मिर्जा गालिब का तार्रुफ लिखना किसी जुर्रत से कम नहींं. वो जो खुद ही कहता है, “ दर्जे बेदिल में रेखता लिखना, असद उल्लाह खान कयामत है”
मिर्जा असद उल्लाह खान जिसे दुनिया मिर्जा गालिब के नाम से जानती है, गजल और शायरी की दुनिया के बेताज बादशाह कहे जाते हैं. 5 बरस की उम्र में सर से पिता का साया उठ गया, मुगल दरबार की सरपरस्ती मिली तो शायर बन गए.
“हैं और भी दुनिया में सुख अनवर बहुत अच्छे. कहते हैं गालिब का है अंदाज ए बयां और”
गालिब लिखने वालों के लिए प्रेरणास्रोत हैं. ये कहना भी गलत नहीं होगा कि गालिब अपने आप में एक इंस्टीट्यूशन से कम नहीं थे.
दर्द, गम तिशनगी हिज्र, मोहब्बत, जो कुछ भी उन्होंने जिया, लफ्जों की कश्ती में वक्त के साहिल पर छोड़ दिया.
“बाजीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे. होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे “
हर मंजर को देखने का उनका अपना ही नजरिया था.
गालिब नवाबी दौर के अजीज शायर थे. रातभर कलाम लिखना और मुगल दरबार में सुनाना उनकी नौकरी थी. बादशाह बहादुर शाह जफर ने उन्हें ‘दबिर उल मुल्क’ और ‘नज्म उद दौला’ के नाम से नवाजा. बचपन बदनसीबी और आवारगी में गुजरा. छोटी उम्र में ही उमराव बेगम से निकाह हो गया. वो कहते थे,, ”हाथों की लकीरों पर मत जा गालिब, नसीब उनके भी होते हैं, जिनके हाथ नहीं होते” अल्हड़ मिजाज और फक्कड़ जिंदगी गालिब ने दिल की जागीर के अलावा और कुछ नहीं जोड़ा.
पैसे की तंगी को भी गालिब ने कलाम बना दिया.
‘’इफतारे सोम की जिसे दस्तगा न हो, उस शख्स को जरूरी है रोजा रखा करें. जिसके पास रोजा खोल खाने कुछ न हो, रोजा अगर ना खाए तो नाचार क्या करे.’’
गालिब को इस बात का मलाल था कि लोग उनके शेरों के साथ अपनी बात जोड़कर कह दिया करते थे. अक्सर उनके लिखे कलाम गुम जाया करते थे, नवाब जियाउद्दीन खान और नवाब हुसैन मिर्जा गालिब का कहा लिख लिया करते थे. उनके घर लूट गए और कई नायाब कलाम भी जाते रहे.
गालिब ने शराब को हमसफर माना, वह कहते हैं:
हालांकि खुदा की इबादत में उन्होंने यह भी कहा:
" न था कुछ तो खुदा था. कुछ ना होता तो खुदा होता; डुबोया मुझको होने ने. ना होता मैं तो क्या होता.''
गालिब की इश्क से मोहब्बत
गालिब को इश्क से भी मोहब्बत थी.
गालिब की बेगम उमराव का इंतकाल हुआ, तो गालिब और भी गमजदा हो गए, उसका मारना जिंदगी भर ना भूलुंगा. खुद को समझाते रहे कि किसी के मरने का गम वह करें, जो आप ना मरे. ‘’उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक वह समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है. हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है.
शायद यही ऑल इज वेल का लॉजिक रहा होगा.
चांदनी चौक में बल्ली मारान का मोहल्ला और उसकी गली कासिम में गालिब की हवेली, उस दौर में जो कुछ भी वहां से गुजरा गालिब की चौखट पर ठहर गया. जहां 2 घंटे की बारिश में 4 घंटे छत टपकती थी, उस मकान को आज एक म्यूजियम बना दिया गया है.
गालिब हर दौर के पसंदीदा शायर रहे हैं. आज भी उनके चाहने वालों की इंतेहा है. मशहूर राइटर गुलजार साहब खुद को गालिब का मुलाजिम कहते हैं. उन्होंने गालिब की याद में बल्लीमारान का मोहल्ला लिखी है. जिसमें वो गालिब से कहते हैं, "गली कासिम में आकर रुक गया हूं मिर्जा नोशा, जमाना हर शै में पढ़ रहा है तुम्हारे सब सुखन गालिब, समझते कितना है यह वह जाने या तुम समझो.''
‘इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से, एक तरतीब चरागों की शुरू होती है. एक कुरान-ए-सुखन का सफा खुलता है, असदुल्ला खां गालिब का पता मिलता है.’
आज के दौर के मशहूर लेखक जावेद अख्तर गालिब को हिंदुस्तान का नायाब नुमाइंदा मानते हैं वह कहते हैं, 'हिंदुस्तान से बाहर गालिब हो ही नहीं सकता.'
गालिब हिंदुस्तान के फलसफे हिंदुस्तान की तारीख और फारसी मुगल कल्चर की ऐसी बेजोड़ और कमाल की सिंथेसिस है, जिसकी और एक ही मिसाल है और वह है ताजमहल. ''इमा मुझे रोके हैं खींचे है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे. या फिर " जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा ,कुरेदते हो राख ,जुस्तजू क्या है." यह दोनों बातें कोई हिंदुस्तानी ही लिख सकता है.
15 फरवरी 1869 को गालिब ने दुनिया को उसके हाल पर छोड़कर अलविदा कह दिया. उनकी गजलें उनके कलाम ,उनकी शायरी दिल के भीतर और बाहर की महफिलों को हमेशा रोशन करती रहेंगी.
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