ADVERTISEMENTREMOVE AD

एमएफ हुसैन: जिनकी पेंटिंग आजाद सोच और कला की आजादी दिखाती थी

ऐसी कोई चीज है ही नहीं है जिस पर हुसैन ने पेंटिंग न बनाई हो

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

वो गर्मियों की एक शांत सुबह थी और मैं अपने घर पर बैठी हुई भारी-भरकम नाश्ता निपटाने में जुटी थी. मैं पांच महीने से प्रेग्नेंट थी और मैटर्निटी लीव पर चल रही थी. सुबह करीब 8 बजे मुझे एक कलाकार दोस्त का मैसेज मिला कि हुसैन साहब नहीं रहे.

मैं जिस टेलीविजन न्यूज नेटवर्क में काम करती थी, मैंने वहां फौरन फोन किया, ताकि ये खबर सबसे पहले ब्रेक कर सकूं. इसके बाद तो पूरा दिन ही व्यस्त हो गया. मुझे खास तौर से काम पर बुला लिया गया, ताकि मैं लाइव और फोन चैट और स्टूडियो में आने वाले मेहमानों का काम देख सकूं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

दिन बीतने के बाद, जब न्यूजरूम की भागमभाग से फुर्सत मिली, तब जाकर मुझे 96 साल के हुसैन के निधन पर शोक मनाने का मौका मिल पाया.

मैं उन्हें दोस्त तो नहीं कह सकती लेकिन वो बहुत ही प्यारे परिचित थे. हमने कई बार बहुत लंबी बातचीत की थी- कुछ मेरे शूट के दौरान और कुछ बस हालचाल जानने के वास्ते.

खुद से 65 साल बड़े किसी शख्स के ताजे काम के बारे में खोज-खबर लेते रहना बहुत ही दिलचस्प था. उन्हें हद में नहीं बांधा जा सकता था और शायद अपनी सोच में वो हमेशा मासूम बालमना ही रहे.

एक बार उन्होंने मुझे इस्लामी सभ्यता पर अपनी ताजा सीरीज के बारे में बातचीत करने के लिए बुलाया, जो दोहा के म्यूजियम आफ इस्लामिक आर्ट के लॉन्च का हिस्सा था. वो तब 93 साल के थे, लेकिन उन्होंने जिस तरह से संग्रहालय के आर्किटेक्ट का परिचय दिया, वो बहुत ही मजेदार था-किंवदंति जैसे आईएम पई-बुजुर्ग और जहीन, इत्तेफाक से वो भी 90 की उम्र के फेरे में थे, हुसैन से बस दो साल छोटे.

मैं पहली बार हुसैन से कॉलेज के लिए एक इंटरव्यू के सिलसिले में मिली थी जब में पत्रकारिता की छात्र थी. उस शाम उन्होंने रेमब्रॉन्ट की नाइट वाच से प्रेरित पेंटिंग बनाई थी, ये आर्ट गैलरी में मौजूद चन्द खुशकिस्मत लोगों के सामने पेंटिंग बनाने का कार्यक्रम था. उन्होंने सबसे पहले मुझे इंटरव्यू देने का अपना वादा निभाया जबकि वहां मौजूद स्थापित न्यूज चैनल अपनी बारी के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे.

जब मैंने उनसे जानकारी के अभाव में बेवकूफी भरा सवाल पूछा, तो उन्होंने बुरा नहीं माना. उन्होंने बमुश्किल से इतना कहा:

“तुम्हारी समस्या ये है कि तुम बहुत कम उम्र की हो, तुम मेरी कला के बारे में ज्यादा नहीं जान सकती.”

आज कला पत्रकारिता में 14 साल बिताने के बाद, मैं अभी भी उनकी कला के बारे में जान ही रही हूं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
सभी कलाकारों के लिए एक या दो ही विषय होते हैं जिनसे वो प्रेरित होते हैं, लेकिन ऐसी कोई चीज है ही नहीं जिस पर हुसैन ने पेंटिंग न बनाई हो. चाहे हमारी सभ्यता हो, सियासत हो या पौराणिक कहानियां हों. आज की हस्तियां जैसे मदर टेरिसा और माधुरी दीक्षित और बहुत कुछ. जिस आखिरी चीज पर वो काम कर रहे थे वो थी ‘मोहनजोदड़ो से मनमोहन सिंह तक.

ये बहुत दिलचस्प है कि कला पत्रकारिता के मेरे करियर में ‘हुसैन का जिक्र’ बार-बार आता-जाता रहा. पढ़ाई के दौरान कॉलेज के लिए लिया गया इंटरव्यू, फिर उनके 88 साल के हो जाने पर की गई स्पेशल रिपोर्ट, जब उन्होंने मुझे खुद का साइन किया हुआ एक पोस्टर तोहफे में दिया. कई साल बाद कला पर बहुत दिलेर स्टिंग ऑपरेशन-मैंने एक आर्ट रैकेट को बेनकाब किया, जब मुझे हुसैन की एक नकली कलाकृति एक करोड़ रुपए में पेश की गई थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मेरे लिए सबसे यादगार वो दिन है जब 2008 में मैंने दुबई में हुसैन के साथ पूरा दिन शूट करते हुए बिताया. ये पहली बार था जब देश ने जाना कि निष्कासन में हुसैन किस तरह की जिंदगी बिता रहे हैं.

वो बहुत सी चीजों पर काम कर रहे थे- भारतीय सिनेमा के 100 साल पर एक सीरीज, अरबी भाषा सीखने की कोशिश और मुरैनो ग्लास की कलाकृतियों पर अपनी खास छाप वाले घोड़ों को उकेरना. जब भारत में हुसैन विरोध का दबदबा था,तब वो बेहिसाब रफ्तार से कला का सृजन कर रहे थे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

सभी को हुसैन के साथ लाल-फेरारी पर मेरी ड्राइव याद है, लेकिन उस दिन की मेरी याद हुसैन के साथ पूरे दिन इस विषय पर बातचीत थी कि हुसैन ने कलाकार बनने का फैसला क्यों किया. उनके साथ होने का मतलब इतिहास की किसी किताब को बहुत ही दिलचस्प तरीके से दोहराने जैसा था.

भारत की आजादी की रात को सड़कों पर जश्न मनाया जा रहा था. हुसैन को याद आता था कि वो किस तरह से सड़क पर पैदल चले थे और खुद को आजाद महसूस किया था. तभी उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ कर एक आजाद आदमी की तरह जीने का फैसला किया. आजाद सोच, आजाद ख्यालात और कला के आजाद भाव वाला आदमी.

अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने कतर की नागरिकता स्वीकार कर हम सबको हैरान कर दिया. दुख से मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे, जब मैं अंतरराष्‍ट्रीय कार्यक्रमों में उनके नाम के नीचे उनके देश का नाम ‘कतर’ लिखा देखती थी. लेकिन ये उनकी 90 साल की व्यवहारिकता का नतीजा थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हालांकि भारत उनके दिल में बसा था और खासकर उनके काम में उसी का अक्स था, वहीं कतर एक ऐसी सुविधाजनक जगह थी जिसने उन्हें शांति के साथ अपनी कला को रचते रहने का मौका दिया था.

(इसे क्विंट के आर्काइव से निकाल कर दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है.)

(सहर जमां एक स्वतंत्र कला पत्रकार, न्यूजकास्टर और क्यूरेटर हैं. उन्होंने कला पर एशिया का पहला वेब चैनल, हुनर टीवी की स्थापना की. ये लेख सबसे पहले 9 जून 2016 को प्रकाशित हुआ था.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×