहचान बनाने आये थे. दोनों में प्यार हुआ और इन दोनों ने शादी कर ली. शादी के बाद प्रभावती ने अपना नाम बदल लिया और इस तरह से प्रभावती बन गयीं इकबाल बानो.
प्रभावती और मास्टर अली बक्श पारसी थिएटर में साथ काम किया करते थे. मास्टर अली बक्श हारमोनियम बजाते थे और प्रभावती डांस और अदाकारी करती थीं. ये वो दौर था जब साइलेंट फिल्मों का दौर खत्म होने वाला था और टॉकी फिल्में आने लगी थीं. टॉकी फिल्में आने से पारसी थिएटर का दौर खत्म होने लगा और एक ऐसा वक्त भी आया, जब पारसी थिएटर लोगों ने देखना बंद कर दिया. पारसी थिएटर के बंद होने से मास्टर अली बक्श और प्रभावती को खाने के लाले पड़ने लगे. उस पर छोटे बच्चे का साथ. मुफलिसी के उसी दौर में 1 अगस्त 1933 में मीना कुमारी का जन्म हुआ था.
मीना और अमरोही का अनोखा साथ, जिसने मीना को 'अमर' कर दिया
मीना कुमारी को मीना कुमारी बनाने में कमाल अमरोही का बहुत बड़ा हाथ था. ऐसा कमाल अमरोही के साहबजादे ताजदार अमरोही दावा करते हैं. वह कहते हैं, "छोटी अम्मी (मीना कुमारी को कमाल के बच्चे छोटी अम्मी कहते थे) की जिंदगी में बाबा के आने से पहले वह ज्यादातर धार्मिक फिल्में या बी-ग्रेड की फिल्में ही किया करती थी. जैसे 'पिया घर आजा' (1947), 'बिछड़े बालम' (1948), 'वीर घटोत्कच्छ' (1949), 'श्री गणेश महिमा' (1950), 'हनुमान पाताल विजय' (1951), 'मदहोश' (1951), 'अलाउदीन और वंडरफुल लैंप' (1952). लेकिन बाबा उन्हें सिखाया करते थे कि ऐसे चलो, ऐसे संवाद अदायगी करो. उनकी एक्टिंग और डायलाग डिलीवरी पर बाबा ने बहुत काम किया था. ताजदार की बातों में सच्चाई झलकती है."
मीना की अमरोही से मुलाकात 1951 के शुरुवाती महीनों में हुईं थी, जब वह अपनी फिल्म 'महल' (1949) की सफलता के बाद 'अनारकली' नाम की फिल्म बना रहे थे. उसके लिए उन्होंने मीना कुमारी का चयन किया था और उनके साथ कॉन्ट्रैक्ट 13 मार्च 1951 को साइन किया था. लेकिन 21 मई 1951 में मीना का महाबलेश्वर से मुंबई आते वक्त एक्सीडेंट हो गया था. इस एक्सीडेंट के बाद ही मीना की जिंदगी में कमाल अमरोही आये थे. दोनों में मोहब्बत हुईं थी और उन्होंने गुपचुप तरीके से 14 फरवरी 1952 को शादी कर ली थी.
ताजदार आगे कहते हैं, "छोटी अम्मी की सारी यादगार फिल्में शादी के बाद ही आयी हैं." उनका कहना बिलकुल दुरुस्त है, 1952 में ही मीना कुमारी की फिल्म 'बैजू बावरा' रिलीज हुईं थी, जिसमें उनके बेहतरीन अभिनय के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था. इस बात का जिक्र नरेंद्र राजगुरु ने अपनी किताब - मीना कुमारी: दर्द की खुली किताब में भी किया है.
'परिणीता' (1955), 'दिल अपना प्रीत परायी' (1960), 'साहिब बीवी और गुलाम' (1962), 'एक ही रास्ता', 'मैं चुप रहूंगी' (1962), 'दिल एक मंदिर' (1963), 'काजल' (1965), 'फूल और पत्थर' (1967) और 'पाकीजा' (1972) फिल्में भी मीना कुमारी की शादी के बाद ही आई थीं.
मीना कुमारी की मोहब्बत की दास्तान
'मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग...' फैज अहमद फैज साहब ने ये नज्म न जाने किन हालात और किसे सोच कर लिखी होगी, लेकिन यह नज्म मीना की लव लाइफ को बखूबी बयान करती है. 'प्यार' एक ऐसा शब्द जिससे मीना हमेशा महरूम रहीं. शायद प्यार उनके हिस्से में था ही नहीं. वह जिंदगी भर प्यार के लिए तरसती रहीं. जब पैदा हुईं तो बाप को जरा सी मोहबत नहीं आयी अपनी बेटी पर और उसे अनाथालय की सीढ़ियों पर छोड़ आया (बाद में वह मीना को वापस ले आये थे). कुछ बड़ी हुईं तो मां का साया सिर से उठ गया. वहां भी वह प्यार को तरसती रहीं. पिता से उन्हें प्यार की कोई उम्मीद नहीं थी, शायद इसीलिए उन्हें जहां से थोड़े से प्यार की उम्मीद दिखती, वह उसी की हो जातीं.
अपने एक्सीडेंट के दौरान वह कमल अमरोही के नजदीक आयीं और कच्ची उम्र में अपने से बहुत बड़े कमाल अमरोही से शादी रचा डाली. वह कमाल अमरोही को प्यार से चन्दन और कमाल अमरोही उन्हें मंजू कहा करते थे. अमरोही ने उन्हें मोहब्बत तो दी, लेकिन बंदिशों और शर्तों में बांधकर. मीना ने उन्हें सारी बंदिशें तोड़ कर प्यार किया था. मीना अमरोही की तीसरी बीवी थीं. अमरोही की पहली बीवी का इंतेकाल हो गया था. उनकी दूसरी शादी उनके मामू की बेटी अले-जेहरा से हुई थी. उनसे कमाल को तीन बच्चे थे - शानदार, ताजदार और रुखसार अमरोही.
जमाने ने उन पर क्या क्या नहीं तोहमत लगाए. न जाने जाने क्या-क्या नाम दिए. सच्चाई यह है कि मीना ने हर जगह सिर्फ प्यार तलाशा. जब उन्हें पति से प्यार की जगह सिर्फ बंदिशें और रोक-टोक ही मिली, तो उन्होंने दूसरों में प्यार तलाशा, लेकिन यह बात सौ टका सच है कि मीना ने भले ही किसी से मोहब्बत की हो, लेकिन किसी ने उनसे कभी मोहब्बत नहीं की. उनके शौहर कमाल अमरोही से लेकर भारत भूषण, गुलजार, दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राहुल और सावन कुमार टाक जैसे नामों की एक फेहरिस्त है, लेकिन इस फेहरिस्त में गुलजार और धर्मेंद्र का नाम सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है.
धर्मेंद्र और मीना कुमारी की बेमिसाल जोड़ी
पंजाब से मुंबई हीरो बनने आए धर्मेंद्र ने ये साबित कर दिया था कि उनमें स्टार बनने की खूबियां मौजूद हैं. मगर 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' (1960), 'बेगाना' (1963), 'बंदिनी' (1963), 'आपकी परछाइयां' (1964), 'आयी मिलान की बेला' (1964), 'पूजा के फूल' (1964) जैसी कई अच्छी फिल्में करने के बावजूद उन्हें अभी आसमान छूना बाकी था. ऐसे वक्त में उनकी जिंदगी में मीना कुमारी आयी और जैसे धर्मेंद्र को सफलता की कुंजी मिल गई.
मीना कुमारी और धर्मेंद्र की फिल्म 'फूल और पत्थर' एक जबरदस्त सफल फिल्म थी, जिसने धर्मेंद्र को रातोंरात स्टार बना दिया. हांलांकि, धर्मेंद्र और मीना कुमारी ने 'मैं भी लड़की हूं' (1962) और 'काजल' (1965) फिल्म में साथ काम किया था, लेकिन फिल्म 'काजल' के मुख्य हीरो राजकुमार थे. 'फूल और पत्थर' के हिट होने के बाद मीना कुमारी और धर्मेंद्र की जोड़ी बन गई. मीना कुमारी धर्मेंद्र को इतना चाहती थीं कि हर फिल्म के प्रोडूसर से उनका हीरो बनाने की शिफारिश करती थी, ताकि वो अपने धम्मी (मीना प्यार से धर्मेंद्र को धम्मी कहा करती थीं) के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजार सकें. धर्मेंद्र और मीना कुमारी ने अपने प्रेम संबंधों को नहीं छुपाया. उन दिनों मीना सुपरस्टार हुआ करती थी और धर्मेंद्र को अभी बहुत दूरी तय करनी थी. जाहिर सी बात थी इससे धर्मेंद्र को काफी फायदा हुआ और वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले गए.
उन दिनों धर्मेंद्र मीना कुमारी की या तो कार में दिखाई देते थे या उनके मेक-अप रूम में. जिस स्टूडियो में मीना शूटिंग कर रही होतीं, धर्मेंद्र अपना काम खत्म करके मीना पास पाए जाते थे. टीनएज की तरह प्यार की पेंचे लड़ाने वाला ये कपल शादीशुदा था. मीना अमरोही के साथ निकाह में थी और धर्मेंद्र अपने बीवी बच्चों के साथ बांद्रा में रहते थे. सफलता का नया-नया स्वाद, उस पर देश की सबसे हसीन और सफल अभिनेत्री का साथ, धर्मेंद्र के लिए जैसे सोने पर सुहागा जैसे था.
धर्मेंद्र और मीना कुमारी के प्यार के किस्से उस दौर की हर मैगजीन में मजेदार तरीके से छपते थे. उनके अफेयर के चर्चे इतने आम से हो गए थे कि दिल्ली में एक फंक्शन के दौरान उस वक्त के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मुलाकात जब मीना कुमारी से हुई, तो उन्होंने पूछ लिया कि आपका बॉयफ्रेंड कैसा है? मीना कुमारी इस बात पर झेंप गयीं थी.
धर्मेंद्र की गाड़ी अक्सर जानकी कुटीर में देखी जाती थी, जहां मीना कुमारी अपने पति से झगड़े के बाद रहा करती थीं. धर्मेंद्र कभी अपनी पत्नी को नहीं छोड़ना चाहते थे, यह बात मीना कुमारी को भी अच्छी तरह से पता थी और वह दोबारा दूसरी औरत बन कर खुश थीं. सब कुछ सही चल रहा था. 'फूल और पत्थर' फिल्म के सफल होने के बाद धर्मेंद्र ने बहुत सारी फिल्में साइन कर लीं और लगातार तीन-तीन शिफ्टों में दूसरी नयी अभिनेत्रियों के साथ काम करने लगे. उनकी फिल्में भी लगातार हिट होने लगीं और दूसरी अभिनेत्रियों के साथ जोड़ी भी.
इधर, धर्मेंद्र अपने करियर में आगे बढ़ गए थे, उधर मीना अपने ढलते हुए करियर के साथ उम्र के भी ढलान पर थीं. धर्मेंद्र अब आगे बढ़ गए थे और मीना उनके लिए गुजरा हुआ कल. लेकिन कहते हैं न, एक बार गुजरा कल जरूर वापस आता है. मीना और धर्मेंद्र के किस्से में भी यही हुआ. मशहूर निर्माता निर्देशक के. आसिफ ने 'मोहब्बत और खुदा' नाम की फिल्म की शुरुआत की और उसकी पार्टी मुंबई की सन एंड सैंड होटल में रखी. इस पार्टी में मीना भी आयी थीं. तभी पार्टी में धर्मेंद्र आते हैं. मीडिया के कैमरों की निगाहें एक पल के लिए ठहर जातीं हैं, जब दोनों का आमना-सामना होता है. कुछ देर के लिए दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और धर्मेंद्र, मीना को इग्नोर करके आगे बढ़ जाते हैं. मीना एक बेहतरीन अभिनेत्री होने की मिसाल पेश करती हैं और अपने इमोशंस को संभाल उस पार्टी से नदारत हो जाती हैं.
उस रात वह अपनी डायरी में लिखती हैं, "इस जहां में मोहब्बत तो न थी, मुरव्वत को क्या हुआ...?"
मीना कुमारी का धर्मेंद्र से ब्रेक-अप होने का एकc दूसरी वजह बताते हुए अनीता पाध्ये अपनी किताब 'इश्क जहर भरा प्याला' में लिखती हैं कि उस दौरान 'राहुल' नाम के शख्स का मीना की जिंदगी में आने की वजह से दोनों की राहें अलग हो गई थी. एक सच्चाई यह भी है की धर्मेंद्र मीना को बहुत चाहते थे, उस दौरान मीना बहुत खुश रहा करती थीं.
मीना और उनकी शराबनोशी
मीना की शराब पीने की लत के बारे में बहुत कुछ लिखा गया. कई लोगों ने लिखा कि धर्मेंद्र की वजह से उन्हें शराब की लत लगी, जो बिलकुल गलत है. उन्हें शराब की लत अमरोही के साथ रहते हुए ही लग गई थी. शादी के बाद मीना अमरोही के घर शिफ्ट हो गई थीं और अपने अभिनय करियर में काफी व्यस्त थी. उनकी व्यस्तता का आलम यह था कि वो आठ शिफ्ट में काम करती थीं. काम की वजह से ठीक से सो नहीं पाती थी, फिर ऐसा हुआ कि उन्हें नींद आनी ही बंद हो गयी, जिसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
उन्हें जुकाम की समस्या रहने लगी तो डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि वो थोड़ी ब्रांडी पी लिया करें, दवा की तरह ताकि उन्हें नींद आ सके. बस यहीं ये उन्हें शराबनोशी की आदत लग गई. जब घर में कमाल अमरोही टोकने लगे तो वह डिटॉल की शीशी में ब्रांडी भर के पिया करती थी.
जब वो अमरोही से अलग होकर अपनी छोटी बहन मधु के घर रहने गई, जोकि हास्य अभिनेता महमूद की पत्नी थी, तो बिना किसी रोक-टोक के पीने लगीं. उसके बाद जब वो जानकी कुटीर शिफ्ट हुईं तो जो लोगों के अदब से कम पीती थी, अब उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था. कुछ तो उन्हें आदत थी, कुछ उनके रिश्तेदार उन्हें पिलाया करते थे, ताकि उनकी कमाई उन्हें मिल सके. मीना अपने रिश्तेदारों के लिए कमाई का एकमात्र जरिया थीं. शायद इसीलिए किसी ने उनको पीने से रोका नहीं. उनके रिश्तेदार उन्हें बेहद घटिया दर्जे की शराब पिला दिया करते थे. धर्मेंद्र जब जानकी कुटीर आते थे, तो मीना को ज्यादा पीने से रोकते थे, लेकिन वह अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए. अब मीना को कोई समझने वाला नहीं था. मीना दिन-ब-दिन शराबनोशी में डूबती चली गयीं और इसी शराब ने एक दिन उनकी जान ले ली.
मीना से जुड़ा वह किस्सा जो वक्त के साथ कहीं खो गया...
बात 1953 की है जब मीना उस वक्त के मशहूर निर्माता-निर्देशक की फिल्म में काम कर रहीं थीं. बाद में फिल्म से उन्हें निकाल कर मधुबाला को ले लिया गया. मीडिया में ये खबर आयी कि मीना ने उस फिल्म को दी हुई डेट्स कमाल अमरोही की फिल्म 'दायरा' को दे दीं थीं, लेकिन मीना को इस फिल्म से निकाले जाने का किस्सा कुछ और ही था, जिसका जिक्र नरेंद्र राजगुरु ने अपनी किताब 'मीना कुमारी- दर्द की खुली किताब' में किया है.
मीना को उस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत में ही ये लगने लगा था कि फिल्म के डायरेक्टर उनसे फिल्म में काम करने के अलावा कुछ और उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन मीना एक कुशल अभिनेत्री की तरह अपने काम पर ध्यान दिया, जिससे उन्हें बिलकुल भी प्रोत्साहन नहीं मिला. फिल्म के डायरेक्टर को जब कोई चारा नहीं सूझा तो फिल्म की शूटिंग के बाद खाने का प्रबंध किया और मीना से आग्रह किया कि खाने के लिए वह भी रुकें. मीना रुकना तो नहीं चाहती थीं, लेकिन जब यूनिट के सब लोगों ने गुजारिश की तो मीना मान गयीं.
डायरेक्टर साहब ने जानबूझ कर मीना की खाने की कुर्सी अपनी कुर्सी के पास लगवाई और मौका पाकर खाने के दौरान उन्होंने मीना के पांव पर अपना पैर रख दिया. मीना ने अपना पैर तुरंत हटा लिया. इस पर उस डायरेक्टर ने मीना के जांघों पर अपना हाथ रख दिया. डायरेक्टर की इस हरकत पर मीना को बहुत गुस्सा आया, लेकिन अपने गुस्से को काबू करते हुए उन्होंने से डायरेक्टर से कहा कि, "ये आप क्या कर रहे हैं मैं तो आपकी बेटी की तरह हूं." मीना ने शायद ये इसलिए कहा होगा क्योंकि उनकी मां इकबाल बानो उस डायरेक्टर के साथ काम कर चुकी थीं और खुद मीना ने बतौर बाल कलाकार उस डायरेक्टर के प्रोडक्शन हाउस की फिल्म में 'नलिनी जयंत' के बचपन की भूमिका निभायी थी.
मीना की जरा सी बात डायरेक्टर साहब बर्दाश्त नहीं कर पाए और गुस्से में लाल-पीले हो गए और मीना को न सिर्फ अपनी फिल्म, बल्कि फिल्म इंडस्ट्री से निकलवा देने की धमकी देने लगे. खैर, मीना बिना कुछ कहे वहां से निकाल गई. ये मामला प्रोडूसर एसोसिएशन तक गया था और नतीजा यह निकला गया कि मीना अब इस फिल्म में काम नहीं करेंगी. मीना अपनी दूसरी फिल्मों में बिजी हो गयीं और ये बात आयी-गई हो गई, पर इसके बाद जो कुछ हुआ वह बहुत शर्मनाक था. फिल्म के डायरेक्टर ने साजिश रची और दिलीप कुमार के जरिये मीना से बदला लिया.
उन दिनों दिलीप कुमार 'फुटपाथ' फिल्म में मीना कुमारी के साथ काम कर रहे थे, जिसके निर्देशक जिया सरहदी थे. 'फुटपाथ' में बिना जरूरत का एक दृश्य रखा गया, जिसमें दिलीप कुमार को फिल्म की हेरोइन को चांटा मरना था. दिलीप ने ऐसा चांटा मारा कि मीना अपने गाल पर हाथ रखकर वहीं बैठ गयीं. उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उनकी आंखों से आंसू निकलने लगे. तब जिया सरहदी ने तसल्ली देते हुए कहा चांटा ज्यादा रियल लगे बस इसीलिए बिना किया गया. बस एक रिटेक और. इस तरह से न जाने कितने रीटेक हुए. इतने रीटेक के बाद मीना इस काबिल नहीं बचीं कि अगले 3-4 दिन तक शूटिंग कर सकें.
बाद में मीना को पता चला ये सब एक साजिश के तहत किया गया था, ताकि मीना को सबक सिखाया जा सके. जिया सरहदी को उस प्रोडूसर ने इनाम के तौर पर अपने प्रोडक्शन हाउस की अगली फिल्म निर्देशक बना दिया. दिलीप कुमार को शयद इस साजिश के बारे में नहीं पता था, न ही मीना ने इस बाबत उनसे कुछ बात की.
और फिर मीना ने 'पाकीजा' पूरी की…
मीना कुमारी का नाम आते ही सबसे पहले किसी फिल्म का नाम आता है, तो वह है 'पाकीजा'. शौहर कमाल अमरोही का घर छोड़ने के बाद शराबनोशी की लत ने उन्हें अस्पताल तक पंहुचा दिया था. लेकिन जब दोनों साथ थे तो 1958 में मिलकर एक सपना देखा था 'पाकीजा' बनाने का. मीना कुमारी के घर छोड़ने की वजह से फिल्म अधूरी रह गई थी. कमाल साहब चाहते थे कि 'पाकीजा' पूरी हो, लेकिन कैसे यह नहीं जानते थे.
एक बार सुनील दत्त और नरगिस किसी वजह से कमाल अमरोही के घर गए बातों-बातों में उन्होंने 'पाकीजा' के कुछ प्रिंट देखे तो उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ कि यह फिल्म क्यों नहीं बनी. नरगिस, मीना की खास सहेली थीं. उन्होंने मीना को समझाया. म्यूजिक डायरेक्टर खय्याम और उनकी पत्नी ने भी मीना को समझाया कि उन्हें यह फिल्म पूरी करनी चाहिए. मीना, नरगिस और खय्याम साहब को बहुत चाहती थी और उनकी बहुत इज्जत भी करती थी. इसलिए वो यह फिल्म दोबारा से करने के लिए तैयार हो गयीं. फिल्म शुरू होने का एक यह पहलू तो था ही, सिक्के का दूसरा पहलु यह भी था कि मीना खुद भी यह फिल्म पूरा करना चाहती थीं.
मीना 7 मार्च, 1969 को फिल्म 'पाकीजा' के सेट पर आयीं और अपने चंदन यानी कमाल अमरोही को पेड़ा खिलाया और इस तरह से एक बार फिर 'पाकीजा' की शूटिंग शुरू हुई.
'पाकीजा' की शूटिंग के वक्त मीना कुमारी की तबीयत बहुत खराब रहने लगी थी, तो शूटिंग में बहुत दिक्कत आती थी. इसीलिए फिल्म के डायरेक्टर ने एक तरकीब निकली कि फिल्म के कई सीन्स मीना कुमारी के डुप्लिकेट्स पद्मा खन्ना और बिलकीस पर फिल्माए. बिलकीस काफी हद तक मीना कुमारी जैसी ही दिखती थी. कमाल अमरोही ने उनपर कई क्लोज शॉट्स भी फिल्माए थे. फिल्म का आखिरी गीत- "हम तीरे नजर देखेंगे" दरअसल पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया था.
फिल्म का एक और गीत- "चलो दिलदार चलो" में कमाल अमरोही ने मीना कुमारी और फिल्म के हीरो राजकुमार के डुप्लिकेट्स को लेकर शूट किया था. हुआ यूं कि इस गाने की शूटिंग कमाल अमरोही गोवा में शूट करना चाहते थे और राजकुमार किसी और लोकेशन पर चाहते थे. कमाल अमरोही अपनी बात पर अड़ गए कि उन्होंने जहां शूट की लोकेशन तय की है, वहीं पर इसे शूट करेंगे. इस बात से राजकुमार नाराज हो गए और उन्होंने गीत के शूट के लिए अपनी तारीखें नहीं दीं.
कमाल अमरोही ने एक तरकीब निकाली. उन्होंने राजकुमार के जैसे दिखने वाले डुप्लीकेट को लेकर शूट कर डाला. दूसरी ओर इस गाने को फिल्माने के वक्त मीना कुमारी शदीद बीमार थीं, तो उनकी जगह कमाल अमरोही ने बिलकीस को लेकर शूटिंग की.
जहां क्लोज-अप शॉट्स हैं, वहां बाद में मीना कुमारी के शॉट्स बाद में लेकर लगा दिए गए थे. इसीलिए इस गाने में अगर आप देखेंगे तो ज्यादातर आसमान, चांद सितारे, बादल, झरने ही दिखेंगे.
मौत के बाद भी विवादों से नाता नहीं टूटा
28 मार्च 1972 को मीना की तबीयत ज्यादा खराब हो गयी और आनन-फानन में उन्हें मुंबई के नेपियन-सी इलाके के अस्पताल एलिजाबेथ नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया. इलाज से मीना को कोई फायदा नहीं हो रहा था. 3 से 4 दिन वह कोमा में रहीं और उनके ठीक होने के आसार भी नजर नहीं आ रहे थे. तो डॉक्टर्स ने परिवार वालों से उनके मुंह पर लगी ऑक्सीजन की नली निकलने की इजाजत मांगी. मीना की बड़ी बहन खुर्शीद और छोटी बहन मधु ने इजाजत दे दी, लेकिन कमाल नहीं मान रहे थे, तब मीना कुमारी की सौतेली बहन शमा ने कमाल से कहा, "भाई जान अब मीना को इजाजत दे दीजिये और उसे माफ कर दीजिये ताकि उसकी रूह आजाद हो जाये." कमाल उस कमरे में गए जहां मीना मौत और जिंदगी के बीच झूल रहीं थीं. कमाल ने उनके चेहरे की तरफ देखते हुए कहा, "अलविदा मंजू..." और मीना कुमारी के चेहरे से नली हटा दी गयी.
4 साल की उम्र से फिल्मों में काम करने वाली मीना ने 38 साल की उम्र में 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से अलविदा कहा.
"टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली"
मीना कुमारी की मौत के बाद ये विवाद भी रहा कि उन्हें कहां दफनाया जाये. मीना कुमारी सुन्नी संप्रदाय से आती थीं और कमाल अमरोही शिया समुदाय से. क्योंकि मीना काफी वक्त से अपने शौहर से अलग रह रहीं थीं, तो लोगों ने ये मुद्दा उठाया कि उन्हें सुन्नी कब्रिस्तान में दफनाया जाये, लेकिन मीना का कमाल से तलाक नहीं हुआ था, तो कमाल अमरोही के कहने के मुताबिक उन्हें रहमताबाद के कब्रिस्तान में दफनाया गया. मीना कुमारी की मौत के बाद उनकी फिल्म 'पाकीजा' को देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ आया. फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई. अफसोस इस कामयाबी को देखने के लिए मीना कुमारी इस दुनिया में नहीं थीं.
मीना कुमारी की मौत के बाद उनकी आखिरी फिल्म 'गोमती के किनारे' रिलीज हुई, जिसे सावन कुमार ने निर्देशित किया था. इस फिल्म में उन्हें 'मीना जी' के नाम से क्रेडिट दिया गया था.
मीना कुमारी के शौहर कमाल अमरोही की मौत 11 फरवरी 1993 को हुई और उन्हें उनकी ख्वाहिश के मुताबिक मीना की कब्र के बगल में दफनाया गया.
'मीना कुमारी तुम्हें मौत मुबारक हो' - नरगिस
मीना कुमारी की मौत के बाद नरगिस ने उर्दू की एक मैगजीन में एक आर्टिकल लिखा था. इसमें उन्होंने मीना को उनकी मौत की मुबारकबाद दी थी और कहा था, "खबरदार इस दुनिया में दोबारा कदम न रखना, यह दुनिया तुम जैसे लोगों के लिए नहीं है."
(मोहम्मद शमीम खान पेशे से पत्रकार हैं. वो @shameemkhan8 हैंडल से ट्वीट करते हैं. आर्टिकल में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं. द क्विंट उनके विचारों का समर्थन नहीं करता है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)